Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 5
________________ अज्ञातकर्तृक है, किसी प्राचीन आचार्य भगवान से विरचित होने के कारण चिरंतनाचार्य रचित कहा जाता है। फिर भी महान शास्त्रसूत्रधार आचार्य पुरंदर श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज के द्वारा इस पर संक्षिप्त विवेचना लिखी गयी है, इससे सिद्ध होता है कि यह महाशास्त्र पूर्वकालीन आचार्य का है, यह प्राचीन काल बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' के अन्तर्गत 'पूर्व' नामक आगम का काल था, और इस शास्त्र की भाषा भी पूर्वधर की भाषा सी प्रतीत होती है। इसलिए यह एक पूर्वधर महर्षि की कृति रूप में श्रद्धेय है। प्रस्तुत महाशास्त्र के पांचों सूत्रों के विषय इस प्रकार हैं : (१) अनादिकाल से इस अपार संसार सागर में कर्म के संयोगवश चतुर्गति में भटकते हुए पामर संसारी जीव का तथाभव्यत्व अर्थात अपनी वैयक्तिक मोक्षयोग्यता जब पकती है तभी जीव मोक्ष को पा सकता है। इसे पकाने के क्या क्या प्राथमिक उपाय हैं और वे कैसे प्रयत्न गोचर बनाए जाएँ ? इसका प्रतिपादन प्रथमसूत्र में है। इस सूत्र का नाम है 'पापप्रतिघात - गुणबीजाधान' सूत्र। इसमें चतुःशरणगमन, दुष्कृतगर्हा एवं सुकृतानुमोदन ये तीन उपाय वर्णित हैं। (२) गुणबीजाधान सम्पन्न होने के बाद क्या करना ? यह द्वितीय सूत्र का प्रतिपाद्य है। इसमें स्थूल अहिंसादि पांच गुणों की महिमा और पालनविधि, कल्याण-अकल्याणमित्र, लोकविरुद्ध कार्य, जनकरुणापरता, उचित आचारअनुष्ठान, इनके पालन के समय में स्मरण में रखने योग्य बातें, धर्म जागरिका, कल्याणभावना इत्यादि का वर्णन है। दूसरे सूत्र का नाम है 'साधुधर्मपरिभावना । (३) ‘प्रव्रज्याग्रहणविधि' नामक तृतीय सूत्र में साधु धर्म की परिभावना से भावित होने के अनन्तर किसी को परिताप न पहुँचाते हुए की जानेवाली साधुधर्म-ग्रहणार्थविधि, माता-पिता को मुमुक्षु की समझौती, मोक्ष और संसार का अन्तर, अनन्य गत्या अटवीग्लानौषधार्थत्याग के दृष्टान्त से किया जाता माता-पिता का त्याग भी अत्याग, एवं लोकोत्तरधर्म-प्रवेश विधि का प्रतिपादन है। (४) ‘प्रव्रज्यापरिपालना' नामक चतुर्थ सूत्र में प्रव्रजित के कर्त्तव्य, समभाव, गुरुकुलवास, विधिपूर्वक सूत्राध्ययन, विधि अविधि से गृहीत मंत्र के दृष्टान्तानुसार आराधना - विराधना के फल, सूत्रोक्तपालन, अष्ट प्रवचनमाता, द्विविध परिज्ञा, आश्वास- प्रकाश दीप-द्वीप के दृष्टान्तं से उद्यम, महाव्याधिचिकित्सा के दृष्टान्तानुसार परीषह - उपसर्ग में अव्यथित होते हुए प्रमादत्याग, असारशुद्धभोजन, तत्त्वसंवेदन, कुशलाशयवृद्धि, चित्तप्रशमसुखवृद्धि, गुरुबहुमान, गुरुबहुमान से रहित की क्रिया कुलटा नारी के उपवासादि तुल्य, लोकसंज्ञा एवं

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