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गाथा-- ३६ में चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन में दस उपयोगों की पुष्टि की गई है। धवला में चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन के आलाप में आठ उपयोग स्वीकार किये गये हैं। (ध.२ / ७४० - ७४४) । आचार्य जिनचन्द्र तथा भाष्यकार ज्ञानभूषण महाराज दोनों ने ही चक्षुदर्शन में अचक्षुदर्शनोपयोग और अवधिदर्शनोपयोग तथा अचक्षुदर्शन में चक्षुदर्शनोपयोग और अवधिदर्शनोपयोग इन दो-दो उपयोगों को अधिकता से स्वीकार किया है।
गाथा ४२ में अनाहारक जीवों में उपयोगों का उल्लेख करते समय उपयोगों को माना है- चक्षुदर्शनोपयोग को स्वीकार नहीं किया है जबकि अन्य सिद्धांत ग्रंथ यथा धवला में अनाहारक जीवों में १० उपयोगों की स्वीकृति प्रस्तुत की है । (ध. २ / ८५१)
भाषा शैली की अपेक्षा भी कुछ नवीन विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं- गाथा १३ में पृथ्वीकायिक जीवों के लिए धरादि शब्द का उल्लेख, इसी प्रकार गाथा १७ में संयतासंयत के लिए "चरियाचरिए" शब्द का प्रयोग किया गया है । गाथा ३० में अतिमिस्साहार कम्मइया शब्द का प्रयोग कुछ नवीन विषयों का प्रस्तुतिकरण भी प्राप्त होता है। जैसे- चौदह जीव समासों में आस्रव, जीवसमासों में योग, उपयोग इत्यादि।
पाठक इस ग्रंथ के स्वाध्याय से अल्प गाथाओं में ही चौबीस ठाणा के सम्पूर्ण विषय के साथ-साथ अन्य विषयों की भी उपलब्धि कर सकता है। आकांक्षा है कि भगवान् महावीर के २५२४ वें निर्वाण महोत्सव की पावन बेला में इस ग्रन्थ का घर-घर में प्रचार होगा और जनमानस भगवान् महावीर के सिद्धांतों से सुपरिचित होंगे।
दीपमालिका, २०.१०.१६६८
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विनीत
विनोद जैन अनिल जैन
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