Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 6
________________ इन्द्रिय-अनुश्रोतगमन का त्याग, दम्भ का त्याग, फलतः असंक्लिष्ट संपत्ति, निरनुबन्ध अशुभकर्म, सानुबन्ध क्रिया, समंतभद्रता, परार्थ साधकता, अनेक भविक आराधनावश चरम भव, सर्वकर्मक्षय इत्यादि प्रतिपादित हैं। (५) 'प्रव्रज्या-फल' नामक पंचम सूत्र में मोक्ष का विशिष्ट स्वप वर्णित किया गया है। साथ साथ सांयोगिक सुख की दुःखरूपता, असायोगिक सुख की बुद्धिगम्यता, मुक्त के कभी भी पुनः पतन का अभाव, दिक्षामत की नियुक्तिकता, अस्पृशद्गति से सिद्धशिलागमन, संसार का अविच्छेद, त्रिकोटिपरिशुद्ध जिनाज्ञा योग्य को ही देनी, इत्यादि का भी सुन्दर प्रतिपादन है। ___ ऐसे महान प्रौढ शास्त्र पर आ. श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज ने संस्कृत भाषा में सुन्दर स्पष्ट सुबोध टीका यानी विवेचन लिखा है। कई स्थान पर मूल सूत्र में कही हुई बात का समर्थन करने के लिए प्रबल युक्ति-उपपत्ति भी आपने सुन्दर दी है, और कईयों के रहस्यों का अनन्यलभ्य उद्घाटन किया है। सारांश यह कि अपने लेख से 'पंचसूत्र' की महाशास्त्रता का उत्तम आविर्भाव किया है। ___ यही सोचने योग्य है कि १४४४ शास्त्रों के प्रणेता, संस्कृत प्राकृत साहित्य के गगनमण्डल में मार्तण्ड सा साहित्य के विधाता, स्वपर दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान, अपूर्व ज्ञानगंगा के हिमाचल, निष्पक्ष समदर्शी आलोचक, साहित्य के इतिहास में सुवर्णाक्षरों से अङ्कित, महान शासनप्रभावक आचार्य भगवान श्री हरिभद्रसूरीजी महाराज जैसे जिस पर विवेचनार्थ अपनी सूत्र-सी कलम उठावे, वह ग्रन्थ कितना उत्तम, उपयुक्त एवं अध्ययन-मनन-भावनार्ह होगा! इसी प्रेरणा से यह हिन्दी प्रकाशन किया जाता है। ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद पू.पं. श्री भानुविजयजी गणिवर (स्व.आचार्य भुवनभानु सूरीश्वरजी म.) से रचित 'उच्च प्रकाशन ना पंथे' संज्ञक सटीक पंचसूत्र के विस्तूत गुजराती विवेचन को सामने रखकर पं. श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल ने किया है। कई साल पूर्व विशेषतः कॉलेजियनों के लिए आंग्ल भाषा में पंचसूत्र का एक अनुवाद टीका टीप्पण सहित प्रकाशित हुआ था; हमें लिखते हुए दुःख होता है कि उसके निर्माता प्रोफेसर ने ग्रन्थ समझने में स्वयं कई क्षतियां करते हुए भी आ. श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज के कतिपय अर्थ प्रकाशन पर अनुचित आक्षेप किया है। सद्भाग्य है कि 'उच्च प्रका.' ग्रन्थ की भूमिका में इनका प्रतिवाद किया गया है। हमने भी ‘उच्च प्रका.' ग्रन्थ का लेख प्रमाणिक एवं सोपपत्तिक देखकर सरल स्पष्ट भावानुवाद के लिए उसका सहारा लिया है। . (प्रथम संस्करण से उधृत)

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