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सिद्धान्तसार
आचार्य जिनचन्द्र For Private & Personal use only w w w .jainelibrary.org
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सिद्धान्त - सार
आचार्य जिनचन्द्र ( संस्कृत टीका भ. ज्ञानभूषण)
अनुवादक / सम्पादक
ब्र. विनोद कुमार जैन श्री ऋषभ व्रती आश्रम पपौराजी जिला टीकमगढ़ मध्यप्रदेश
ब्र. अनिल कुमार जैन श्री वर्णी दिग. जैन गुरुकुल पिसनहारी, जबलपुर
प्रकाशक
श्री दिग. साहित्य प्रकाशन समिति बरेला, जबलपुर (म.प्र.)
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सिद्धान्त-सार आचार्य जिनचन्द्र
अनुवादक/सम्पादक ब्र. विनोद जैन ब्र. अनिल जैन
प्रथम संस्करण अक्टूबर 1998
अर्थ सहयोगश्री दिनेश कुमार जैन कुतुब सर्विस स्टेशन महरौली रोड नई दिल्ली - 17
मूल्य - 10/
प्राप्ति स्थानश्री दिग. साहित्य प्रकाशन समिति बरेला जैन स्टोर्स, जैन मन्दिर के सामने, बरेला जबलपुर (म.प्र.) फोन - 0761 - 89487,89483 ब्र. जिनेश जैन संचालक- श्री वर्णी दिग. जैन गुरुकुल पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर (म.प्र.) फोन - 422991
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दिगम्बर जैनाचार्य 108 श्री विद्यासागर जी महाराज
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पुरोवाक् श्री ब्रह्मचारी विनोद कुमार जी भिण्ड और ब्र. अनिल कुमार जी ने श्रीवर्णी दिगम्बर जैन गुरुकुल में अध्ययन कर, अपना उपयोग जिनागम के अनुवाद तथा सम्पादन की ओर अग्रसर किया हैफलस्वरूप सिद्धांतसार" का अनुवाद पाठकों के समक्ष है इसमें इन्होंने मूलानुगामी अनुवाद के साथ कुछ स्थलों पर समीक्षात्मक विचार प्रकट किये हैं- मेरा हृदय प्रसन्नता से भर जाता है जब गुरुकुल के स्नातक साहित्यिक एवं सामाजिक कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। गुरुकुल के ब्रह्मचारी अपने धार्मिक प्रवचनों के माध्यम से भारत के प्रायः सभी विशिष्ट स्थानों पर प्रवचन के लिए आमंत्रित होते हैं। ये हमेशा अपने कार्यों में अग्रसर होते रहें यह कामना
विनीत प. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य
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सम्पादकीय
माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थामाला से पूर्व में एक “सिद्धान्तसारादि संग्रह" नामक पच्चीस संस्कृत प्राकृत ग्रंथों का गुच्छक प्रकाशित हुआ था जिसके प्रारंभ में आचार्य जिनचन्द्र कृत सिद्धांतसार भाष्य भट्टारक ज्ञानभूषण कृत छपा हुआ है। अनायास ही गुच्छक के प्रथम ग्रंथ पर दृष्टि गई और यह अहसास किया कि यदि यह ग्रंथ अनुवाद सहित प्रकाशित हो तो जनसामान्य भी इस ग्रंथ में प्रतिपाद्य विषय से लाभान्वित हो सके। एतदर्थ यह प्रयास किया पूर्व में यह ग्रंथ अनुवाद सहित प्रकाशित नहीं हुआ है।
एक सिद्धांतसार संग्रह जिस ग्रन्थ के रचियता श्री नरेन्द्रचार्य हैं जीवादि सात तत्वों का प्ररूपक संस्कृत छंदबद्ध ग्रन्थ हिन्दी भाषानुवाद सहित, जीवराज जैन ग्रन्थमाला, सोलापुर से प्रकाशित हुआ है। दूसरे एक सिद्धांतसार का उल्लेख भावसेन त्रैविद्य कृत ६०० श्लोक प्रमाण तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा में भावसेन त्रैविद्य आचार्य के परिचय में मिलता है- यह ग्रंथ भी अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है। जिनरत्नकोष के वर्णनानुसार यह ग्रंथ मूड़विद्री के मठ में है। तीसरा एक सिद्धांतसार दीपक आर्यिका विशुद्धमति द्वारा भाषानुवाद सहित प्रकाशित है जिसमें प्रस्तुत किया विषय तीन लोकों का विशद वर्णन करता है।
ग्रन्थ में विषय और विशेषताएँ - इस सिद्धांतसार में आचार्य जिनचन्द्र से करणानुयोग का मुख्य विषय मार्गणाओं में जीवसमास, गुणस्थान, योग, आस्रव तथा जीव समास और गुणस्थानों में योग, उपयोग और आस्रव के प्रत्ययों का विषय समाविष्ट किया है। प्राकृत गाथाओं में गुथित यह ग्रंथ कुछ नवीन तथ्यों का भी उद्घाटन करता है । जैसेगाथा २६ में उद्धृत गाथा और भाष्य में, प्रतर समुद्धात अवस्था में कार्मण काययोग के साथ औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग को भी स्वीकृत किया गया है। यह विचारणीय विषय है।
गाथा ३६ में कार्मण काययोग एवं औदारिक मिश्र काययोग में चक्षुदर्शन की अस्वीकृति। जबकि धवला पुस्तक २ / ६५६ में औदारिक मिश्र काययोग में चक्षुदर्शन माना गया है तथा वहीं धवला पुस्तक २/६७० में कार्मण काययोग में चक्षुदर्शन माना गया है ।
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गाथा-- ३६ में चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन में दस उपयोगों की पुष्टि की गई है। धवला में चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन के आलाप में आठ उपयोग स्वीकार किये गये हैं। (ध.२ / ७४० - ७४४) । आचार्य जिनचन्द्र तथा भाष्यकार ज्ञानभूषण महाराज दोनों ने ही चक्षुदर्शन में अचक्षुदर्शनोपयोग और अवधिदर्शनोपयोग तथा अचक्षुदर्शन में चक्षुदर्शनोपयोग और अवधिदर्शनोपयोग इन दो-दो उपयोगों को अधिकता से स्वीकार किया है।
गाथा ४२ में अनाहारक जीवों में उपयोगों का उल्लेख करते समय उपयोगों को माना है- चक्षुदर्शनोपयोग को स्वीकार नहीं किया है जबकि अन्य सिद्धांत ग्रंथ यथा धवला में अनाहारक जीवों में १० उपयोगों की स्वीकृति प्रस्तुत की है । (ध. २ / ८५१)
भाषा शैली की अपेक्षा भी कुछ नवीन विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं- गाथा १३ में पृथ्वीकायिक जीवों के लिए धरादि शब्द का उल्लेख, इसी प्रकार गाथा १७ में संयतासंयत के लिए "चरियाचरिए" शब्द का प्रयोग किया गया है । गाथा ३० में अतिमिस्साहार कम्मइया शब्द का प्रयोग कुछ नवीन विषयों का प्रस्तुतिकरण भी प्राप्त होता है। जैसे- चौदह जीव समासों में आस्रव, जीवसमासों में योग, उपयोग इत्यादि।
पाठक इस ग्रंथ के स्वाध्याय से अल्प गाथाओं में ही चौबीस ठाणा के सम्पूर्ण विषय के साथ-साथ अन्य विषयों की भी उपलब्धि कर सकता है। आकांक्षा है कि भगवान् महावीर के २५२४ वें निर्वाण महोत्सव की पावन बेला में इस ग्रन्थ का घर-घर में प्रचार होगा और जनमानस भगवान् महावीर के सिद्धांतों से सुपरिचित होंगे।
दीपमालिका, २०.१०.१६६८
विनीत
विनोद जैन अनिल जैन
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ग्रन्थकर्ता का परिचय।
१- श्री जिनचन्द्राचार्य।
ग्रन्थ “सिद्धान्तसार'' के मूलक" जिनचन्द्र नाम के आचार्य हैं जैसा कि उक्त ग्रन्थ की ७८ वी गाथा से और उस की टीका से भी मालूम होता है।
इस नाम के कई आचार्य और भट्टारक हो गये हैं। परन्तु ग्रन्थ में प्रशस्ति आदि का अभाव होने के कारण निश्चयपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि इसके कर्ता कौन हैं और इसकी रचना किस समय में हुई है। आश्चर्य नहीं जो इसके कर्ता भास्करनन्दि के गुरू वे जिनचन्द्र हों जिनका कि उल्लेख श्रवण बेल्गुल के ५५ वें शिलालेख में किया गया है।
मद्रास की ओरियण्टल लायब्रेरी में तत्वार्थ की सुखबोधिका टीका (नं. ५१६५) की एक प्रति है, उसकी प्रशस्ति में लिखा है:
तस्यासीत्सुविशुद्धदृष्टिविभवः सिद्धान्तपारंगतः शिष्यः श्री जिनचन्द्र नामकलितश्चरित्रचूड़ामणि। शिष्यो भास्कर नन्दि नाम विबुधस्तस्याभवत् तेनाकारि सुखदिबोधविषया तत्वार्थवृत्तिः स्फुटम्।। अथ
श्रीमूलसंघेऽस्मिन्नन्दिसंघेऽनघेऽजनि। बलात्कारगणस्तत्र गच्छः सारस्वतस्त्वभूत्॥ ११॥
तत्राजनि प्रभाचन्द्रः सूरिचन्द्राजितांगजः।
इससे मालूम होता है कि यह टीका भास्करनन्दि की बनाई हुई है और उनके गुरू जिनचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रों के पारंगत थे।
___जिनचन्द्र नाम के एक और आचार्य हो गये हैं जो धर्म संग्रह श्रावकाचार के कर्ता पं. मेधावी के गुरू थे और शुभचन्द्राचार्य के शिष्य थे। ये शुभचन्द्राचार्य पद्यमनन्दि आचार्य के पट्टधर थे और पाण्डवपुराण आदि ग्रन्थों के कर्ता शुभचन्द्र से पहले हो गये हैं। पं. मेधावी ने त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति ग्रन्थ की दान प्रशस्ति में * उनका परिचय इस प्रकार दिया है:--
दर्शनज्ञानचारित्रतपोवीर्यसमन्वितः।। १२।।
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समा
श्रीमान्बभूव
मार्तण्डस्तत्पट्टोदयभूधरे। पद्यमनन्दी बुधानन्दी तमच्छेदी मुनिप्रभु।। १३॥ तत्पट्टाम्बुधिसञ्चन्द्रः शुभचन्द्रः सतां वरः। पंचाक्षवनदावाग्निः कषायक्ष्माधराशनिः।। १४॥ तदीयप्टाम्बरभानुमाली क्षमादिनानागुणरत्नशाली। भट्टारक री जिनचनद्र नामा सैद्धान्तिकानां भुवि योस्ति सीमा।।
१५॥ इससे मालूम होता है कि ये जिनचन्द्र भी सैद्धान्तिक विद्वान् थे और इस लिए उक्त सिद्धान्तसार का इनके द्वारा भी निर्मित होना सब प्रकार से संभव है।
इस सिद्धान्तसार की एक कनड़ी टीका भी है जो प्रभाचन्द्र की बनाई हुई है और आरा के सरस्वती भवन में मौजूद है। यह कबकी बनी हुई है, यह नहीं मालूम हो सका।
भट्टारक श्री ज्ञान भूषण जी का जीवन परिचय
भट्टारक श्री ज्ञानभूषण जी ने सिद्धान्तसार के भाष्य में यधपि अपना कोई स्पष्ट परिचय नहीं दिया है और न उसमें कोई प्रशस्ति ही है, परंतु मंगलाचरण के नीचे लिखे शोक से मालूम होता है कि वह भ. ज्ञानभूषण का ही बनाया हुआ है। ग्रंथ के आदि में मंगलाचरण निम्न प्रकार से प्रस्तुत है
श्री सर्वज्ञं प्रणम्यादौ लक्ष्मी वीरेन्दु सेवितम्। भाष्यं सिद्धान्तसारस्य वक्ष्ये ज्ञानसुभूषणम्।।
इस मंगलाचरण में सर्वज्ञको जो ज्ञान भूषण विशेषण दिया है, वह निश्चय ही भाष्यकर्ता का नाम है।
उक्त मंगलाचरण के लक्ष्मीचन्द्र वीरेन्दुसेवितम् पद से यह भी मालूम होता है कि लक्ष्मी चन्द्र और वीरेन्द्र नाम के उनके (ज्ञानभूषण के) कोई शिष्य या प्रशिष्यादि होंगे जिनके पढ़ने के लिए उक्त भाष्य बनाया गया होगा। ज्ञानभूषण के प्रशिष्य शुभचन्द्राचार्य की बनाई हुई स्वामिकीर्ति के यानु पेक्षा-टीका की प्रशस्ति के १०-११ वें थोक में इन लक्ष्मीचन्द्र वीरचन्द्र का उल्लेख है और उस उल्लेख से हम कह सकते हैं कि भाष्य के मंगलाचरण का ‘लक्ष्मीवीरेन्दुसेवितम' पद उन्हीं को लक्ष्य करके लिखा गया है।
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भटटारक श्री ज्ञानभूषण मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगण के आचार्य थे। उनकी गुरुपरम्परा का प्रारंभ भ. पद्मनन्दि से होता है । पद्मनन्दि से पहले की परंपरा का अभी तक ठीक-ठीक पता नहीं लगा है। १. पद्मनन्दि २. सकलकीर्ति ३. भुवनकीर्ति और ४. ज्ञान भूषण । यह ज्ञानभूषण की गुरुपरंपरा का क्रम है। ज्ञानभूषण के बाद ५. विजयकीर्ति और फिर उनके शिष्य ६. शुभचन्द्र हुए हैं और इस तरह शुभचन्द्र ज्ञानभूषण के प्रशिष्य हैं।
समय प्रशस्तियों का अवलोकन करने से इनका समय विक्रम संवत् १५३४-३५ और १५३६ ज्ञात होता है ।
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२.
३.
४.
विषय अनुक्रमणिका
मंगलाचारण
मुक्त और संसारी जीवों में मार्गणायें
ग्रन्थ में प्रतिपाद्य विषय
चौदह मार्गणाओं में चौदह जीव समास गति, इन्द्रिय, काय मार्गणा में जीव समास योग मार्गणा में जीव समास
वेद, कषाय, ज्ञान मार्गणा में जीवसमास संयम, दर्शन, लेश्या मार्गणा में जीव समास भव्य सम्यक्त्व, संज्ञी मार्गणा में जीव समास आहार मार्गणा में जीवसमास
चौदह मार्गणाओं में चौदह गुणस्थान गति, इन्द्रिय मार्गणा में गुणस्थान काय, योग मार्गणा में गुण स्थान
वेद, कषाय और ज्ञानमार्गणा में गुणस्थान संयम, दर्शन और लेश्या मार्गणा में गुणस्थान भव्य, सम्यक्त्व मार्गणा में गुणस्थान संज्ञी, आहारक मार्गणा में गुणस्थान चौदह मार्गणाओं में पन्द्रह योग गति मार्गणा में योग
इन्द्रिय, काय और योग मार्गणा में योग
वेद, कषाय मार्गणा में योग
ज्ञान मार्गणा में योग
संयम मार्गणा में योग
दर्शन लेश्या मार्गणा में योग भव्य, सम्यक्त्व मार्गणा में योग संज्ञी आहारक मार्गणा में योग
चौदह मार्गणाओं में बारह उपयोग गति, इन्द्रिय मार्गणा में उपयोग
गाथा क्रमांक
१
४-११
४-५
५-६
६-८
८-९
१०-११
११
११-२०
१२-१३
१३ १४
१५ १६
१६-१९
१९
२०
२१-३१
२१-२२
२२-२३
२४
२४-२६
२७-२८
२९
३०-३१
३१
३२-४२
३२
पृष्ठ क्र.
१-२
२
२-३
३-११
३-५
४-६
६-८
७-९
९-१०
१०-११
११-१९
११-१२
१२-१४
१४-१५
१५-१८
१७-१८
१८-१९
१९-२८
१९-२०
२०-२१
२१-२२
२१-२४
२४-२५
२६
२६-२८
२७-२८
२८-३६
२८ २९
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३३-३६
३६
२९-३१
३१
३२ ३२-३४
३८-३९
३३-३४
४०-४१
३४-३५
४२
४८-६८
४८
काय , योग मार्गणा में उपयोग वेद , कषाय मार्गणा में उपयोग ज्ञान मार्गणा में उपयोग संयम मार्गणा उपयोग दर्शन मार्गणा उपयोग लेश्या , भव्य मार्गणा में उपयोग सम्यक्त्व मार्गणा में उपयोग संज्ञी आहार मार्गणा में उपयोग चौदह जीवसमासों में पन्द्रह योग
चौदह जीवसमासों में उपयोग ७. चौदह गुणस्थानों में योग
चौदह गुणस्थानों में उपयोग चौदह मार्गणाओं में आश्रव सत्तावन आस्रव के नाम गति मार्गणा में आस्त्रव इन्द्रिय मार्गणा में आस्रव काय मार्गणा में आस्रव योग मार्गणा में आस्रव वेद और कषाय मार्गणा में आस्रव ज्ञान मार्गणा में आस्रव संयम मार्गणा में आस्रव दर्शन, लेश्या मार्गणा में आस्रव भव्य, सम्यक्त्व मार्गणा में आस्रव
संज्ञी, आहारक मार्गणा में आस्रव १०. चौदह जीवसमासों में आस्त्रव ११. चौदह गुणस्थानों में आस्त्रव
प्रथम से पंचम गुणस्थान तक आस्रव षष्टम् गुणस्थान में आस्रव सप्तम, अष्टम, नवम और दशम गुणस्थानों में आस्रव ग्यारहवें से अयोग केवली तक आस्रव ग्रन्थकर्ता का नाम और अपनी लघुता का प्रदर्शन
४९-५० ५१-५३
३६ ३६-३९ ३९-४० ४०-४१ ४१-४२ ४३-५८ ४३-४४ ४४-४५ ४५-४८ ४६-४८ ४८-४९ ४९-५० ५०-५२ ५२-५५ ५५-५७ ५७-५८ ५८-५९ ६०-६३
५४-५५
५६ ५७-५८ ५९-६२ ६२-६४ ६४-६६ ६६-६८ ६९-७० ७१-७७ ७१-७४
६३-६६ ६६-६७ ६७-६८ ६८-६९ ६९-७० :
७८७९
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आर्यिका दृढ़मती जी
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श्रीसर्वज्ञ
श्री पंचगुरुभ्यो नमो नमः। सिद्धान्तसार
श्रीजिनचन्द्राचार्य-प्रणीतः सिद्धान्तसारः।
(भाष्योपेतः।)
प्रणम्यादौ लक्ष्मीवीरेन्दुसेवितम्। भाष्यं सिद्धान्तसारस्य वक्ष्ये ज्ञानसुभूषणम्॥ १॥ जीवगुणठाणसण्णापज्जत्तीपाणमग्गणणवूणे।। सिद्धंतसारमिणमो भणामि सिद्धे णमंसित्ता॥ १॥ जीवगुणस्थानसंज्ञापर्याप्तिप्राणमार्गणानवोनान्।
सिद्धान्तसारमिदानीं भणामि सिद्धान् नमस्कृत्य।। • एतद्गाथार्थः- इणमो- इदानीं। सिद्धन्तसारं-इति, सिद्धान्तसार-नामग्रथं। भणामीति-भणिष्यामि कथयिष्यामि। यावत् किं कृत्वा ? पूर्वं सिद्धे णमंसित्ता- सिद्धान् नमस्कृत्य। कथंभूतान् सिद्धान् ? जीवगुणठाणसण्णापज्जत्तीपाणमग्गणणवूणे .. जीवगुणस्थानसंज्ञापर्याप्तिप्राणमार्गणानवकोनान्। जीव इति चतुर्दशजीवसमासाः। गुणठाण चतुर्दशगुणस्थानानि। सण्णा चतस्त्रः संज्ञाः। पज्जत्ती षट्पर्याप्तयः। पाण दशद्रव्यप्राणाः। मग्गणणव इति--नवसंख्योपेता मार्गणाः। एतैः ऊणे ऊनान् रहितानित्यर्थः।। १।।
अन्वयार्थ- (जीवगुणठाण सण्णा पज्जतीपाण मग्गण णव ऊणे) जीव समास, गुणस्थान, संज्ञा, पर्याप्ति, प्राण और नौ मार्गणाओं से रहित (सिद्धे) सिद्धों को (णमंसित्ता) नमस्कार कर (इणमो) अब (सिद्धंतसार) सिद्धांतसार नामक ग्रन्थ (भणामि) कहूँगा।
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भावार्थ- आचार्य श्री जिनचन्द्र ने इस गाथा के मंगलाचरण में जीवसमास, गुणस्थान, संज्ञा, पर्याप्ति, प्राण और नौ मार्गणाओं से रहित सिद्धों को नमस्कार कर सिद्धांतसार नामक ग्रन्थ कहने की प्रतिज्ञा की है।
सिद्धों और संसारी जीवों में मार्गणायें
सिद्धाणं सिद्धगई दंसण णाणं च केवलं खइयं। सम्मत्तमणाहारे सेसा संसारिए जीवे।। २॥ सिद्धानां सिद्धगतिः दर्शनं ज्ञानं केवलं क्षायिक।
सम्यक्त्वमनाहारकं शेषाः संसारिणि जीवे।। नमस्कारगाथायां प्रोक्तं मार्गणानवरहितान् सिद्धान् नत्वा, तर्हि सिद्धेषु पंच काः सन्तीत्याशंकायामाह- सिद्धाणं सिद्धगई इत्यादि। सिद्धानां सिद्धगतिः स्यात्। सिद्धगतिरिति कोऽर्थः ? सिद्धपर्यायप्राप्तिरित्यर्थः। इत्येका मार्गणा सिद्धेषु वर्तते। तथा, दसण णाणं च केवलं खइयं- केवलशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, सिद्धानां केवलदर्शनमिति सिद्धेषु द्वितीया मार्गणा वर्तते। केवलज्ञानमिति तृतीया मार्गणा सिद्धेषु स्यात्। सम्मत्तमणाहारे- सिद्धानां क्षायिकं सम्यक्त्वं चतुर्थी मार्गणा सिद्धेषु विद्यते। सिद्धानामनाहरकत्वं पंचमी मार्गणा सिद्धेषु भवति। तात्पर्यमाहइत्युक्तपंचमार्गणासहितान् नवमार्गणारहितान् सिद्धान् नत्वेत्यर्थः। सेसा संसारिए जीवे- शेषा उद्धरिता मार्गणाः संसारिषु वर्तन्ते। अथवा असेसा संसारिए जीवे ये के संसारिणो जीवा वर्तन्ते तेषु अशेषाश्चतुर्दशमार्गणा स्युरित्यर्थः।।२।।
अन्वयार्थ- (सिद्धाणं) सिद्धों के (सिद्धगई) सिद्धगति (दंसण णाणं च केवलं) केवल दर्शन, केवलज्ञान, (खइयं सम्मत्तं) क्षायिक सम्यकत्व, (अणाहारे) अनाहारक ये पाँच मार्गणायें होती हैं और (संसारिए जीवे) संसारी जीवों में (असेसा) सभी मार्गणायें पाई जाती हैं।
भावार्थ- जीव दो प्रकार के होते हैं- संसारी जीव और मुक्त जीव। सिद्ध जीवों के सिद्धगति, केवलदर्शन, केवलज्ञान, क्षायिक सम्यक्त्व, अनाहारक ये पाँच मार्गणायें पाई जाती हैं और संसारी जीवों के सभी चौदह मार्गणायें पाई जाती हैं।
अथ प्रथमसूत्रपातनिकामाहः--
जीवगुणे तह जोए सपच्चए मग्गणासु उवओगे।
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(३) जीवगुणेसु वि जोगे उवओगे पच्चए वुच्छं।। ३।।
जीवगुणान् तथा योगान् सप्रत्ययान् मार्गणासु उपयोगान्।
जीवगुणेष्वपि योगान् उपयोगान् प्रत्ययान् वक्ष्ये। सकलग्रन्थार्थसूचनद्वाररूपेयं गाथा। वुच्छं इति वक्ष्ये, कान् ? मग्गणासुचतुर्दशमार्गणासु जीवगुणान्, जीवाश्चतुर्दशभेदा गुणाश्चतुर्दशगुणस्थानानि। जीवाश्च गुणाश्च जीवगुणास्तान् जीवगुणान् चतुर्दशमार्गणासु वक्ष्ये। मार्गणा काश्चेत् ? तदाहगइ, इत्यादि गाथोक्ताश्चतुर्दशमार्गणाः। तह जोए-- तथा तेनैव प्रकारेण चतुर्दशमार्गणासु पंचचदशयोगान् वक्ष्ये। सपच्चए- मार्गणासु सप्तपंचाशत्प्रत्ययान् आस्रवान् वक्ष्ये। तथा मार्गणासु द्वादशोपयोगान् वक्ष्ये। तथा जीवगुणेसु विजीवगुणेष्वपि वक्ष्ये। कान् ? जोगे -योगान्, चतुर्दशजीवसमासेषु योगान् पंचदश वक्ष्ये। चतुर्दशगुणस्थानेष्वपि पंचदश योगान् वक्ष्ये। उवओगे पच्चए वुच्छं- पुनः जीवसमासेषु गुणस्थानेषु च द्वादशोपयोगान् सप्तपंचाशत्प्रत्यायांश्च वक्ष्ये। मार्गणासु जीवान् गुणान् तथा योगान् सप्रत्ययान् उपयोगान् वक्ष्ये। अनु च जीवेषु गुणेसु च योगान् उपयोगान् प्रत्ययान् वक्ष्ये इति स्पष्टार्थः।। ३।।
अन्वयार्थ- (मग्गणासु जीवगुणे) मार्गणाओं में जीव समास और गुणस्थान (तह जोए) तथा योगों को, (सपच्चए) आस्रव के कारणों (उवओगे) उपयोगों तथा (जीवगुणेसु वि) जीवसमास और गुणस्थानों में भी (जोगे) योग (उवओगे) उपयोग (पच्चए) आस्रव के कारण (वुच्छं) कहूँगा।
भावार्थ- गति आदि चौदह मार्गणाओं में चौदह जीव समास, चौदह गुणस्थान, पन्द्रह योग, सत्तावन आस्रव और बारह उपयोग तथा चौदह जीवसमासों
और चौदह गुणस्थानों में पन्द्रह योग, बारह उपयोग और सत्तावन आस्रवों का निरूपण करूँगा।
अथ चतुर्दशमार्गणासु चतुर्दशजीवसमासान् कथयन्नाहःतिगईसु सण्णिजुयलं चउदस तिरिएसु दोणि वियलेसु। एयपणक्खे वि य चदु पुढवीपणए य चत्तारि।। ४॥
त्रिगतिषु सज्ञियुगलं चतुर्दश तिर्यक्षु द्वौ विकलेषु।
एकपंचाक्षेऽपि च चत्वारः पृथिवीपंचके च चत्वारः।। “तिग'' इत्यादि। तिसृषु गतिषु नरकमनुष्यदेवगतिषु जीवसमासद्वयं भवति। तत् किं ? सण्णिजुयलं पंचेन्द्रियसंज्ञिनो युग्ममिति। कोऽर्थः ? नरकगत्यां
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(४) पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ जीवसमासौ भवतः। तथा मनुष्यगत्यां देवगत्यां च संज्ञिपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासद्वयं भवति। चउदस तिरिएसु---तिर्यग्गतौ चतुर्दशजीवसमासा भवन्ति। ते के ?बादरसुहमेगिंदियवितिचउरिदियअसण्णिसण्णी
य। पज्जत्तापज्जत्ता एवं ते चोद्दसा जीवा॥ १॥
एवं गाथोक्तचतुर्दशजीवसमासा भवन्ति। दोण्णि वियलेसु-द्वि त्रिचतुरिन्द्रियेषु, दोण्णि-द्वौ पर्याप्तापर्याप्तौ जीवसमासौ भवतः। एयपणक्खे वि य चदु- एकेन्द्रियेषु पंचेन्द्रियेषु च चत्वारो जीवसमासाः। तत्रैकेन्द्रियेषु एकेन्द्रियसूक्ष्मबादरपर्याप्तापर्याप्ता इति चत्वारो जीवसमासाः सन्ति। पंचेन्द्रियेषु पंचेन्द्रियसंझ्यसंज्ञिनः पर्याप्तापर्याप्ता इति चत्वारो जीवसमासा भवन्ति। पढवीपणए य चत्तारि- पृथ्वीपंचके च चत्वारः पृथ्व्यप्तेजोवायुवनस्पतिषु चत्वारो जीवसमासा भवन्ति। ते के ? सूक्ष्मबादरपर्याप्तापर्याप्ता इति चत्वारः। पृथ्वी सूक्ष्मा बादरा पर्याप्ता अपर्याप्ता च। एवमादिषु योज्यम् ।। ४ ।।
अन्वयार्थ- (तिगईसु) तीन गतियों में अर्थात् नरक, मनुष्य देवगति में (सण्णिजुयलं) पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक (तिरिएसु चउदस) तिर्यंचगति में चौदह जीवसमास और (दोण्णि वियलेसु) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय में (दोण्णि) पर्याप्तक और अपर्याप्तक दो-दो जीव समास होते हैं। (एयपणक्खे वि य चदु) एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रियों में चार जीव समास होते हैं। (पुढवीपणए च चत्तारि) -- पृथ्वीकायिक आदि पाँच स्थावरों में चार जीवसमास होते हैं।
भावार्थ- नरक गति, मनुष्य गति और देवगति इन तीन गतियों में संज्ञी पंचेन्द्रिय में पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो-दो जीव समास होते हैं। तिर्यंच गति में चौदह जीवसमास होते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय इन जीवों में पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो दो जीव समास जानना चाहिए। एकेन्द्रियों में सूक्ष्म, वादर, पर्याप्तक और अपर्याप्तक इस प्रकार चार जीव समास। पंचेन्द्रिय जीवों में पंचेन्द्रिय, संज्ञी, असंज्ञी, पर्याप्तक और अपर्याप्तक इस प्रकार चार जीव समास। पृथ्वी कायिक को आदि लेकर पांच स्थावरों में सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्तक इस प्रकार चारचार जीव समास जानना चाहिए।
दस तसकाए सण्णी सच्चमणाईसु सत्तजोगेसु। वेइंदियादिपुण्णा पणमढे सत्त ओराले॥ ५॥
दश त्रसकाये संज्ञी सत्यमनआदिषु सप्तयोगेषु।
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(५)
पंचाट
द्वीन्द्रियादिपूर्णाः
ओराले ।। दस तसकाए - सकायेषु द्वित्रिचतुरिन्द्रियपंचेन्द्रियेषु दश जीव समासा भवन्ति । ते के? द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः पर्याप्तापर्याप्ता इति षट् । पंचेन्द्रियसंज्ञ्यसंज्ञिनः पर्याप्तापर्याप्ता इति चत्वार एवं दश । सण्णी सच्चमणाईसु सत्तजोगेसु-सत्यमनः प्रभृतिषु सत्यासत्योभयानुभयमनोयोगेषु सत्यासत्योभयवचनयोगेषु सप्तसु योगेषु प्रत्येकं एकः संज्ञिपर्याप्तको जीवसमासो भवति । वेइंदियादिपुण्णा पण मट्ठे अष्टमेऽनुभयवचनयोगे द्वीन्द्रियादयः पर्याप्ताः पंच जीवसमासा भवन्ति । तानाह द्वित्रिचतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रियसंज्ञ्यसंज्ञिनः पर्याप्ता इति पंच । सत्त ओराले -- औदारिकशरीरे सप्तजीवसमासा भवति । एकेन्द्रियसूक्ष्मबादरपर्याप्ता इति द्वयं द्वित्रिचतुरिन्द्रियपंचेन्द्रियसंज्ञ्यसंज्ञिनः पर्याप्ता इति पंच, एवं सप्तजीवसमासा औदारिककाययोगे भवन्तीत्यर्थः ॥ ५ ॥
सप्त
अन्वयार्थ - (तसकाए दस ) सकायिकों में दश ( सच्च मणाईसु सत्त जोगेसु) सत्य मनोयोग को आदि लेकर सात योगों में ( सण्णी) एक संज्ञी पर्याप्तक जीव समास होता है। (अट्ठे) आठवें अनुभय वचनयोग में ( वेइंदियादिपुण्णा) द्वीन्द्रियादि पर्याप्तक (पण) पंच जीव समास होते हैं । ( ओराले सत्त) औदारिक काययोग में सात जीव समास होते हैं।
भावार्थ- सकायिक जीवों में दश जीव समास होते हैं द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियजीवों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक इस प्रकार छह । पंचेन्द्रियों में संज्ञी, असंज्ञी के पर्याप्तक और अपर्याप्तक इस प्रकार चार । इस प्रकार समस्त सकायिक जीवों में दस जीव समास पाये जाते हैं । सत्य, असत्य, उभय और अनुभय मनोयोगों में तथा सत्य, असत्य, उभय वचनयोग इन सात योगों में एक संज्ञी पर्याप्तक जीव समास होता है। अनुभय वचन योग में द्वीन्द्रिय पर्याप्तक, त्रीन्द्रिय पर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक और असंज्ञी पर्याप्तक इस प्रकार पाँच जीव समास होते हैं । औदारिक काय योग में सात जीव समास- एकेन्द्रिय सूक्ष्म पर्याप्तक बादर पर्याप्त द्वीन्द्रिय पर्याप्तक, त्रीन्द्रिय पर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय असंज्ञी पर्याप्तक और पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक इस प्रकार सात जीव समास औदारिक काययोग में पाये जाते हैं ।
मिस्से अपुण्णसग इगिसण्णी वेउब्वियादिचउसु च । कम्मइए अट्ठ-त्थी-पुंसे पंचक्खगयचउरो ।। ६॥ मिश्र अपूर्णसप्त एकसंज्ञी विगूर्विकादिचतुर्षु च ।
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(६)
कार्मणे अष्टौ स्त्रीपुंसोः
पंचाक्षगतचत्वारः॥
मिस्से अपुण्णसग इगिसण्णी - औदारिकमिश्र काययोगे अपर्याप्ताः सप्त, इगिसण्णी - एकः संज्ञिपर्याप्तक एवमष्टौ जीवसमासाः । ते के? एकेन्द्रियसूक्ष्मबादरद्वित्रिचतुरिन्द्रियपंचेन्द्रियसंज्ञ्यसज्ञिनोऽपर्याप्ताः सप्त, एकः पर्याप्तः संज्ञी स च केवलिसमुद्धातापेक्षया ग्राह्यः, एवमष्टौ जीवसमासा औदारिकमिश्रकाययोगे भवन्तीति विज्ञेयं। वेउव्वियादिचउसु च - वैक्रियिकादिचतुर्षु काययोगेषु चकारादेकः संज्ञी । अत्र भेदः- वैक्रियिककाययोगे पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्त इत्येको भवति । वैक्रियिकमिश्रकाययोगे पंचेन्द्रियसंज्ञ्यपर्याप्तको भवति । आहारककाययोगे पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तको भवति । आहारकमिश्रकाययोगे पंचेन्द्रियसंज्ञ्यपर्याप्तको भवति । कम्मइए अट्ठ - कार्मणकायोगे औदारिकमिश्रकायोक्ता अष्ट जीवसमासा भवन्ति । त्थीपुंसे पंचक्खगयचउरो - स्त्रीवेदे पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तपंचेन्द्रियासज्ञिपर्याप्तापर्याप्ता चत्वारः । पुंवेदे
एते
स्त्रीवेदोक्ताश्चत्वारो जीवसमासा भवन्ति ॥ ६ ॥
अन्वयार्थ - (मिस्से) औदारिक मिश्र काययोग में ( अपुण्णसग) अपर्याप्तक सात (इगिसण्णी) एक संज्ञी पर्याप्तक इस प्रकार आठ जीव समास होते हैं । (वेउव्वियादिचउसु सकायिक) वैक्रियिकादि चार काययोग में एक संज्ञी पर्याप्तक जीव समास होता है । (कम्मइए) कार्मणकाययोग में (अट्ठ) आठ (च) और (त्थीपुंसे) स्त्रीवेद और पुंवेद में (पंचक्खगय चउरो) पंचेन्द्रियगत चार-चार जीव समास होते हैं। भावार्थ - एकेन्द्रियों के सूक्ष्म अपर्याप्तक, बादर अपर्याप्तक दो जीवसमास । द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक, त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय के संज्ञी और असंज्ञी अपर्याप्तक, इस प्रकार सात जीव समास और एक संज्ञी पर्याप्तक केवली समुद्धात की अपेक्षा, इस प्रकार आठ जीव समास औदारिक मिश्रकाययोग में होते हैं इस प्रकार जानना चाहिए। वैक्रियिक काययोग में पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक एक जीवसमास होता है। वैक्रियिक मिश्र काययोग में संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक एक जीव समास होता है । आहारक काययोग में पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक और आहारक मिश्रकाययोग में पंचेन्द्रिय संज्ञी अपर्याप्तक एक जीव समास होता है। कार्मणकाय योग में औदारिक मिश्रकाययोग के समान आठ जीवसमास होते हैं । स्त्रीवेद में पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक और अपर्याप्तक तथा पंचेन्द्रिय असंज्ञी पर्याप्तक और अपर्याप्तक, इस प्रकार चार जीव समास जानना चाहिए। पुंवेद में स्त्रीवेद के समान चार जीव समास जानना चाहिए।
संढे कोहे माणे मायालोहे य कुमइकुसुईये य ।
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(७)
चोद्दस इगि वेभंगे मइसुइअवहीसु सणिदुगं ।। ७ ।।
षंढे क्रोधे माने मायालोभयोः च कुमतिकुश्रुतयोः च । चतुर्दश एको विभंगे मतिश्रुतावधिषु संज्ञिद्विकं ।।
संढे - नपुंसकवेदे चतुर्दश जीवसमासा भवन्ति । तथा, कोहे माणे मायालोहे य- क्रोधे माने मायायां लोभे च चतुर्दश जीवसमासा भवन्ति । तथा, कुमइकुसुईकुमतौ कुश्रुतौ च चतुर्दश जीवसमासा भवन्ति । इगि वेभंगे - विभंगे क्कवधिज्ञाने एकः पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तक एव। मइसुइअवहीसु सण्णिदुगं - मतिश्रुत्यवधिज्ञानेषु त्रिषु प्रत्येकं सण्णिदुगं- पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ जीवसमासौ स्त इत्यर्थः ।। ७ ।।
अन्वयार्थ - (संढे ) - नपुंसक वेद में (चोइस) चौदह जीव समास और (कोहे माणे माया लोहे य) क्रोध, मान, माया और लोभ में (चोइस) चौदह जीव समास होते हैं। (कुमइ कुसुईये य) कुमति और कुश्रुत में (चोद्दस ) चौदह जीव समास होते हैं। (इगि वेभंगे) विभंगावधि ज्ञान में एक जीव समास (मइसुइअवहीसु) मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान इन तीनों में (सण्णिदुगं) संज्ञी दो जीव समास होते हैं ।
भावार्थ- नपुंसक वेद में चौदह जीव समास और क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों में चौदह जीव समास होते हैं। तथा कुमति और कुश्रुत ज्ञान में चौदह जीव समास होते हैं । विभंगावधिज्ञान में एक पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक ही जीव समास होता है । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान इन तीनों ज्ञानों में प्रत्येक में पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक और अपर्याप्तक इस प्रकार दो-दो जीवसमास जानना चाहिए । मणकेवलेसु सण्णी पुण्णो सामाइयादिछसु तह य । चउदस असंजमे पुण लोयणअवलोयणे छकं ॥ ८ ॥
मनः केवलयोः संज्ञी पूर्णः सामायिकादिषट्सु तथा च । चतुर्दश असंयमे पुनः लोचनावलोकने षट्कं ॥ मणकेवलेसु सण्णी पुणो मनःपर्ययकेवलज्ञानयोः द्वयोः पंचेन्द्रिय
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संज्ञिपर्याप्त एव एकजीवसमासो भवति । सामाइयादिछसु तह य- तथा तेनैव प्रकारेण च देशसंयम सामायिक - च्छेदोपस्थापना - परिहारविशुद्धि सूक्ष्मसाम्यराययथाख्यातसंयतेषु षट्सु संयमेषु प्रत्येकं संज्ञिपर्याप्त एक एव स्यात् । चउदस असंजमेअसंयमनाम्नि सप्तमे संयमे चतुर्दशजीव समासा भवन्ति । पुण लोयणअवलोयणे छक्कंपुनः लोचनावलोकने चक्षुर्दर्शने जीवसमासषट्कं भवति । चतुरेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ, पंचेन्द्रियासंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ, पंचेन्द्रियसज्ञिपर्यापप्तापयाप्तौ उभौ इति षट्जीव
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(८) समासाश्चक्षुर्दर्शने भवन्तीत्यर्थः।।८।।
(८) अन्वयार्थ- (मणकेवलेसु) मनःपर्यय और केवलज्ञान इन दोनों ज्ञानों में पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक एक ही जीवसमास होता है। (सामाइयादिछसु तह य) सामायिकादि छह संयममार्गणा में एक पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक जीव समास पाया जाता है। (चउदस असंजमे) असंयम में चौदह जीव समास होते हैं (पुण लोयणअवलोपणे छक्कं) पुनः चक्षुदर्शन में छह जीव समास होते हैं।
भावार्थ- मनःपर्यय ज्ञान और केवलज्ञान इन दोनों ज्ञानों में पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक एक ही जीव समास होता है। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म-साम्पराय, यथाख्यात इन पांच संयम और देश संयम में इन सभी में संज्ञी पर्याप्तक एक ही जीव समास होता है और संयम मार्गणा के अन्तर्गत असंयम में चौदह जीव समास पाये जाते हैं। पुनः चक्षुदर्शन में छह जीव समास इस प्रकार होते हैंचतुरिन्द्रिय में पर्याप्तक अपर्याप्तक दो, पंचेन्द्रिय असंज्ञी में पर्याप्तक अपर्याप्तक दो, पंचेन्द्रिय संज्ञी में अपर्याप्तक और पर्याप्तक इस प्रकार दो। इस प्रकार चक्षु दर्शन में छह जीव समास जानना चाहिए।
चउदस अचक्खुलोए दो एकं अवहिकेवलालोए। किण्हादितिए चउदस तेजाइसु सण्णियदुगं च।। ६॥
चतुर्दश अचक्षुरालोके द्वौ एकोऽवधिकेवलालोके।
कृष्णादित्रिके चतुर्दश तेजआदिषु संज्ञिद्विकं च। चउदस अचक्खुलोए- अचक्षुर्दर्शने चतुर्दशजीवसमासा भवन्ति। दो एक्कं अवहिकेवलालोए- अत्र यथासंख्येन व्याख्या, अवधिज्ञाने पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ जीवसमासौ भवतः, केवलदर्शने पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तक एक एव जीवसमार: स्यात्। किण्हादितिए चउदस-कृष्णादित्रिके कृष्णनीलकापोतासु लेश्यासु तिसृषु चतुर्दश-जीवसमासा ज्ञेयाः। तेजाइसु सण्णियदुगं च- तेजआदिषु पीतपद्मशुक्ललेश्यात्रिके पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासद्विकं भवति॥६॥
(E) अन्वयार्थ- (अचक्खुलोए) अचक्षु दर्शन में (चउदस) चौदह जीव समास होते हैं। (अवहिकेवलालोए दो एकं) अवधिदर्शन में दो केवल दर्शन में एक (किण्हादितिए) कृष्णनीलादि तीन लेश्याओं में (चउदस) चौदह जीव समास (तेजाइसु) पीतादि तीन लेश्याओं में (सण्णिदुर्ग) संज्ञी द्विक अर्थात् संज्ञी पर्याप्तक और संज्ञी अपर्याप्तक इस प्रकार दो जीव समास जानना चाहिए।
भावार्थ- अचक्षुदर्शन में चौदह जीव समास होते हैं। अवधिदर्शन में पंचेन्द्रिय
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संज्ञी पर्याप्तक और अपर्याप्तक दो जीव समास होते हैं। केवलदर्शन में एक पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक एक ही जीव समास होता है। कृष्ण, नील और कापोत इन तीन लेश्याओं में सभी चौदह जीव समास जानना चाहिए। पीत, पद्म और शुक्ल इन तीन शुभ लेश्याओं में पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो जीव समास होते हैं।
चउदस भव्वाभवे दुण्णेगं खाइयादितिसु मिस्से। अपुण्णा सग पुण्णा सण्णी इगि चउदस य दोसुकमे॥१०॥
चतुर्दश भव्याभव्ययोः द्वौ एकः क्षायिकादित्रिषु मिश्रे।
अपूर्णाः सप्त पूर्णः संज्ञी एकः चतुर्दश च द्वयोः क्रमेण॥ भव्यजीवे अभव्यजीवे च चतुर्दश जीवसमासा भवन्ति। दुण्णेगं खाइयादितिसु मिस्से अत्र यथासंख्यं व्याख्येयं, क्षायिकादित्रिषु क्षायिकोपशमवेदकसम्यक्त्वेषु पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्ता-पर्याप्तजीवसमासौ द्वौ भवतः, मिश्रे सम्यक्त्वे पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तक एक एव जीवसमासो भवति। मिश्रे मरणासंभवादपर्याप्तत्वं तु न संभवति। अपुण्णा सग पुण्णा सण्णी इति चउदस य दोसु कमे- कमे इति क्रमेण, दोसु-द्वयोः सासादनमिथ्यात्वसम्यक्त्वयोः, अपुण्णा सग-अपर्याप्ताः सप्त, सण्णी इगिपर्याप्तसंज्ञी एकः, चतुर्दश च,। अथ व्यक्तिः सासादनसम्यक्त्वे सम्यक्त्व एकेन्द्रियसक्ष्मबादरद्वित्रिचतुरेन्द्रियपंचेन्द्रियसंइयसंज्ञिन एते सप्त अपर्याप्ताः पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्त एक एव एवं अष्यै जीवसमासाः (सासादनसम्यकत्वे) भवन्तीति भावः। मिथ्यात्वसम्यक्वे एकेन्द्रियादयश्चतुर्दश जीवसमासा भवन्तीति सूत्रार्थः।।१०।।
अन्वयार्थ- (भव्वाभब्वे) भव्य और अभव्य जीवों में (चउदस) चौदह जीव समास (खाइयातिसु) क्षायिकादि तीन सम्यक्त्वों में (दुण्ण) दो (मिस्से) मिश्र सम्यक्त्व (एग) एक (दोसु) दो अर्थात् सासादन सम्यक्त्व और मिथ्यात्व सम्यक्त्व इनमें (अपुण्णा सग) अपर्याप्तक सात (सण्णी इगि)- संज्ञी एक (य) और (चउदस) चौदह जीव समास जानना चाहिए।
भावार्थ- भव्य और अभव्य जीवों में चौदह जीव समास होते हैं। क्षायिक, उपशम और वेदक सम्यक्त्वों में पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक और अपर्याप्तक इस प्रकार दो जीव समास होते हैं। मिश्र सम्यक्त्व (तृतीय गुणस्थान) में पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक एक ही जीव समास होता है। मिश्र सम्यक्त्व में मरण नहीं होने से अपर्याप्तक भी संभव नहीं है। सासादन सम्यकत्व में एकेन्द्रिय सूक्ष्म, बादर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय संज्ञी और असंज्ञी अपर्याप्तक इस प्रकार सात अपर्याप्तक और एक पंचेन्द्रिय
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(१०) संज्ञी पर्याप्तक सभी सम्मिलित आठ जीव समास होते हैं। मिथ्यात्व में एकेन्द्रियादिक चौदह जीव समास होते हैं।
सण्णिअसण्णिसु दोण्णि य आहारअणाहारएसु विण्णेया। जीवसमासा चउदस अटेव जिणेहिं णिद्दिवा।। ११॥
संझ्यसंज्ञिनोः द्वौ च आहारानहारकयोः विज्ञेयाः।
जीवसमासाश्चतुर्दश अष्टावेव जिनैः निर्दिष्टाः॥ सण्णिअसण्णिसु दोण्णि य- संज्ञिजीवे पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ जीवसमासौ भवतः। असंज्ञिजीवे असंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ जीवसमासौ स्याताम्। आहारानाहरकेषु ज्ञेया जीवसमासाश्चतुर्दश अष्टावेव। को भावः? आहारकमार्गणायां चतुर्दशजीवसमासा विज्ञेयाः।अनाहरकमार्गणायामष्टावेव जीवसमासा बोद्धव्याः। ते के इति चेदुच्यते- एकेन्द्रियसूक्ष्मबादर-द्वित्रिचतुरिन्द्रिपंचेन्द्रियसंग्यसंज्ञिन एते सप्त अपर्याप्ताः, एकः संज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तक इत्यष्टौ जीवसमासाः। अनाहारे एतेअष्टौ कथं संभवतीत्याशंकायामाह- क्वचिद्विग्रहगत्यपेक्षया क्वचित्केवलिसमुद्धातापेक्षया। तथा चोक्तंविग्गहगइमावण्णा
समुग्धाइयकेवलिअजोगिजिणा। सिद्धा य अणाहारा सेसा आहरिया जीवा॥ १॥
जिणेहिं णिद्दिवा- जिनैः कथिता मार्गणासु यथासंभवं जीवसमासा जिनैणिता इत्युक्तिलेशः।। ११॥
इति चतुर्दशमार्गणासु जीवसमासाश्चतुर्दश संक्षेपेण कथिताः।
अन्वयार्थ- (सण्णि असण्णिसु) संज्ञी जीवों में और असंज्ञी जीवों में (दोण्णि) दो जीव समास (आहार अणाहारएसु) आहारक और अनाहारक इन दोनों में (चउदस अद्वेव) चौदह, आठ (जीव समासा) जीव समास जानना चाहिए। इस प्रकार मार्गणाओं में जीव समास (जिणेहिं) जिनेन्द्र देव के द्वारा (णिदिट्ठा) कहे गये हैं।
भावार्थ- संज्ञी जीवों में पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक और अपर्याप्तक इस प्रकार दो जीव समास होते हैं। असंज्ञी जीवों में असंज्ञी पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो जीव समास होते हैं। आहारक मार्गणा में चौदह जीव समास जानना चाहिए। और अनाहारक मार्गणा में आठ जीव समास होते हैं वे इस प्रकार हैं- एकेन्द्रिय सूक्ष्म, बादर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय संज्ञी और असंज्ञी इन सभी के अपर्याप्तक इस प्रकार सात, और एक संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक इस प्रकार आठ जीव
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(११) समास जानना चाहिए। अनाहारक अवस्था में ये आठ जीव समास कैसे होते हैं- इस शंका का समाधान करते हुए कहते हैं - कुछ विग्रह गति की अपेक्षा और कभी कुछ समुद्धात की अपेक्षा इस विषय में गाथा निम्न प्रकार है ।
अन्वयार्थ - विग्रह गति को प्राप्त जीव, समुद्धात को प्राप्त सयोग केवली, अयोग केवल और सिद्ध ये सभी जीव अनाहारक हैं शेष सभी जीव आहारक हैं। इस प्रकार जिनेन्द्र देव के द्वारा मार्गणाओं में जीव समास कहे गये ।
इस प्रकार चौदह मार्गणाओं में संक्षेप से चौदह जीव समास कहे ।
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अब चौदह मार्गणाओं में चौदह गुणस्थानों का कथन करने के लिए ग्रन्थकर्त्ता निम्न गाथा कहते हैं ।
अथ चतुर्दशमार्गणासु चतुर्दशगुणस्थानान्यवतारयन्नाह ग्रन्थकर्त्ता ( मार्गणासु गुणस्थाननिरूपणार्थ गाथामाह) -
णारयतिरियणरामरगईसु
चउपंचचउदसचयारि । इगदुतिचउरक्खेसु य मिच्छं विदियं च उववादे ।। १२ ।। नारकतिर्यङ्नरामरगतिषु चतुः पंचचतुर्दशचत्वारि ।
एकद्वित्रिचतुरक्षेषु च मिथ्यात्वं द्वितीयं चोपपादे ।। गाथा यथासंख्यं व्याख्येया । नारकतिर्यङ्नरामरगतिषु
इयं
चतुः पंचचतुर्दशचत्वारि गुणस्थानानि यथासंख्यं भवन्ति । इति गतिमार्गणा समाप्ता । इगिदुतिचउरक्खेसु य मिच्छं विदियं च उववादे एकद्वित्रिचतुरक्षेसु च एकेन्द्रियेषु द्विन्द्रियेषु त्रीन्द्रियेषु चतुरिन्द्रियेषु चैकं मिथ्यात्वं । च पुनः एतेष्वेव द्वितीयं सासादनगुणस्थानं, उववादे - उत्पत्तिकाले अपर्याप्तसमये स्यात् । एकेन्द्रियादिषु चतुर्षु मिथ्यात्वसासादनगुणस्थानद्वयं भवतीत्यर्थः ॥ १२ ॥
अन्वयार्थ - (णारय तिरियणरामरगईसु) नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में क्रमशः (चउ पंचचउदस चयारि) चार, पाँच, चौदह और चार गुणस्थान होते हैं। ( इगि दुतिचउरक्खेसु य) एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय में एक मिथ्यात्व गुणस्थान (च) और (विदियं) सासादन गुणस्थान ( उववादे) उत्पत्ति काल, अपर्याप्त समय में होता है ।
भावार्थ- नरकगति में मिथ्यात्वादि चार गुण स्थान, तिर्यंच गति में मिथ्यात्व
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(१२) से लेकर देशसंयम तक पाँच गुणस्थान मनुष्य गति में सम्पूर्ण चौदह गुणस्थान और देवगति में मिथ्यात्वादि चार गुणस्थान होते हैं । तथा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय में एक मिथ्यात्व गुणस्थान होता है विशेषता यह है कि अपर्याप्तक अवस्था में दूसरा सासादन गुणस्थान भी हो सकता है।
चउदस पंचक्खतसे धरादितिसु दुगिगि तेयपवणेसु । सच्चाणुभये तेरस मणवयणे बारसऽण्णेसु ॥ १३॥
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चतुर्दश पंचाक्षत्रसयोः धरादित्रिषु द्वे एकं तेजः पवनयोः । सत्यानुभययोः त्रयोदश मनोवचनयोः द्वादशान्येषु || चउदसेत्यादि । पंचक्खतसे- पंचाक्षेसु पंचेन्द्रियेषु पंचाक्षेसु पंचेन्द्रियेषु मिथ्यात्वादि चतुर्दशगुणस्थानानि भवन्ति । इन्द्रियमार्गणा समाप्ता । " तसे" इतः प्रारभ्य कायमार्गणा निरूप्यते तसे इति त्रसकायेषु च मिथ्यात्वादि चतुर्दशगुणस्थानानि स्युः । धरादितिसु दुगि- धरादिषु धरादिषु त्रिषु पृथिव्यब्वनस्पतिकायेषु, दुगिमिथ्यात्वसासादनगुणस्थानद्वयं भवति । इगि तेयपवणेसु- तेजःपवनकायेषु एकं मिथ्यात्वगुणस्थानं भवति । इति कार्यमार्गणा समाप्ता । सच्चाणुभये तेरस मणवयणेसत्यानुभयमनोयोगे मिथ्यात्वादित्रयोदश, सत्यानुभयवचनयोगे त्रयोदश । बारसण्णेसु अन्येषु असत्यमनोयोगेभयमनोयोगासत्यवचनयोगोभयवचनयोगेषु चतुर्षु प्रत्येकं बारस - ( द्वादश) मिथ्यात्वादीनि क्षीणकषायान्तानि स्युः ॥ १३ ॥
त्रिषु
अन्वयार्थ - (पंचक्ख तसे) पंचेन्द्रिय और त्रसकायिकों में (चउदस) चौदह गुणस्थान (धरादितिसु) पृथ्वीकायिकादिक तीन में (दुगि) दो अर्थात् पृथ्वीकायिक जलकायिक और वनस्पतिकायिक में दो और (तेयपवणेसु) तेजस्कायिक और वायुकायिक में (इगि) एक मिथ्यात्व गुणस्थान होता है । (सच्चाणुभये मणवयणे) सत्य, अनुभय, मनोयोग और वचनयोग में (तेरस) तेरह गुणस्थान ( अण्णेसु) शेष योगों में (बारस) वारह गुणस्थान होते हैं ।
भावार्थ- पंचेन्द्रिय जीवों में मिथ्यात्वादि चौदह सभी गुणस्थान पाये जाते हैं । "तसे" इस शब्द से काय मार्गणा का निरूपण करते हैं । जसकायिकों में चौदह गुणस्थान होते हैं । पृथ्वीकायिक आदि तीनों में दो, मिथ्यात्व और सासादन इस प्रकार दो गुणस्थान होते हैं। तेज कायिक अर्थात् अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों में एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है। इस प्रकार कायमार्गणा समाप्त हुई। सत्य, अनुभय मनोयोग में तेरह गुणस्थान और सत्य, अनुभय वचन योग में तेरह गुणस्थान होते हैं।
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(१३)
शेष बचे असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, असत्य वचनयोग उभयवचन योग इन चारों में मिथ्यात्व को आदि लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त बारह गुणस्थान होते हैं।
ओरालिए य तेरस मिस्से कम्मे य मिस्सतिय जोगी। वेउब्वियदुग चदुतिय पमत्तमाहारदुगे य॥ १४॥
औदारिके च त्रयोदश मिश्रे कार्मणे च मिश्रत्रिकयोगिनः।
वैगूर्विकाद्विके चतुःत्रिकं प्रमत्तमाहारकद्विके च। औदारिककाययोगे मिथ्यात्वादिसयोगकेवलिपर्यन्तानि त्रयोदश गुणस्थानानि भवन्ति। मिस्से कम्मे य मिस्सतियजोगी- मिस्से इति औदारिकमिश्रकाययोगे, कम्मे य- इति, कार्मणकाययोगे च, मिस्सतियजोगी-मिश्रत्रिकं सयोगिगुणस्थानं च भवति। मिश्रत्रिकमिति कोऽर्थः ? मिथ्यात्वसासादनाविरतानीति मिश्रत्रयं भण्यते।
औदारिकमिश्रकाययोगे कार्मणकाययोगे च मिथ्यात्वसासादनाविरतसयोगकेवलीनि नामानि चत्वारि गुणस्थानानि भवन्तीत्यर्थः। मिश्रकार्मणकाययोर्मिश्रगुणस्थानं कुतो न संभवति? मरणाभावात्। तथा चोक्तं;
___ "मिश्रे क्षीणे सयोगे च मरणं नास्ति देहिनाम्"
इति वचनात्। वेउव्वियदुग चदुतिय- वैक्रियिकद्विके चत्वारि त्रीणि यथासंख्यं। वैक्रियिककाययोगे मिथ्यात्वसासादनमिश्राविरतगुणस्थानचतुष्टयं भवति वैक्रियिकमिश्रकाययोगे मिथ्यात्वसासादनाविरतगुणस्थानत्रिकं भवति। पमत्तमाहारदुगे य- आहारकद्विके आहारककाययोगे आहारकमिश्रकाययोगे च प्रमत्ताख्यं एकं षष्ठं भवति। इति योगमार्गणा समाप्ता।। १४॥
(१४) अन्वयार्थ- (ओरालिए) औदारिक काययोग में (तेरस) तेरह (मिस्से) औदारिक मिश्र काययोग में (कम्मे य) और कार्मण काययोग में (मिस्सतिय जोगी) तीन गुणस्थान और सयोगकेवली इस प्रकार चार गुणस्थान होते हैं। (वेउव्वियदुग) वैक्रियिककाय योग (चदु) चार गुण स्थान और वैक्रियिक मिश्र काययोग में (तिय) तीन गुणस्थान (आहारदुगे) आहारकद्विक में (पमत्त) प्रमत्त एक गुणस्थान ही होता है। इस प्रकार योग मार्गणा समाप्त हुई।
__ भावार्थ- औदारिक काययोग में मिथ्यात्वादि सयोग केवली पर्यन्त तेरह गुणस्थान होते हैं। औदारिक मिश्रकाययोग और कार्मण काययोग में मिथ्यात्व, सासादन, अविरत और सयोग केवली नामक चार गुणस्थान होते हैं। मिश्र और कार्मण योग में मिश्रगुणस्थान क्यों नहीं संभव होता है मरण का अभाव होने से और
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(१४)
कहा भी है कि
मिश्र क्षीणे सयोगे च मरणं नास्ति देहिनाम् । प्राणियों का मिश्र गुणस्थान, क्षीणकषाय और सयोग केवली गुणस्थान में मरण नहीं होता है ।
वैक्रियिक काययोग में मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र और अविरत में चार गुणस्थान होते हैं। वैक्रियिक मिश्रकाययोग में मिथ्यात्व, सासादन और अविरत ये तीन गुणस्थान होते हैं। आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग में एक प्रमत्त संयत नामक गुणस्थान होता है। इस प्रकार योग मार्गणा समाप्त हुई ।
वेदतिए कोहतिए णवगुणठाणाणि दसय तह लोहे । अण्णाणतिए दो मइतिए चउत्थादिणव चेव ।। १५ ।। वेदत्रिके क्रोधत्रिके नवगुणस्थानानि दशकं तथा लोभे । अज्ञानत्रिके द्वे मतित्रिके चतुर्थादिनव चैव ॥ वेदतिए - वेदत्रिके स्त्रीवेदपुंवेदनपुंसकवेदेषु त्रिषु मिथ्यात्वादीन्यनिवृत्तिकरणपर्यन्तानि नवगुणस्थानानि भवन्ति । इति वेदमार्गणा । कोइतिए णवक्रोधत्रिके क्रोधमानमायासु मिथ्यात्वादीन्यनिवृत्तिकरण - पर्यन्तानि गुणस्थानानि भवन्ति । दसय तह लोहे - तथा लोभे मिथ्यात्वप्रभृतिसूक्ष्म - साम्परायपर्यन्तं गुणस्थानदशकं भवति । इति कषायमार्गणा पूर्णा । अण्णाणतिए दो - अज्ञानत्रिके द्वे गुणस्थाने कुमतिकुश्रुतक्ववधिषुत्रिषु प्रत्येकं - मिथ्यात्वसासादनगुणस्थाने द्वे भवतः । मइतिए चउत्थादिणव चेव - मतित्रिके मतिश्रुतावधिज्ञानेषु चतुर्त्यादिनव चैव अविरतादिक्षीणकषायपर्यन्तानि नवगुणस्थानानि भवन्ति ॥ १५ ॥
(१५) अन्वयार्थ - ( वेदतिए) वेदत्रिक अर्थात् स्त्रीवेद, पुंवेद, और नपुंसकवेद में (नव) नौ गुणस्थान (कोहतिए) क्रोधत्रिक, क्रोध, मान और माया में ( णव गुण ठाणाणि) नव गुणस्थान (अण्णाण तिए) अज्ञानत्रिक में (दो) दो गुणस्थान प्रथम और द्वितीय (मइतिए) मतिश्रुत अवधिज्ञान में (चउत्थादिणव चेव ) चतुर्थ गुणस्थान को आदि लेकर नौ गुणस्थान होते हैं ।
भावार्थ- स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद इन तीनों वेदों में मिथ्यात्व गुणस्थान से अनिवृत्तिकरण पर्यन्त नौ गुणस्थान होते हैं। इस प्रकार वेद मार्गणा में गुणस्थान निरूपण हुआ । क्रोध, मान और माया इन तीन कषायों में मिथ्यात्व गुणस्थान को आदि लेकर अनिवृत्तिकरण तक नौ गुणस्थान होते हैं । तथा लोभ कषाय
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(१५) की अपेक्षा मिथ्यात्व गुणस्थान को आदि लेकर सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान पर्यन्त दश गुणस्थान होते हैं। इस प्रकार कषाय मार्गणा समाप्त हुई। कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और विभंगावधि ज्ञान इन तीनों ज्ञानों के प्रत्येक में दो गुणस्थान अर्थात् मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान इन तीनों ज्ञानों में चतुर्थ गुणस्थान अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीण कषाय पर्यन्त बारहवें गुणस्थान तक नौ गुणस्थान होते हैं।
सग मणपज्जे केवलणाणे जोगदुर्ग पमत्तादी। चदु सामाइयजुयले पमत्तजुयलं च परिहारे।। १६ ।।
सप्त मनःपर्यये केवलज्ञाने योगिद्विकं प्रमत्तादीनि।
चत्वारि सामयिकयुगले प्रमत्तयुगलं च परिहारे। सग मणपज्जे- मणपज्जे इति, मनःपयर्यज्ञाने, सग-इति, सप्त गुणस्थानानि स्युः। तानि कानि चेदुच्यते प्रमत्तादिक्षीणकषायपर्यन्तानि सप्त भवन्ति। केवलणाणे जोगदुगं- केवलज्ञाने योगद्विकं सयोगायोगकेवलिगुणस्थानद्वयं भवति। इति ज्ञानमार्गणा। पमत्तादी चदु सामाइयजुयले- सामायिकयुगले सामायिकच्छेदोपस्थापनद्वयोः प्रमत्ताद्यनिवृत्ति करणगुणस्थानपर्यन्तानि चत्वारि भवन्ति। पमत्तजुयलं च परिहारे- परिहारविशुद्धिसंयमे तृतीये प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानद्वयं भवति।।१६।।
अन्वयार्थ- (मणपज्जे) मनःपर्ययज्ञान में (सग) सप्त गुणस्थान (केवलणाणे) केवलज्ञान में (जोगदुर्ग) सयोग केवली और अयोग केवली (सामायिक जुयले) सामायिक युगल अर्थात् सामायिक और छेदोपस्थापना संयम में (पमत्तादि चदु) प्रमत्तादि चार गुणस्थान (च) और (परिहारे) परिहारविशुद्धि संयम में (पमत्तजुगलं) प्रमत्त युगल अर्थात् प्रमत्त और अप्रमत्त ये दो गुणस्थान होते हैं।
भावार्थ- मनःपर्यय ज्ञान में प्रमत्त गुणस्थान से क्षीणकषाय गुणस्थान तक अर्थात् बारहवें गुणस्थान तक सात गुणस्थान होते हैं। केवलज्ञान में सयोग केवली
और अयोग केवली ये दो गुणस्थान होते हैं। इस प्रकार ज्ञान मार्गणा समाप्त हुई। सामायिक और छेदोपस्थापना संयम इन दो संयमों में प्रमत्त संयत गुणस्थान से अनिवृत्तिकरण गुणस्थान अर्थात् छठवें से नौवें गुणस्थान तक चार गुणस्थान होते हैं। परिहारविशुद्धि तृतीय संयम में प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत ये दो गुणस्थान होते
सुहमे
सुहमं
अंतिमचत्तारि हवंति जहखादे ।
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चरियाचरिए इक्कं पंचमयं असंजमे चउरो।। १७॥
सूक्ष्मे सूक्ष्म अन्तिमचत्वारि भवन्ति यथाख्याते।
चरिताचरिते एकं पंचमकं असंयमे चत्वारि।। सुहमे इति, सूक्ष्मसाम्पराये चतुर्थे संयमे, सुहमं- इति, सूक्ष्मसाम्परायानाम दशमं एकं गुणस्थानं भवति। अंतिमचत्तारि जहखादे- इति, यथाख्याते पंचमसंयमे अन्तिमचत्वारि गुणस्थानानि भवन्ति। तानि कानि किन्नामानि चेत् ? उपशान्तकषायक्षीणकषायसयोगायोगकेवलिनामानि ज्ञेयानि। चरियाचरिए इक्कं पंचमयं- चरिताचरिते संयतासंयते षष्ठे संयमे, इक्कं पंचमयं- इति, पंचमं देशविरताख्यं भवति। असंजमे चउरो- असंयते सप्तमे मिथ्यात्वादिचतुर्थगुणस्थानानि चत्वारि भवन्ति। इति संयमामार्गणा पूर्णा।। १७।।
अन्वयार्थ- (सुहमे) सूक्ष्म साम्पराय संयम में (सुहम) सूक्ष्म साम्पराय नामक दसवां गुणस्थान (जहखादे) यथाख्यात संयम में (अंतिम चत्तारि) अंतिम चार गुणस्थान होते हैं। (चरियाचरिए) संयतासंयत गुणस्थान में (इक्कं) एक (पंचमयं) पांचवाँ गुणस्थान (असंजमे) असंयत में (चउरो) चार गुणस्थान होते हैं।
भावार्थ- सूक्ष्म साम्पराय नामक चतुर्थ संयम में एक सूक्ष्म साम्पराय नामक दशमा गुणस्थान होता है। पाँचवें यथाख्यात संयम में अन्तिम चार गुणस्थान होते हैं अर्थात् उपशान्त कषाय, क्षीण कषाय, सयोग केवली और अयोग केवली इस प्रकार चार गुणस्थान जानना चाहिए। संयतासंयत षष्टम संयम में एक देशविरत नाम का गुणस्थान होता है। सप्तम असंयत में मिथ्यात्व को आदि लेकर अविरत सम्यग्दृष्टि तक चार गुणस्थान होते हैं। इस प्रकार संयम मार्गणा पूर्ण हुई।
बारस चक्खुदुगे णव अवहीए दुण्णि केवलालोए। किण्हादितिए चउरो तेजापउमासु सत्तगुणा।। १८॥
द्वादश चक्षुद्विके नव अवधौ द्वे केवलालोके।
कृष्णादित्रिके चत्वारि तेजःपद्ययोः सप्तगुणाः।। बारस चक्खुदुगे- इति, चक्षुईये चक्षुर्दर्शनेअचक्षुर्दर्शने च मिथ्यात्वादीनि क्षीणकषायपर्यन्तानि द्वादश गुणस्थानानि स्युः। णव अवहीए- अवधिदर्शने अविरतप्रभृतिक्षीणकषायावसानानि नवगुणस्थानानि भवन्ति। दुण्णि केवलालोए केवलालोके केवलदर्शने, दुण्णिसयोगायोगकेवलिगुणस्थानद्वयं स्यात्। इति दर्शनमार्गणा। किण्हादितिए चउरो कृष्णादित्रिके चउरो मिथ्यात्वसासादन
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(१७) मिश्राविरत्यभिधानानि गुणस्थानानि चत्वारि भवन्ति। तेजापउमासु पीतापमलेश्ययोर्द्वयोः; सत्तगुणा- मिथ्यात्वादीन्यप्रमत्तात्तानि सप्त भवन्ति।। १८ ।।
(१८) अन्वयार्थ- (चक्खुदुगे) चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन में (वारस) बारह गुणस्थान (अवहीए) अवधिदर्शन में (णव) नौ (केवलालोए) केवलदर्शन में (दुण्णि) दो (किण्हादितिए) कृष्णादि तीन लेश्याओं में (चउरो) चार (तेजापउमासु) पीत पद्मलेश्या में (सत्तगुणा) सात गुणस्थान होते हैं।
भावार्थ- चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन इन दोनों में मिथ्यात्व गुणस्थान से क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त १२ गुणस्थान होते हैं। अवधिदर्शन में अविरत गुणस्थान से प्रारम्भ कर क्षीणकषाय गुणस्थान तक नौ गुणस्थान होते हैं। केवलदर्शन में दो सयोग केवली और अयोगकवली इस प्रकार दो गुणस्थान होते हैं। इस प्रकार दर्शनमार्गणा समाप्त हुई। कृष्णादि तीन अशुभ लेश्याओं में मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र
और अविरत सम्यग्दृष्टि चार गुणस्थान होते हैं। पीत और पद्म इन दो शुभ लेश्याओं में मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अप्रमत्त गुणस्थान तक सात गुणस्थान होते हैं।
सियलेस्साए तेरस भवे सवे अभवए मिच्छं। इगिदह चदु अड खाइयतिए तहण्णेसु णियइक्कं ।। १६॥ सितलेश्यायां त्रयोदश भव्ये सर्वाणि अभव्ये मिथ्यात्वं।
एकादश चत्वारि अष्टौ क्षायिकत्रये तथान्येषु निजैकम्॥ सियलेस्साए तेरस- सितेलेश्यायां शुक्ललेश्यायां मिथ्यात्वप्रभृतित्रयो दशगुणस्थानानि भवन्ति। इति लेश्यामार्गणा। भव्वे सव्वे- इति, भव्यजीवे, सब्वे-- इति, मिथ्यात्वाद्ययोगकेवलिपर्यन्तानि चतुर्दशगुणस्थानानि सर्वाणि भवन्ति। अभव्वए- इति, अभव्यजीवे एकं मिथ्यात्वगुणस्थानं भवति। इति भव्यमार्गणा। इगिदह चदु अड खाइयतिए-क्षायिकत्रिके अत्र यथासंख्येन व्याख्या वर्तते तथाहिक्षायिकसम्यक्त्वे एकादश चतुर्थादिसिद्धपर्यन्तान्येकादशगुणस्थानानि विद्यन्ते। वेदकसम्यक्त्वे, चदु- अविरताद्यप्रमत्तान्तानि चत्वारि गुणस्थानानि प्रतिपत्तव्यानि। उपशमसम्यक्त्वे, अड- अविरताद्युपशान्तकषायान्तानि अष्टौ ज्ञेयानि। तहऽण्णेसुतथान्येषु मिथ्यात्वसासादनमिश्रेषु, णियइक्क-- निजैकमिति। कोऽर्थः ? मिथ्यात्वसम्यक्त्वे मिथ्यात्वसम्यक्त्वे मिथ्यात्वमेकं भवति। सासादनसम्यक्त्वे निजं सासादनगुणस्थानमस्ति। मिश्रनानि सम्यक्त्वे स्वकीयं मिश्रनामगुणस्थानं भवेत्। इति सम्यक्त्वमार्गणा।। १६॥
(१६) अन्वयार्थ- (सियलेस्साए) शुक्ल लेश्याओं में (तेरस) तेरह गुणस्थान
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(भव्वे) भव्य जीवों में (सव्वे) सभी गुणस्थान (अभव्वे) अभव्य जीवों में (मिच्छं) मिथ्यात्व एक गुणस्थान (खाइयतिए) क्षायिक, क्षयोपशम और उपशम सम्यग्दर्शन में (इगिदह चदु अड्) ग्यारह, चार, आठ इस प्रकार यथाक्रम गुणस्थान जानना चाहिए। (तहऽण्णेसु) मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीनों में (णिय इक्कं) वही वही गुणस्थान होता है।
भावार्थ- शुक्ल लेश्या में मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सयोग केवली पर्यन्त तेरह गुणस्थान होते हैं। इस प्रकार लेश्यामार्गणा में गुणस्थान का निरूपण हुआ। भव्य जीव में मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अयोगकेवली तक समस्त चौदह गुणस्थान होते हैं। अभव्यजीव में एक मिथ्यात्व गुणस्थान होता है। इस प्रकार भव्य मार्गणा पूर्ण हुई। क्षायिक सम्यक्त्व में चतुर्थ से लेकर सिद्ध पर्यन्त अर्थात् अयोगकेवली जिन गुणस्थान तक ११ गुणस्थान होते हैं। वेदक सम्यक्त्व में अविरत गुणस्थान को आदि लेकर सप्तम गुणस्थान तक चार गुणस्थान जानना चाहिए। मिथ्यात्व में एक मिथ्यात्व गुणस्थान सासादन सम्यक्त्व में एक सासादन सम्यग्दृष्टि और मिश्र सम्यक्त्व में एक मिश्र गुणस्थान होता है। इस प्रकार सम्यक्त्व मार्गणा पूर्ण हुई।
सण्णिअसण्णिसु बारस दो पढमादितिदस पण गुणा कमसो। आहारअणाहारे एसु इदि मग्गणठाणएसु गुणा।। २०॥
संश्यसंज्ञिषु द्वादश द्वे प्रथमादित्रयोदश पंच गुणाः क्रमशः।
आहारकानाहरके एतेषु इति मार्गणस्थानेषु गुणाः।। सण्णिअसण्णिसु बारस दो- अत्र यथासंख्यालंकारः। संज्ञिजीवे प्रथमादिक्षीणकषायपर्यन्तानि द्वादशगुणस्थानि स्युः। असण्णिसु- असंज्ञिजीवेषु द्वौ गुणौ मिथ्यात्वसासादने भवत इत्यर्थः। इति संज्ञिमार्गणा। पढमादितिदस-पणगुणा कमसो आहारअणाहारे- कमसो-- इति, अनुक्रमेण यथासंख्यतया, आहारके प्रथममिथ्यात्वादिसयोगान्तानि त्रयोदश--गुणस्थानानि सन्ति। अनाहारके पण गुणापंचगुणस्थानानि भवन्ति मिथ्यात्वसासादनाविरतिसयोगकेवल्ययोगकेवलिनामानि पंचगुणस्थानानि स्युः। अनाहारके एतानि पंचगुणस्थानानि कथं संभवंतीत्यारेकायामाह- मिथ्यात्वसासादनाविरतेषु त्रिषु जीवानां विग्रहगत्यां सत्यां अनाहरकत्वं संभवति। सयोगकेवलिनि समुद्धातापेक्षया ज्ञेयं। तथा चोक्तं . विग्गहगइमावण्णा
समुग्घयकेवलिअजोगिजिणा। सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारिया जीवा॥ १॥
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(१६) अयोगकेवलिनि तु स्वभावतोऽनाहरकत्वमस्ति। एसु इदि मग्गणठाणएसु गुणा- इत्यमुना प्रकारेण एतेषु मार्गणास्थानेषु गुणा गुणस्थानानि ज्ञेयाः।। २०॥
___ अन्वयार्थ- (सण्णि) संज्ञी जीवों के (बारस) बारह (असण्णिसु) असंज्ञी जीवों में (दो) दो गुणस्थान (आहारअणाहारे) आहारक और अनाहारक मार्गणा में (पढमादितिदस पण) प्रथम गुणस्थान को आदि लेकर तेरह और पांच अर्थात्
आहारक में तेरह और अनाहारक में पाँच (गुणा कमसो) गुणस्थान क्रमशः होते हैं (इदि) इस प्रकार (मग्गणठाणएसु) मार्गणा स्थानों में गुणस्थानों का कथन पूर्ण हुआ।
भावार्थ- संज्ञी जीवों में प्रथम गुणस्थान मिथ्यात्वगुणस्थान को आदि लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक बारह गुणस्थान होते हैं। असंज्ञी जीवों में मिथ्यात्व और सासादन सम्यग्दृष्टि ये दो गुणस्थान होते हैं। इस प्रकार संज्ञी मार्गणा पूर्ण हुई। आहारक मार्गणा में प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान को आदि लेकर सयोग केवली तक तेरह गुणस्थान होते हैं। मिथ्यात्व, सासादन, अविरत सम्यग्यदृष्टि, सयोग केवली और अयोग केवली इन गुणस्थानों में जीव अनाहारक होते हैं अर्थात् मिथ्यात्व, सासादन और अविरत सम्यग्दृष्टि जीवों में, विग्रह गति में अनाहारकपना संभव होता है। सयोग केवली में अनाहारक समुद्घात की अपेक्षा जानना चाहिए। अयोग केवली स्वभाव से ही अनाहारक होते हैं। इस प्रकार मार्गणा स्थानों में गुणस्थान जानना चाहिए। इस प्रकार मार्गणाओं में गुणस्थानों का विवेचन किया।
इति मार्गणासु गुणा भणिताः। अथ चतुर्दशमार्गणासु पंचदशयोगान् प्रकटयन्नाह सूरिः
आहारयओरालियदुगेहि हीणाः हवंति णिरयसुरे। आहारयवेउब्बियद्गजोगे इगिदस तिरियक्खे ॥ २१।।
आहारकौदारिकद्विकैः हीना भवन्ति नारकसुरेषु।
आहारकवैक्रियिकद्विकयोगेन एकादश तिरश्चि।। आहारय इत्यादि। णिरयसुरे-- नरकगतौ देवगतौ च आहाकाहारकमिश्रकाययोगे इति द्वयं, औदारिकौदारिकमिश्रकाययोगद्वयं इति चतुर्योगै ना अन्ये उद्धरिताः, इगिदस- एकादशयोगा भवन्ति। ते के इति चेत् ? मनोयोगचत्वारि वचनयोगचत्वारि वैक्रियिककाययोग वैक्रियिकमिश्रकाययोगकार्मणकाययोगा एवं एकादशयोगाः नरकगत्यां देवगत्यां भवन्तीति ज्ञेयं । आहारयवेउव्वियदुगजोगे इगिदस तिरियक्खे- तिर्यग्गतौ आहारकाहारकमिश्रवैक्रियिकतन्मिश्रकाययोगै_ना अन्ये
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(२०) एकादशयोगा भवन्ति। ते के? अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिकतन्मिश्रकार्मणकाययोगाश्चेति त्रय एवं एकादश योगाः स्युः॥२१॥
अब चौदह मार्गणाओं पन्द्रह योगों को प्रकट करते हुये आचार्य कहते हैं
(२१) अन्वयार्थ- (णिरयसुरे) नरकगति और देवगति के जीव (आहारयओरालियदुगेहि) आहारक काययोग, आहारककमिश्रकाययोग, औदारिक काययोग और औदारिक मिश्र काययोग इन चार योगों से (हीणा) रहित (हवंति) होते हैं। उनके (इगिदस) ग्यारह योग होते हैं। (आहारयवेउव्वियदुग जोगे) आहारक काययोग, आहारक मिश्र काययोग, वैक्रियिक काययोग और वैक्रियिक मिश्र काययोग को छोड़कर (तिरियक्खे) तिर्यंचों में (इगिदस) ग्यारह योग होते हैं।
भावार्थ- नरकगति और देवगति में आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोग औदारिक काययोग और औदारिक मिश्रकाययोग इन चार योगों से रहित अन्य ग्यारह योग होते हैं। अर्थात् चार मनोयोग, चार वचन योग, वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्र काययोग, कार्मण काययोग इस प्रकार ग्यारह योग नरकगति और देवगति में होते हैं। तिर्यंच गति में आहारक काययोग, आहारक मिश्र काययोग, वैक्रियिक काययोग और वैक्रियिक मिश्र काययोग इन चार काययोग से रहित शेष ग्यारह योग होते हैं अर्थात् चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग, और कार्मण काययोग इस प्रकार ग्यारह योग जानना चाहिए।
वेगुवियदुगरहिया मणुए तेरस एयक्खकायेषु। पंचसुओरालदुगं कम्मइयं तिण्णि वियलेसु।। २२॥
वैगूर्विकद्विकरहिता मनुजे त्रयोदश एकाक्षकायेषु।
पंचसु औदारिकद्विकं कार्मणं त्रयो विकलेषु।। वेगुम्वियरहिया मणुए तेरस--इति, मनुष्यगतौ वैक्रियिकवैक्रियिक मिश्रकाययोगद्वयरहिता अन्ये त्रयोदश योगा भवन्ति। इति गतिमार्गणा। एयक्खकायेसु पंचसु ओरालदुगं कम्मइयं तिण्णि इति, एकेन्द्रिये, कायेसु पंचसु- इति, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायेषु च औदारिकौदारिक मिश्रकाययोगद्वयं, कम्मइयंकार्मण काययोग इति त्रयो योगा भवन्ति। वियलेसु इति पदस्य व्याख्यानमुत्तरगाथायां वर्तते ॥ २२॥ तद्यथा;
(२२) अन्वयार्थ- (मणुए) मनुष्यगति में (वेगुम्वियदुगरहिया) वैक्रियिक
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(२१)
काययोग और वैक्रियिक मिश्रकाययोग, इन दो योगों से रहित (तेरस) तेरह योग होते हैं। (एयक्खकायेषु) एकेन्द्रियादिक पंच स्थावरों में (ओरालदुगं कम्मइयं तिण्णि) औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग और कार्मण काययोग इस प्रकार तीन काय योग होते हैं। “वियलेसु" इस पद का सम्बन्ध आगे की गाथा से जानना चाहिए।
अणुभयवयणेण जुआ चदु पंचक्खे दु पंचदस जोगा। तसकाए विण्णेया पणदह जोगेसु णियइक्कं ।। २३ ।।
अनुभयवचनेन युताः चत्वारः पंचाक्षे तु पंचदश योगाः।
त्रसकाये विज्ञेयाः पंचदश योगेषु निजैकः।। वियलेसु अणुभयवयणेण जुआ चदु इति, विकलेन्द्रियेषु द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु अनुभयवचनेन युक्ताः चत्वारो योगा भवन्ति। ते के? औदारिकौदारिकमिश्रकार्मणानुभयवचननामान एते चत्वारो योगाः। पंचखे दु पंचदस जोगा- तु पुनः पंचाक्षे पंचेन्द्रियेषु पंचदश योगा भवन्ति। पंचेन्द्रियेषु नानाजीवापेक्षया यथासंभवमुत्प्रेक्षणीयाः। तसकाए विण्णेया पणदह- इति, त्रसकायेषु सामान्यत्वेन पंचदशयोगाः सन्ति। इतीन्द्रियमार्गणाकायमार्गणाद्वयं जातं। जोगेसुणियइक्कं- इति, पंचदशयोगेषु निजैकः स्वकीयः स्वकीयो योगो भवति। को भावः? सत्यमनोयोगे सत्यमनोयोगः, असत्यमनोयोगऽसत्यमनोयोगः। एवं सर्वत्र ज्ञेयं । इति योगमार्गणा।। २३॥
(२३) अन्वयार्थ- (वियलेसु) विकलेन्द्रियों में (अणुभयवयणेण) अनुभय वचन से (जुआ) युक्त (चदु) चार (पंचक्खे दु पंचदस योगा) पंचेन्द्रियों में पन्द्रह योग (तसकाए पणदह विण्णेया) त्रसकायों में पन्द्रहयोग जानना चाहिए और (जोगेसु णियइक्कं) पन्द्रह योगों के प्रत्येक में वही-वहीं नाम वाला योग होता है।
भावार्थ- विकलेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों में अनुभयवचन से युक्त चार योग होते हैं। वे इस प्रकार हैं-- औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग कार्मण काय योग और अनुभय वचनयोग हैं। और पंचेन्द्रियों में नाना जीवों की अपेक्षा पन्द्रह योग होते हैं। त्रसकायों में सामान्यतः पन्द्रह योग होते हैं। इस प्रकार इन्द्रिय मार्गणा और कायमार्गणा ये दो मार्गणायें समाप्त हुईं। तथा पन्द्रह योगों में प्रत्येक वही वही नाम वाला योग होता है। यथा सत्य मनोयोग में सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग में असत्यमनोयोग इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये। इस प्रकार योग मार्गणा पूर्ण हुई।
आहारयदुगरहिया तेरस इत्थीणउसए पुंसे।
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(२२) कोहचउक्के सब्बे अण्णाणदुगे तिदह हुंति॥ २४॥
आहारकद्विकरहिताः त्रयोदश स्त्रीनपुंसकयोः पुंसि।
क्रोधचतुष्के सर्वे अज्ञानद्विके त्रयोदश भवन्ति। आहारय इत्यादि। स्त्रीवेदे नपुंसकवेदे च आहारकतन्मिश्रकाययोगद्वयरहिता अन्येऽवशिष्टास्त्रयोदश योगा भवन्ति। पुंसे- पुंवेदे, सव्वे-सर्वे पंचदश योगाः स्युः। इति वेदमार्गणा । कोहचउक्के सव्वे- क्रोध-चतुष्के क्रोधमानमायालाभचतुष्टये सर्वे योगा भवन्ति। इति कषाय-मार्गणा। अण्णाणदुगे-अज्ञानद्विके कुमतिकुश्रुतज्ञाने आहारकद्वय योगवास्त्रयोदश योगा भवन्ति।। २४।।
____ अन्वयार्थ- (इत्थीणउंसए) स्त्रीवेद और नपुंसकवेद में (आहारयदुग रहिया) आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग से रहित अन्य शेष (तेरस) तेरह योग होते हैं। (पुंसे) पुंवेद में (सव्वे) सभी पन्द्रह योग होते हैं। (कोहचउक्के) क्रोध चतुष्क, अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ में (सब्वे) सभी योग होते हैं। (अण्णाणदुगे) कुमतिकुश्रुतज्ञान में (तिदह हुंति) आहारकद्विक को छोड़कर तेरह योग होते हैं।
मिस्सद्गाहारदुगंकम्मइयविहीण हुंति वेभंगे। दस सब्वे णाणतिए मणपज्जे पढमणवजोगा॥ २५॥
मिश्रद्विकाहारद्विककार्मणविहीना भवन्ति विभंगे।
दश सर्वे ज्ञानत्रिके मनःपर्यये प्रथमनवयोगाः॥ मिस्सेत्यादि। विभंगज्ञाने कवधिज्ञाने, मिस्सेत्यादिऔदारिकमिश्रवैक्रियिक-मिश्रकाययोगद्वयाहारकतन्मिश्र- काययोगद्वयकार्मणकाययोगविहीनः उद्धरिता दशयोगा भवन्ति। ते के? अथै मनोवचनयोगा औदारिकवैक्रियिककाययोगौ एवं दश योगाः कवधिज्ञाने भवन्तीत्यथः सव्वे णाणतिए- ज्ञानत्रिके मतिश्रुतावधिज्ञानत्रये सर्वे पंचदशयोगा भवन्ति। मणपज्जे पढमणवजोगा- मनःपर्ययज्ञाने प्रथमे “अल्पादेर्वा' प्रथमा नवयोगा भवन्ति। ते के ? अष्टौ मनोवचनयोगा एक औदारिकयोग एवं नवयोगाः।।२५॥
अन्वयार्थ- (वेभंगे) विभंगावधि ज्ञान में (मिस्सादुगाहारदुर्ग कम्मइयविहीणं) मिश्र द्विक, आहारक द्विक और कार्मण काययोग से रहित (दस) दस योग (हुंति) होते हैं। (णाणतिए) ज्ञान त्रिक में (सव्वे) सभी योग (मणपज्जे) मनःपर्यय ज्ञान में (पढमणवजोगा) प्रथम नौ योग होते हैं।
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(२३)
भावार्थ- विभंगावधि ज्ञान में औदारिक मिश्रकाययोग, वैक्रियिक मिश्र काययोग, आहारक काययोग, आहारक मिश्र काययोग, कार्मण काययोग इन पाँच योगों से रहित दस योग होते हैं । वे इस प्रकार हैं-- चार मनोयोग, चार वचनयोग औदारिक काययोग और वैक्रियिक काययोग ये दस काययोग विभंगावधि ज्ञान में होते हैं । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, और अवधिज्ञान में पन्द्रह योग होते हैं । मनः पर्ययज्ञान में प्रथम नौ योग होते हैं - चार मनोयोग, चार वचनयोग और एक औदारिक काययोग इस प्रकार नौ योग जानना चाहिये।
ओरालिय तम्मिस्सं कम्मइयं सच्चअणुभयाणं च । मणवयणाण चउक्कं केवलणाणे सगिगिदसयं ॥ २६॥
औदारिकः तन्मिश्रः कार्मणं सत्यानुभयानां च । मनोवचनानां चतुष्कं केवलज्ञाने सप्त एकादशकं ।। केवलणाणे- केवलज्ञाने, सग - सप्तयोगा भवन्ति । किंतन्नामानः ओरालिए तिम्मिस्सं औदारिककाययोगः, तन्मिश्र औदारिक- मिश्रकाययोगः, कार्मणकाययोग एते त्रयो योगाः । सच्चेत्यादि - सत्यानुभयमनोवचनानां चतुष्कं सत्यमनोयोगानुभयमनोयोगौ, सत्यवचनयोगानुभयवचनयोगौ इति चत्वारो योगा एवं एकत्रीकृताः सप्तयोगाः केवलज्ञाने भवन्तीत्यर्थः । अत्र तटस्थेनोच्यत - औदारिककाययोग औदारिकमिश्रकाययोगः कार्मणकाययोगश्चैते त्रयः केवलज्ञाने कथं संभवन्तीति चेत्, तदुच्यते - समुद्धातापेक्षया संभावनीयाः । तथा चोक्तं आगमग्रन्थे
दंडदुगे ओरालं कवाडजुगले य पयरसंवरणे । मिस्सोरालिय भणियं सेसतिए जाण कम्मइयं ॥ 911
अस्या अर्थः- दंडकपाटयुग्मे औदारिककाययोगो भवति । कवाडयुगले य-च पुनः कपाटप्रतरयुग्मे औदारिककायोगो भवति । पयरसंवरणे मिस्सोरालिय भणियं प्रतरसंवरणे प्रतरसमुद्धातसंकोचने औदारिकमिश्र काययोगो भणितः । शेष त्रिक प्रतरलोकपूरणसंवरणत्रये कार्मणकाययोगं जानीहि । इति ज्ञानमार्गणा । " इगिदसयं” इति पदस्य उत्तरगाथायां सम्बन्धः ।। २६ ।
अन्वयार्थ - (केवलणाणे) केवलज्ञान में (सग) सात योग होते हैं। ये (ओरालिय) औदारिक काययोग (तम्मिस्सं ) औदारिक मिश्रकाययोग (कम्मइयं ) कार्मणकाययोग ये तीन (च) और ( सच्च अणुभयाणं मणवयणाणं) सत्य, अनुभय, मनोयोग और वचनयोग इस प्रकार ( चउक्कं ) चार योग दोनों को मिलाकर सात योग
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(२४)
होते हैं । ( इगिदसi) इस पद का सम्बन्ध उत्तरगाथा से जानना चाहिये ।
भावार्थ - केवलज्ञान में सात योग होते हैं - वे इस प्रकार से हैं-- औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, कार्मण काययोग, सत्यमनोयोग, अनुभय मनोयोग, सत्य वचनयोग, अनुभय वचनयोग, औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग कार्मणकाययोग ये तीन योग केवलज्ञान में कैसे संभव है ? ये तीन समुद्धात की अपेक्षा संभव है और कहा भी है कि
गाथार्थ ( 9 ) - (दंडदुगे) दंडयुग्म में (ओरालं) औदारिक काययोग होता है। (कवाडजुगले) कपाट प्रतर युग्म में औदारिक काययोग होता है । (पयरसंवरणे) प्रतरसमुद्धात संकोचन में (मिस्सोरालियं भणियं ) औदारिक मिश्र काययोग होता है। (सेसतिए) प्रतर, लोक पूरण और लोक पूरण संकोचन इन तीनों में कार्मण काययोग जानना चाहिये। इस प्रकार ज्ञान मार्गणा पूर्ण हुई । "इगिदसयं" इस पद का सम्बन्ध उत्तरगाथा से जानना चाहिए।
कम्मइयदुवेगुब्बियमिस्सोरालूण
पढमजमजुयले । परिहारदुगे णवयं देसजमे चेव जहखादे ।। २७ ।। कार्मणद्विवैक्रियिकमिश्रौदारिकोनाः प्रथमयमयुगले ।
परिहारद्विके नवकं देशयमे चैव यथाख्याते ॥ इगिदसयमिति पूर्वगाथास्थितं पदं, एकादशयोगाः प्रथमसंयमयुगले सामायिकच्छेदोपस्थापनाद्वये भवन्ति । ते के ? कम्मइय इत्यादि कार्मणकाययोगवैक्रियिकतन्मिश्र काययोगद्वयौदारिकमिश्रकाययोगैरूना हीना अन्ये एकादशयोगाः । ते के ? अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिककाययोग आहारकद्वयमित्येकादशयोगाः । परिहारदुगे णवयं परिहारविशुद्विसूक्ष्मसांपरायसंयमद्वये नवयोगा भवन्ति । ते के ? अष्टौ मनोवचनयोगा एक औदारिककाययोग इति नव । देसजमे चेव च पुनः देशसंयमे एते पूर्वोक्ता मनवचनानामष्टौ एक औदारिकयोग एवं नवयोगा भवन्ति । जहखादे - इति, उत्तर गाथायां सम्बन्धोऽस्ति ॥ २७ ॥
(२७) अन्वयार्थ - (पढमजमयुगले ) प्रथम संयम युगल अर्थात् सामायिक संयम और छेदोपस्थापना संयम में (कम्मइयदुवेगुव्विय मिस्सेरालूण) कार्मण काययोग, वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्रकाययोग, और औदारिक मिश्र काययोग से रहित ( इगदसi) ग्यारह योग होते हैं। (परिहारदुगे) परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसांपराय संयम में (णवयं) नवयोग होते हैं । (देसजमे चेव) देश संयम में भी (चेव) नौ योग होते
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(२५)
हैं- (जहखादे) यथाख्यात संयम इस पद का सम्बन्ध आगे की गाथा से है।
भावार्थ- प्रथम संयम युगल में अर्थात् सामायिक संयम और छेदोपस्थापना संयम में कार्मण काययोग, वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्र काययोग, औदारिक मिश्न काययोग से रहित चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक काययोग, आहारककाययोग और आहारक मिश्र काययोग, इस प्रकार ग्यारह योग होते हैं। परिहार विशुद्धि और सूक्ष्म सांपराय संयम में नौ योग होते हैं-- चार मनोयोग, चार वचन योग एक औदारिक काययोग ये नौ योग जानना चाहिए। और पुनः देशसंयम में उपर्युक्त नौ योग अर्थात् चार मनोयोग, चार वचनयोग और एक औदारिक काययोग इस प्रकार नौ योग होते हैं। यथाख्यात इस पद का सम्बन्ध आगे की गाथा से है।
वेउवियदुगहारयदुगूण इगिदस असंजमे जोगा। तेरस आहारयदुगरहिया चक्षुम्मि मिस्सूणा।। २८।।
वैक्रियिकद्विकाहरकाद्विकोना एकादश असंयमे योगाः।.
त्रयोदश आहारकद्विकरहिताः चक्षुषि मिश्रोनाः।। जहखादे- यथाख्यातचारित्रे,
वेउव्वियेत्यादिवैक्रियिकवैक्रियकमिश्राहारकाहारकमिश्रोना एकादश भवन्ति। ते के? अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिकतन्मिश्रकार्मणकाययोगा एवं एकादशयोगा यथाख्यातसंयमे भवन्तीत्यर्थः। असंजमे जोगा तेरस आहारयदुगरहिया - असंयमे आहारकयोगद्वयरहिता अन्ये त्रयोदशयोगा भवन्ति । इति संयममार्गणा। चक्खुम्मि मिस्सूणा इति पदस्योत्तरगाथायां सम्बन्धः।। २८॥
२८ अन्वयार्थ- (जहखादे) यथाख्यात संयम में (वेउव्वयदुगहारयदुगूण) वैक्रियिक द्विक, आहारक द्विक से रहित (इगिदस) ग्यारह योग (असंजमे) असंयम में (आहारयदुगरहिया) आहारद्विक रहित (तेरस) तेरह (जोगा) योग होते हैं। (चक्खुम्मि मिस्सूणा) इस पद का सम्बन्ध आगे की गाथा से है।
भावार्थ- यथाख्यात संयम में वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्र काययोग, आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग से रहित ग्यारह योग पाये जाते हैं। वे इस प्रकार से हैं- चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग और कार्मण काययोग इस प्रकार ग्यारह योग यथाख्यात संयम में होते हैं। असंयम मार्गणा में आहारक काययोग, आहारक मिश्र काययोग इन दो योगों से
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(२६)
रहित शेष तेरह योग होते हैं। इस प्रकार संयम मार्गणा पूर्ण हुई। “चक्खुम्मि मिस्सूणा'' इस पद का सम्बन्ध आगे की गाथा से है।
बारस अचक्षुअवहिसु सब्बे सत्तेव केवलालोए। किण्हादितिए तेरस पणदह तेजादियचउक्के ।। २६॥
द्वादश अचक्षुरवध्योः सर्वे सप्तैव केवलालोके।
कृष्णादित्रिके त्रयोदश पंचदश तेज-आदिकचतुष्के॥ चक्खुम्मि मिस्सूणा इति चक्षुर्दर्शने मिश्रोना औदारिकमिश्रवैक्रियिकमिश्रकार्मणकायहीनाः, बारस- द्वादशयोगा भवन्ति। अचक्खुअवहिसु सव्वे- अचक्षुर्दशऽनविधिदर्शने च सर्वे पंचदशयोगाः स्युः। सत्तेव केवलालोएकेवलदर्शने सप्तैव केवलज्ञानोक्ता भवन्ति। इति दर्शनमार्गणा। किण्हादितिए तेरसकृष्णादित्रिके कृष्णनीलकापोतलेश्यासु आहारकद्वयं विना त्रयोदश योगा भवन्ति। पणदह तेजादियचउक्के- पीतपद्मशुक्लेश्यासु भव्ये च इति चतुष्के, पणदह- पंचदश योगा भवन्ति॥२६॥
(२६) अन्वयार्थ- (चक्खुम्मि) चक्षुदर्शन में (मिस्सूणा) औदारिक मिश्र, वैक्रियिक मिश्र और कार्मण काययोग से रहित (वारस) बारह योग होते हैं। (अचक्खु अवहिसु) अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन में (सव्वे) सभी पन्द्रह योग होते हैं। (केवलालोए) केवलदर्शन में (सत्तेव) सात योग अर्थात् सत्य, अनुभय मनोयोग, और सत्य, अनुभय वचनयोग, दोनों मिलाकर चार और औदारिक काय, औदारिक मिश्र काययोग, कार्मण काययोग इस प्रकार सब मिलाकर सात योग जानना चाहिए (किण्हादितिए) कृष्णादि तीन लेश्याओं में आहारक द्विक को छोड़कर (तेरस) तेरह योग (तेजादिय चउक्के) पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याओं तथा भव्य मार्गणा में (पणदह) पन्द्रह योग होते हैं।
तिदसाऽभव्वे सबै खाइयजुम्मे खु उवसमे सम्मे। सासणमिच्छे तेरस अतिमिस्साहारकम्मइया।। ३०॥
त्रयोदशाभव्ये सर्वे क्षायिकयुग्मे खलु उपशमे सम्यक्त्वे।
सासादनमिथ्यात्वयोः त्रयोदश अत्रिमिश्राहारकर्मणाः ।। अभव्यजीवे आहारद्वयं विना अन्ये त्रयोदश योगा भवन्ति। इति लेश्यामार्गणा- भव्यमार्गणाद्वयं। सव्वे खाइयजुम्मे खु खु स्फुटं, क्षायिकयुग्मे क्षायिकवेदकसम्यक्त्वे च सर्वे पंचदशयोगाः सन्ति। उवसमे सम्मे सासणमिच्छे तेरस
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(२७) इति, उपशमसम्यक्त्वे सासादनसम्यक्त्वे मिथ्यात्वसम्यक्त्वे आहारकाहारकमिश्रकाययोगद्वयं विना, तेरसत्रयोदश योगा भवन्ति। अतिमिस्साहारकम्मइयाइतिपदस्य उत्तरगाथायां सम्बन्धः।। ३०।।
(३०) अन्वयार्थ- (अभव्वे) अभव्य जीव में आहारक द्विक को छोड़कर (तिदसा) तेरह योग होते हैं। (खाइय जुम्मे) क्षायिक युग्म अर्थात् क्षायिक और वेदक सम्यकत्व में (सव्वे) सभी पन्द्रह योग होते हैं। (उवसमे सम्मे सासणमिच्छे) उपशम सम्यकत्व में, सासादन सम्यकत्व में और मिथ्यात्व में, आहारक काय योग, और आहारक मिश्र काययोग के बिना (तेरस) तेरह योग होते हैं। (अतिमिस्साहारकम्मइया) इस पद का सम्बन्ध आगे की गाथा से है।
मिस्से दस सण्णीए सवे चउरो असण्णिए जोगा। गयकम्मइयाहारे अणाहारे कम्मणो इक्को।। ३१॥ मिश्रे दश संज्ञिनि सर्वे चत्वारोऽसंज्ञिनि योगाः।
गतकार्मणा आहारके अनाहारके कार्मण एकः।। अतिमिस्साहारकम्मइया मिस्से दस इति क्रियाकारकसम्बन्धः। मिस्से- इति, मिश्रे सम्यक्त्वे दशयोगा भवन्ति। अतिमिस्सेति- त्रिमिश्राश्च औदारिकमिश्र-- वैक्रियिकमिश्राहारकमिश्रा आहारकश्च कार्मणकश्च त्रिमिश्राहारकार्मणका न विद्यन्ते येषु योगेषु ते तथोक्ताः कोऽर्थ ? मिश्रसम्यक्त्वे एते पंचवर्जा अन्ये अष्टौ मनोवचनयोगा
औदारिककाययोग-वैक्रियिककाययोगौ द्वौ एवं देश योगा भवन्तीत्यर्थः इति सम्यक्त्व मार्गणा। सण्णीए सव्वे - संज्ञिजीवे सर्वे योगा भवन्ति। चउरो असण्णिए जोगाअसंज्ञि जीवे औदारिककौदारिकमिश्रकार्मणकाययोगानुभयभाषा एते चत्वारो योगाः स्युःइति संज्ञिमार्गणा। गयकम्मइयाहारे- आहारके जीवे गतकार्मणाः कार्मणकाययोगवर्जा अन्ये चतुर्दशयोगाः सन्तिा अणाहारे कम्मणो इक्को- अनाहारके जीवे कार्मणकाख्य एको योगः । कदा यदा जीवो विग्रहगतिं करोति तदा संभवतीत्यर्थः। इति आहारकमार्गणा।। ३१ ।।
(३१) गाथार्थ- (अति मिस्साहारकम्मइया) त्रिमिश्र-आहारक और कार्मण काययोग इन पाँच योगों से रहित, (मिस्से) मिश्र सम्यकत्व में (दस) दस योग होते हैं। (सण्णीए सव्वे) संज्ञी जीवों में सभी योग होते हैं। (असण्णिए) असंज्ञी जीवों में (चउरो) चार (जोगा) योग होते हैं। (गयकम्मइयाहारे) आहारक जीव में कार्मण काययोग को छोड़कर चौदह योग होते हैं। (अणाहारे) अनाहारक में एक (कम्मणो) कार्मण काय योग होता है।
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(२८) भावार्थ- मिश्र सम्यक्त्व में त्रिमिश्र अर्थात् औदारिक मिश्र, वैक्रियिक मिश्र और आहारक मिश्र, आहारक काय योग और कार्मण काययोग को छोड़कर चार मनोयोग चार वचनयोग, औदारिक काययोग और वैक्रियिक काययोग इस प्रकार दस योग होते हैं। इस प्रकार सम्यक्त्व मार्गणा पूर्ण हुई। संज्ञीजीवों में सभी योग होते हैं। असंज्ञी जीवों में औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, कार्मण काययोग और अनुभय वचनयोग इस प्रकार चार योग होते हैं। इस प्रकार संज्ञी मार्गणा पूर्ण हुई। आहारक जीवों के कार्मण काययोग को छोड़कर शेष चौदह योग होते हैं। अनाहारक जीवों में एक कार्मण काययोग होता है। यह तब संभव होता है जब जीव विग्रहगति प्राप्त करता है। इस प्रकार आहारमार्गणा पूर्ण हुई। इस प्रकार मार्गणाओं में पन्द्रह योगों का वर्णन पूर्ण हुआ।
इति मार्गणासु पंचदशयोगाः समाप्ताः ।
अथ चतुर्दशमार्गणास्थानेषु द्वादशोपयोगाः कथ्यन्ते;
णव णव बारस णव गइचउक्कए तिण्णि इगिबितियक्खे। चउरक्खे उवओगा चउ बारस हंति पंचक्खे।। ३२॥
नव नव द्वादश नव गतिचतुष्के त्रय एकद्वित्र्यक्षे। .
चतुरक्षे उपयोगाश्चत्वारो द्वादश भवन्ति पंचाक्षे ।। णवेत्यादि। गतिचतुष्के, णव णव बारस णव- नव नव द्वादश नव। अत्र यथासंख्यालंकारः। तद्यथा। नरकगतौ नवोपयोगाः। ते के ? कुमति-कुश्रुत कवधि - सम्यज्ञानत्रीणि चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनानि त्रीणि, एवं उपयोगा नव तिर्यग्गतावपि एते एव उपयोगा नव भवन्ति। मनुष्यगतौ । द्वादशोपयोगा भवन्ति। ते के ? कुमतिकुश्रुत-क्ववधि -सुमति-सुश्रुताअवधि ... मनःपर्यय केवलज्ञानान्यष्टौ चक्षुरक्षुवधिकेवलदर्शनानि चत्वारि एवं द्वादशोपयोगा मनुष्यगतौ मनुष्याणां ज्ञातव्या इत्यर्थः । देवगतौ नव ये नारकगतावुक्तास्त एवोपयोगा नव भवन्ति। इति गतिमार्गणा। तिण्णिइगिवितियखे. एकेन्द्रिये द्वीन्द्रिये त्रीन्द्रिये च, तिण्णि इत्युपययोग त्रयं भवति। कुमति- कुश्रुतज्ञानद्वयं अचक्षुर्दर्शनमेकमिति त्रयं। चउरक्खे उवओगा चतुरिन्द्रिये उपयोगाश्चत्वारः। ते के? कुमति कुश्रुत ज्ञानपयोगौ द्वौ चक्षुरचक्षुर्दर्शनोपयोगौ द्वौ एवं चत्वारः। बारस हुंति पंचक्खे-पंचाक्षे पंचेन्द्रिये द्वादशोपयोगा भवन्ति मनुष्या मनुष्यपेक्षया। इतीन्द्रियमार्गणा।। ३२।।
चौदह मार्गणा स्थानों में वारह उपयोग कहते हैं
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(२६) गति एवं इन्द्रिय मार्गणा में उपयोग
अन्वयार्थ ३२.- (गइचउक्कए) चारों गतियों में क्रमशः (णव णवबारस णव) नौ, नौ, बारह एवं नौ उपयोग होते हैं। (इगिबितियक्खे) एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय के (तिण्णि)तीन उपयोग (चउरक्खे चउ उवओगा) चतुरिन्द्रिय के चार उपयोग और (पंचखे बारह) पंचेन्द्रियों के बारह उपयोग(हुति) होते हैं।
भावार्थ- गतिमार्गणा में नरकगति, तिर्यंच और देव गति में तीन कुज्ञानोपयोग (कुमति, कुश्रुत, कुवधि) और सम्यज्ञानोपयोग (मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान) तीन दर्शनोपयोग (चक्षु, अचक्षु एवं अवधि)। इस प्रकार नौ उपयोग होते हैं मनुष्यगति में तीन कुज्ञान, पांच सम्यग्ज्ञानोपयोग एवं चार दर्शनोपयोग इस प्रकार बारह उपयोग होते है। इन्द्रिय मार्गणा में- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीवों के कुमति ज्ञानोपयोग, कुश्रुतज्ञानोपयोग तथा अचक्षुदर्शनोपयोग इस प्रकार तीन उपयोग चतुरिन्द्रियों में एकेन्द्रियादि में कहे गये तीन और चक्षुदर्शनोपयोग इस प्रकार चार उपयोग तथा पंचेन्द्रियों में मनुष्यगति के समान बारह उपयोग होते हैं।
चार गाथाओं में काय, योग, वेद एवं कषाय मार्गणा में उपयोग कहते हैं
कुमई कुसुयं अचक्खू तिण्णि वि भूआउतेउवाउवणे। बारस तसेसु मणवचिसचाणुभएसु बारस वि।। ३३ ।।
कुमतिः कुश्रुतं अचक्षुः त्रयोऽपि भ्वप्तेजोवायुवनस्पतिषु।
द्वादश त्रसेषु मनोवचनसत्यानुभयेषु द्वादशापि।। कुमइ इत्यादि। कुमतिज्ञानं कुश्रुतज्ञानमचक्षुर्दर्शनमेते त्रयोपयोगाः, भू इति पृथिवीकाये अप्काये तेजःकाये वायुकाये वनस्पतिकाये च भवन्ति। बारस तसेसुइति, त्रसकायेषु द्वादशोपयोगा भवन्ति। इति कायमार्गणा। मणवचिसच्चाणुभएसु बारस वि- इति, सत्यमनोयोगेऽनुभयमनोयोगे सत्यवचनयोगेऽनुभयवचनयोगे एतेषु चतुर्षु योगेषु द्वादशैव उपयोगा भवन्ति ॥३३॥
___गाथार्थ ३३ - (भू आउतेउवाउवणे) पृथ्वी, जल, तेज, वायु, एवं वनस्पति कायिकों के (कुमई, कुसुयं, अचक्खू)कुमति, कुश्रुत और अचक्षु दर्शनोपयोग ये (तिण्णिवि) तीनो उपयोग तथा (तसेसु) त्रसों में (बारह) बारह उपयोग होते हैं ।(मणवचिसच्चाणुभएसु) सत्यमनोयोग, सत्यवचन योग, अनुभय मनोयोग, अनुभय वचन योग इन चार योगों में (बारस वि) बारह बारह उपयोग होते हैं।
___ दस केवलदुग वज्जिय जोगचउक्के दुदसय ओराले।
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(३०) केवलदुगमणपज्जवहीणा णव होति वेउव्ये।। ३४।।
दश केवलद्विकं वर्जयित्वा योगचतुष्के द्वादश औदारिके।
केवलद्विकमनःपर्ययहीना नव भवन्ति वैक्रियिके। दस केवलयुग वज्जिय जोगचउक्के-- इति, असत्यमनोयोगोभयमनोयोगासत्यवचन योगोभयवचनयोगा इति योगचतुष्के केवलद्विकवर्जिताः केवलज्ञानकेवलदर्शनद्वयरहिता अन्ये दशोपयोगाः सन्ति। दुदसय ओराले-- इति,
औदारिककाययोगे द्वादशोपयोगा विद्यन्ते। केवलदुगमणपज्जवहीणा णव होंति वेउव्वे- इति, वैक्रियिककाययोगे केवलज्ञान केवलदर्शनद्वयमनः पर्ययज्ञानहीना अन्ये नव उपयोगा भवन्ति॥३४॥
गाथार्थ ३४- (जोग चउक्के) चार योगों में अर्थात् असत्य मनोयोग, असत्य वचन योग, उभय मनोयोग और उभय वचनयोग में (केवलदुग वज्जिय) केवल ज्ञान एवं केवल दर्शन इन दो उपयोगों को छोड़कर (दस) दस उपयोग होते हैं। (वेउव्वे) वैक्रियक काय योग में (केवल दुगमणपज्जवहीना) केवल ज्ञान, केवल दर्शन और मनःपर्यय ज्ञानोपयोग को छोड़कर (नव) नौ उपयोग (होंति) होते है।
चक्खु विभंगूणा सगमिस्से आहारजुम्मए पढमं । दंसणतियणाणतियं कम्मे ओरालमिस्से य।। ३५॥
चक्षुर्विभंगोनाः सप्त मिश्रे आहारकयुग्मे प्रथमं।
दर्शनत्रिकाज्ञानत्रिकं कार्मणे औदारिकमिश्रे च।। चक्खुविभंगूणा सग मिस्से- इति, वैक्रियिकमिश्रकाययोगे चक्षुर्दर्शनविभंगज्ञानोनाः सप्त भवन्ति। के ते? कुमतिकुश्रुतसुमतिश्रुतावधिज्ञानानि पंच अचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनद्वयमिति सप्तोपयोगाः स्युः। आहारजुम्मए पढमं दसणतिय णाणतियं- आहारकयुग्मे च, पढमं णाणतियं प्रथमं ज्ञानत्रिकं प्रथमं दर्शनत्रिकं भवति। कोऽर्थः? मतिश्रुतावधि-ज्ञानोपयोगास्त्रयः, चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनोपयोगास्त्रयः, एवं षडुपयोगा आहारकयुग्मे भवन्तीति स्पष्टार्थः। कम्मे ओरालमिस्से य- इति, पदस्य व्याख्यानं उत्तरगाथायां ज्ञेयं ।। ३५।।
अन्वयार्थ ३५-- (मिस्से) वैक्रियकमिश्र काययोग में केवलज्ञानोपयोग, केवल दर्शनोपयोग, मनःपर्ययज्ञानोपयोग और (चक्खुविभंगूणा) चक्षुदर्शन तथा विभंगा वधि ज्ञानोपयोग को छोड़कर (सग) सात उपयोग(आहार जुम्मए) आहारक काययोग और आहारक मिश्र काय योग में (दंसणतिय णाण जुम्मए) तीन दर्शनोपयोग और
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(३१)
तीन ज्ञानोपयोग इस प्रकार छह उपयोग होते हैं । 'कम्मे ओराल मिस्सेय " इस पद का अर्थ आगे की गाथा के साथ जोड़ना चाहिए ।
भावार्थ- वैक्रियक मिश्र काय योग में चक्षुदर्शनोपयोग, केवलदर्शनोपयोग, विभंगावधिज्ञानोपयोग मन:पर्यय ज्ञानोपयोग और केवल ज्ञानोपयोग को छोड़कर शेष सात उपयोग होते हैं । आहारक काययोग एवं आहारक- मिश्रकाय योग में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञानोपयोग, चक्षु अचक्षु और अवधि दर्शनोपयोग इस प्रकार छह उपयोग होते हैं । "कम्मे ओराल मिस्सेय " इस पद का सम्बन्ध आगे की गाथा से है।
णव
वधूसंढे |
वेभंगचक्खुदंसणमणपज्जयहीण मणकेवलदुगहीणा णव दस पुंसे कसाएसु ।। ३६ ।। विभंगचक्षुर्दर्शनमनः पर्ययहीना नव वधूषंढयोः ।
मनः केवलद्विकहीना नव दश पुंसि कषायेषु ।।
कम्मे ओरालमिस्से य- कार्मणकाययोगे औदारिकमिश्रकाययोगे च, वेभंगचक्खुदंसणमणपज्जयहीण णव- विभंगज्ञानचक्षुर्दर्शनमनः पर्ययज्ञानरहिता अन्ये नवोपयोगाः सन्ति । इति योगमार्गणा । वधूसंढे स्त्रीवेदे नपुंसकवेदे च, मणकेवलदुगहीणा णव - मनः पर्ययकेवलज्ञानकेवलदर्शनैरोभिस्त्रिभिर्हीींना इतरे नवोपयोगाः स्यु । दस पुंसे - इति, पुंवेदे केवलज्ञानकेवलदर्शनाभ्यां विना अन्ये दश उपयोगा भवन्ति । इति वेदमार्गणा । कसासु- क्रोधमानमायालोभेषु केवलज्ञानदर्शनवर्जा दश एव भवन्ति । इति कषायमार्गणा ।। ३६ ।।
गाथार्थ ३६ (कम्मे ओराल मिस्से) कार्मणकाययोग और औदारिक मिश्र काय योग में (वेभंगचक्खुदंसणमणपज्जयहीण ) विभंगावधि ज्ञानोपयोग, चक्षुदर्शनोपयोग तथा मन:पर्ययज्ञानोपयोग से रहित (णव) नौ उपयोग होते है। ( वधूसंढे ) स्त्रीवेद और नपुंसक वेद में ( मणकेवलदुगहीण ) मनः पर्ययज्ञानोपयोग, केवलज्ञानोपयोग और केवल दर्शनोपयोग से रहित नौ उपयोग होते हैं (पुंसे) पुरुष वेद में तथा (कसासु) कषायों में (दस) उपयोग होते हैं ।
भावार्थ- कार्मण काय योग और औदारिक मिश्र काय योग में चक्षुदर्शन विभंगावधि तथा मनःपर्यय ज्ञानोपयोग को छोड़कर नौ उपयोग होते हैं, वे इस प्रकार से हैं- कुमति, कुश्रुत ज्ञानोपयोग, मति, श्रुत, अवधि और केवल ज्ञानोपयोग । वेद मार्गणा में स्त्रीवेद और नपुंसक वेद में मनः पर्यय ज्ञानोपयोग, केवल ज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग को छोड़कर नौ उपयोग होते हैं वे इस प्रकार से हैं तीन
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(३२) कुज्ञानोपयोग, मति, श्रुत अवधि ज्ञानोपयोग चक्षु, अचक्षु और अवधि दर्शनोपयोग तथा पुरुषवेद में और क्रोध, मान, माया लोभ कषाय में केवल ज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग को छोड़कर दस उपयोग होते हैं।
ज्ञान मार्गणा में उपयोग
अण्णाणतिए ताणि य ति चक्खूजुम्मं च पंच सग चउसु। चउ तिण्णि णाण दंसण पंचमणाणंतिमा दुण्णि ।। ३७।। । अज्ञानत्रिके तान्येव त्रीणि चक्षुर्युग्मं च पंच सप्त चतुषु।
चत्वारि त्रीणि ज्ञानानि दर्शनानि पंचमज्ञानेऽन्तिमौ द्वौ।। अण्णाणेत्यादि। अज्ञानत्रिके कुमतिकुश्रुतक्काधिज्ञानत्रिके, ताणि य ति-- तानि अज्ञानानि त्रीणि। चक्खूजुम्मं च पंच- च पुनः चक्षुर्युग्मं एवं पंच। कुमतिज्ञाने कुश्रुतज्ञाने कवधिज्ञाने च कुमतिकुश्रुतविभंगज्ञानानि त्रीणि चक्षुरचक्षुदर्शने द्वे एते उपयोगाः पंच स्युः। सग चउसु चउ तिण्णि णाण दंसण- इति, चतुर्षु मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानेषु सप्तोपयोगा भवन्ति। ते के ? चत्वारि ज्ञानानि त्रीणि दर्शनानि एवं सप्तपयोगाः स्युः। पंचमणाणंतिमा दुण्णि- इति, पंचमे केवलज्ञाने अन्तिमौ केवलज्ञानदर्शनोपयोगौ द्वौ भवतः। इति ज्ञानमार्गणा।। ३७।।
गाथार्थ-३७ (अण्णाणतिए) तीन कुज्ञानों में (ताणि य) उतने ही अर्थात् तीन अज्ञान (चक्खूजुम्म) चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनापयोग ये (पंच) पांच उपयोग (चउसु) चार ज्ञानों में अर्थात, मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ज्ञान में (चउणाण) चार ज्ञानोपयोग(च) और (तिण्णिदंसण) तीन दर्शनोपयोग इस प्रकार (सग) सात उपयोग तथा (पंचमणाणंतिमा) पंचम ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान में अन्तिम (दुण्णि) दो उपयोग होते हैं।
____ भावार्थ- ज्ञान मार्गणा में कुमति, कुश्रुत और विभंगावधि ज्ञान में कुमति, कुश्रुत, विभंगावधिज्ञान, चक्षु, अचक्षुदर्शन उपयोग इस प्रकार से पांच उपयोग होते हैं। मति ज्ञान, श्रुत ज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान में मति श्रुत, अवधि मनःपर्यय ज्ञानोपयोग तथा चक्षु अचक्षु, अवधि दर्शनोपयोग इस प्रकार ये सात उपयोग होते हैं। केवल ज्ञान मे केवलज्ञानोपयोग तथा केवलदर्शनोपयोग ये दो उपयोग होते हैं।
सामाइयजुम्मे तह सुहमे सग छप्पि तुरियणाणूणा। परिहारे देसजई छब्भणिय असंजमे णविति।। ३८।।
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सामायिकयुग्मे तथा सूक्ष्मे सप्त षडपि तुरीयज्ञानोनाः ।
परिहारे देशयतौ षट् भणिता असंयमे नवेति।। सामाइयजुम्मे तह सुहमे सग- सामायिकयुग्मे सामायिकच्छेदोपस्थापनासंयमद्विके तथा सुहमे-- सूक्ष्मसाम्परायसंयमे सप्तपयोगा भवन्ति। ते के? मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानोपयोगाश्चत्वारः चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनोपयोगास्त्रय एवं सप्त। छप्पि तुरियणाणूणा परिहारे इति, परिहारविशुद्धिसंयमे षडप्युपयोगास्तुरीयमनःपर्ययज्ञानोना मतिज्ञानादित्रयं चक्षुर्दर्शनादित्रयं चेति षट् संभवन्ति। देसजई - दशसंयमे संयमासंयमे, छब्भीणय - षडुपयोगा ये परिहारसंयमोक्तास्त एवोपयोगा भवन्ति। असंजमे णविति-- असंयमे नवोपयोगाः। ते के ? कुमत्यादित्रयं सुमत्यादित्रयं एवं षट् चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनोपयोगास्त्रय एवं नव भवन्ति।। ३८॥
____ अन्वयार्थ ३८ - (सामाइयजुम्मे) सामायिक छेदोपस्थापना संयम में (तह) तथा (सुहमे) सूक्ष्मसाम्पराय संयम में (सग) सात (परिहारे) परिहारविशुद्धि संयम में (तुरियणाणूणा) चौथे ज्ञान अर्थात् मनःपर्यय ज्ञानोपयोग से रहित (छप्पि) छह उपयोग (देसजई) देशसंयम में (छप्) छह उपयोग (असंजमे) असंयम में (णविति) नौ उपयोग (भणिय) कहे गये है।
भावार्थ- संयम मार्गणा में सामायिक, छेदोपस्थापना तथा सूक्ष्मसाम्पराय संयम में तीन कुज्ञानोपयोग, केवलज्ञानोपयोग और केवल दर्शनोपयोग को छोड़कर सात उपयोग होते हैं अर्थात् मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञानोपयोग चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधि दर्शनोपयोग ये सात उपयोग होते हैं। परिहार विशुद्धि संयम और देश संयम में मनःपर्यय ज्ञानोपयोग को छोड़कर उपर्युक्त शेष छह उपयोग होते हैं । असंयम में मनःपर्यय ज्ञानोपयोग केवलज्ञानोपयोग और केवल दर्शनोपयोग को छोड़कर शेष नौ उपयोग होते हैं।
पणणाण दंसणचउ जहखादे चक्खुदंसणजुगेसु। गयकेवलदुग दंसणगदणाणुत्ता हि अवहिदुगे॥ ३६।। पंचज्ञानानि दर्शनचतुष्कं यथाख्याते चक्षुर्दर्शनयुग्मेषु।
गतकेवलद्विकं दर्शनगतज्ञानोक्ता हि अवधिद्विके।। पणणाण दंसणचउ जहखादे यथाख्यातसंयमे मतिज्ञानदिपंचज्ञानोपयोगाः, चक्षुरादिदर्शनोपयोगाश्चत्वार एवमुपयोगा नव भवन्ति। इति संयममार्गणा। चक्खुदंसणजुगेसु चक्षुरचक्षुदर्शनद्वये, गयकेवलदुग- केवलज्ञानदर्शनद्वयरहिता
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(३४)
अन्ये दशोपयोगाः स्युः । दंसणेत्यादि, अवहिदुगे अवधिदर्शने केवलदर्शने च दर्शनाश्रितज्ञानोक्ता अवधिकेवलज्ञानोक्ताः । तत् कथं ? येऽवधिज्ञाने कथितास्ते सप्त मतिश्रुतावधिमनः पर्ययज्ञानोपयोगाश्चत्वारश्चक्षुरचक्षुर वधिदर्शनोपयोगास्त्रयोऽवधिदर्शने भवन्तीत्यर्थः । यौ केवलज्ञाने केवलज्ञानदर्शनोपयोगौ प्रोक्तौ तौ केवलदर्शने भवतः। इति दर्शनमार्गणा ।। ३६॥
अन्वयार्थ ३६ - ( जहखादे) यथाख्यात संयम में (पणणाणदंसणचउ ) पांच ज्ञान चार दर्शन ये नौ उपयोग होते हैं (चक्खुदंसणजुगेसु) चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन में (गयकेवलदुग) केवलज्ञान और केवलदर्शनोपयोग को छोड़कर शेष दस उपयोग होते हैं। (अवहिदुगेदंसण) अवधिदर्शन एवं केवलदर्शन में ( गदणाणुत्ता) अवधि ज्ञान और केवलज्ञान में कहे हुए उपयोगो के समान उपयोग जानना चाहिए।
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भावार्थ- यथाख्यात संयम में मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय एवं केवलज्ञान ये पांच ज्ञानोपयोग चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवलदर्शनोपयोग ये चार दर्शनोपयोग इस प्रकार नौ उपयोग होते हैं । दर्शन मार्गणा में चक्षु दर्शन और अचक्षु दर्शन में केवल ज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग को छोड़कर शेष दस उपयोग होते है । अवधिदर्शन में मति, श्रुत, अवधि एवं मनः पर्यय ज्ञानोपयोग तथा चक्षु, अचक्षु और अवधि दर्शनोपयोग इस प्रकार सात उपयोग होते हैं। तथा केवल दर्शनोपयोग में केवलज्ञानोपयोग और केवल दर्शनोपयोग ये दो उपयोग होते हैं
लेश्या, भव्यत्व, संज्ञी और आहार मार्गणा को तीन गाथाओं द्वारा कहते हैंमणपज्जवकेवलदुगहीणुवओगा हवंति किण्हतिए । व दस तेजाजुयले भव्वे वि य दुदस सुक्काए ।। ४० ।। मनःपर्ययकेवलद्विकहीनोपयोगा भवन्ति कृष्णत्रिके ।
नव दश तेजोयुगले भव्येऽपि च द्वादश शुक्लायां ॥ मण इत्यादि । किण्हतिए- कृष्णनीलकापोतलेश्यात्रिके मनःपर्यय केवलज्ञानकेवलदर्शनैस्त्रिभिर्हीना अन्ये नवोपयोगा भवेयुः । दस तेजाजुयले --- पीतपद्यलेश्ययोर्द्वयोः केवलज्ञानदर्शनवर्जा अन्ये दशोपयोगाः सन्ति । भव्वे वि यदुदस सुक्काए --- शुक्ललेश्यायां द्वादशोपयोगाः स्युः । इति लेश्यामार्गणा । भव्यजीवेऽपि च द्वादशोपयोगाः सन्ति ॥ ४० ॥
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अन्वयार्थ ४०- ( किण्हतिए) कृष्ण आदि तीन लेश्याओं में (मणपज्जवकेवलदुगहीणुवओगा) मनःपर्यय ज्ञान, केवलज्ञान और केवलदर्शनोपयोग को छोड़कर (णव) नौ उपयोग होते है (तेजाजुयले) पीत और पद्म लेश्या में (दस) दस
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(३५) उपयोग होते हैं (सुक्काए) शुक्ल लेश्या में (भव्वे वि य) और भव्य जीवों के भी (दुदस) बारह उपयोग होते हैं।
भावार्थ- कृष्ण, नील और कापोत लेश्या में मनःपर्यय ज्ञानोपयोग, केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग को छोड़कर नौ उपयोग होते हैं पीत और पद्म लेश्या में केवलज्ञानोपयोग तथा केवलदर्शनोपयोग को छोड़कर शेष बचे हुए दस उपयोग होते हैं शुक्ल लेश्या में बारह उपयोग होते हैं। भव्य मार्गणा में भव्य जीवों के बारह उपयोग होते हैं।
पंच असुहे अभब्वे खाइयतिदए य णव सग छेय। मिस्सा मिस्से सासण मिच्छे छप्पंच पणयं च।। ४१।। ___पंच अशुभा अभव्ये क्षायिकत्रिके च नव सप्त षडेव।
मिश्रा मिश्रे सासने मिथ्यात्वं षट् पंच पंचकं च।। पंचेत्यादि। अभव्यजीवे कुमतिकुश्रुतविभंगज्ञानं चक्षुरक्षुर्दर्शनोपयोगाः पंच अशुभा भवन्ति । इति भव्यमार्गणा। खाइयतिदए णव सग छेय-- क्षायिकत्रिके नव सप्त षडेव। अत्र यथासंख्यालंकारः। क्षायिकसम्यक्त्वे कुज्ञानत्रयवर्जा अन्ये नवोपयोगा भवन्ति। वेदकसम्यक्त्वे कुज्ञानत्रयकेवलज्ञानदर्शनद्वयरहिता अपरे सप्तोपयोगाः सन्ति। उपशमसम्यक्त्वे सुमत्यादित्रयचक्षुरादित्रय एवं षडुपयोगाः स्युः। मिस्सा मिस्से मिश्रे सम्यक्त्वे मिश्राः षट् भवन्ति। ते के ? मतिश्रुतावधिज्ञानोपयोगास्त्रयो मिश्ररूपाः। मिश्रा इति कोऽर्थः? किंचित्किंचित्कुज्ञानं किंचित्किंचित्सुज्ञानं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनोपयोगास्त्रय एवं षडुपयोगाः। सासण- इति, सासादनसम्यक्त्वे कुज्ञानत्रयं चक्षुरचक्षुर्दर्शनद्वयं एवं पंचोपयोगाः स्युः। मिच्छे-- मिथ्यात्वसम्यक्त्वे सासादनोक्तानामुपयोगानां पंचकं भवति। इस सम्यक्त्वमार्गणा।। ४१॥
गाथार्थ ४१- (अभव्वे) अभव्य जीवों के (असुहे)अशुभ (पंच) पांच उपयोग होते है (खाइयतिदए) क्षायिक तीन अर्थात क्षायिक वेदक एवं उपशम सम्यक्त्व में क्रमशः से (णव सग छेय) नौ, सात और छह उपयोग होते हैं (मिस्से) मिश्र सम्यक्त्व में (मिस्सा) मिश्र रूप (छप्) छह उपयोग (सासण) सासादन सम्यक्त्व में (पंच) पांच उपयोग (च) और (मिच्छे) मिथ्यात्व में (पणयं) पांच उपयोग होते हैं।
भावार्थ- अभव्य जीवों के कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनोपयोग इस प्रकार में पांच अशुभ उपयोग होते हैं सम्यक्त्व मार्गणा में क्षायिक सम्यक्त्व में तीन कुज्ञानोपयोगों को छोड़कर शेष नौ उपयोग होते हैं वेदक सम्यक्त्व में तीन कुज्ञानोपयोग, केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग को छोड़कर
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शेष सात उपयोग होते हैं। मिश्र सम्यक्त्व में मति, श्रुत और अवधि ज्ञानोपयोग ये तीन उपयोग सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व रूप होते हैं अतः तीन ज्ञानोपयोग और चक्षु, अचक्षु तथा अवधि दर्शनोपयोग मिलाकर छह उपयोग होते हैं। सासादन सम्यक्त्व में तीन कुज्ञानोपयोग चक्षु और अचक्षु दर्शनोपयोग इस प्रकार पाँच उपयोग होते हैं। इसी प्रकार मिथ्यात्व में भी सासादन सम्यक्त्व के समान पाँच उपयोग होते हैं।
दस सण्णि असण्णीए चदु पढमाहारए य बारसयं । मणचक्षुविभंगूणा णव अणाहारेय उवओगा॥ ४२ ।।
दश संज्ञिनि असंज्ञिनि चत्वारः प्रथमे आहारके च द्वादशकं।
मनुश्चक्षुर्विभंगोना नव अनाहारे च उपयोगाः।। दस सण्णि इति। केवलज्ञानदर्शनद्वयरहिता अपरे देशोपयोगा संज्ञिजीवे भवन्ति। असण्णीए चदु पढमा- असंज्ञिजीवे प्रथमाश्चत्वार उपयोगा भवन्ति । ते के ? कुमतिद्वयं चक्षुरचक्षुर्दर्शनद्वयमेवं चत्वारः। इति संज्ञिमार्गणा। आहारए बारसयं आहारकजीवे उपयोगानां द्वादशकं भवेत्। मणचक्खुविभंगूणा णव अणाहारे उवओगा- अनाहारकजीवे मनःपर्ययज्ञानचक्षुर्दर्शनविभंगज्ञानैरूना रहिता अन्ये नवोपयोगा भवन्ति।। ४२।।
अन्वयार्थ ४२- (सण्णि) संज्ञीजीवों के (दस) दस उपयोग होते हैं (असण्णीए) असंज्ञी जीवों के (चदुपढमा) प्रथम चार उपयोग होते हैं (आहारए बारसयं) आहारक जीवों के बारह उपयोग होते हैं (य) और (अणाहारेय) अनाहारक जीवों के(मणचक्खुविभंगूणा) मनः पर्यय ज्ञानोपयोग चक्षुदर्शन और विभंगावधि ज्ञानोपयोग को छोड़कर (णव उवओगा) नौ उपयोग होते हैं।
___ भावार्थ- संज्ञी मार्गणा में संज्ञी जीवों के केवलज्ञानोपयोग एवं केवलदर्शनोपयोग को छोड़कर शेष दस उपयोग होते है असंज्ञी जीवों के चक्षु , अचक्षु दर्शनोपयोग कुमति एवं कुश्रुत ज्ञानोपयोग इस प्रकार ये चार उपयोग होते है।आहारक जीवों के पूरे बारह ही उपयोग होते है तथा अनाहारक जीवों के मनः पर्ययज्ञानोपयोग विभंगावधि ज्ञानोपयोग और चक्षुदर्शनोपयोग को छोड़कर शेष नौ उपयोग होते हैं।
. इति चतुर्दशमार्गणासु द्वादशोपयोगा निरूपिताः। इस प्रकार चौदह मार्गणाओं में बारह उपयोग कहे। .. अथ चतुर्दशजीवसमासेषु पंचदशयोगाः कथ्यन्ते;
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(३७) अब चौदह जीव समासों में पन्द्रह योग कहते हैं
णवसु चउक्के इक्के जोगा इगि दो हवंति बारसया। तब्भवगईसु एदे भवंतरगईसु कम्मइयो। ४३।। सत्तसु पुण्णेसु हवे ओरालिय मिस्सयं अपुण्णेसु। इगिइगिजोग विहीणा जीवसमासेसु ते णेया।। ४४।।
नवसु चतुष्के एकस्मिन् योगा एको द्वौ भवन्ति द्वादश। तद्भवगतिषु एते भवान्तर्गतिषु कार्मणं।। सप्तसु पूर्णेषु भवेत् औदारिकं मिश्रकं अपूर्णेषु।
एकैकयोगः द्विहीनाः जीवसमासेषु ते ज्ञेयाः।। गाथाद्वयेन सम्बन्धः। जीवसमासेसु ते णेया- जीवसमासेषु ते योगा ज्ञेया ज्ञातव्या भवन्ति। कथमित्याह- णवसु चउक्के इक्के जोगा इगि दो हवंति बारसया-- यथासंख्येन व्याख्येयं, नवसु जीवसमासस्थानेषु इगि- एको योगो ज्ञेयः। चउक्के-- चतुर्घजीव समासस्थानेषु दो- द्वौ योगौ ज्ञातव्यौ। इक्के- एकस्मिन् जीवसमासस्थाने, बारसया-- द्वादशयोगा भवन्ति । नवसु जीवसमासेषु एको योग इत्युक्तं तर्हि नवसमासाः के, तत्र एको योगा क इति चेदुच्यते- एकेन्द्रिय सूक्ष्मापर्याप्ते औदारिकमिश्रकाययोग एकः स्यात्। एकेन्द्रियसूक्ष्मपर्याप्ते औदारिककाययोग एको भवति। एकेन्द्रियबादरापर्याप्ते औदारिकमिश्र काययोगोऽस्ति। एकेन्द्रियबादरपर्याप्त औदारिककाययोग एको वर्तते। द्वीन्द्रियापर्याप्तकाले औदारिकमिश्रकाययोग एकः संभवति। त्रीन्द्रियापर्याप्तकाले औदारिकमिश्रकाययोग एकः स्यात्। चतुरिन्द्रिया. पर्याप्तकाले औदारिकमिश्रकाययोग एकः प्रवर्तते। पंचेन्द्रियासंज्ञिजीवापर्याप्ते
औदारिकमिश्रकाययोग एकः स्यात्। पंचेन्द्रियसंज्ञिजीवापर्याप्तकाले औदारिकमिश्रकाययोग एको भवति। एवं नवसु जीवसमासस्थानेषु योग एको भवति। एवं चतुर्यु जीवसमासेषु द्वौ योगौ भवत इति प्रोक्तं तर्हि चत्वारो जीवसमासाः के तत्र द्वौ योगो को इत्याशंकायामाह-द्वीन्द्रियपर्याप्ते औदारिककाययोगानुभयवचनयोगौ भवतः। त्रीन्द्रियपर्याप्तकाले औदारिककाययोगानुभयवचनयोगौ स्तः। चतुरिन्द्रियपर्याप्ते औदारिककाययोगानुभयवचनयोगौ वर्तते। पंचेन्द्रियासंज्ञिपर्याप्ते औदारिककायोगानुभयवचनयोगौ संभवतः। इति चतुर्षु जीवसमासेषु द्वौ द्वौ योगौ प्ररूपितौ। एकस्मिन् जीवसमासे द्वादशयोगा भवन्तीति पूर्वगाथायां सूचितं तर्हि एको जीवसमासः .कः तत्र द्वादशयोगाः के इत्याह पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तजीवसमासे अष्टौ मनोवचनयोगा
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(३८)
औदारिककाययोग वैक्रियककाययोगाहारक काययोगाहारकमिश्रकाययोगाश्चत्वारः, एवं द्वादशयोगाः पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तकाले संभवन्तीत्यर्थः । इत्येकस्मिन् जीवसमासे द्वादशयोगा निरूपिताः । तब्भवगईसु एदे इति तेषामेकेन्द्रियसूक्ष्मापर्याप्तादीनां जीवानां भवप्राप्तेषु, ऐदे- इति एते एको द्वौ द्वादश योगा भवन्ति । भवंतरगईसु कम्मइओ - कार्मणको योगः स भवान्तरगतिषु प्रकृताद्भवादन्यो भवो भवान्तरं तत्र गतयो गमनानि भवान्तरगतिषु भवान्तरगमनेषु कार्मणकाययोगो भवतीत्यर्थः । सत्तसु पुण्णेसु हवे ओरालिय-- सप्तसु जीवसमासेषु पर्याप्तेषु औदारिककाययोगो भवति । मिस्सयं अपुण्णेसु इति, अपर्याप्तेषु सप्तसु एकेन्द्रियसूक्ष्मबादरद्वित्रिचतुः पंचेद्रियसंज्ञ्यसंज्ञिजीवेषु अपर्याप्तकालेषु सप्तथानेषु, मिस्सयं औदारिकमिश्रकायो भवेत् । इगि इगि जोग-- इति, द्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियपंचेन्द्रियासंज्ञिपर्याप्तेषु चतुःस्थानेषु एकैकस्य योगस्य पुनरप्यन्यस्यैकस्य योगस्य संयोग क्रियते एवं द्वयं स्यात् । कोऽर्थ ? द्वीन्द्रियादिपर्याप्तेषु चतुःस्थानेषु औदारिककाययोगानुभयवचनयोगौ द्वौ भवत इत्यर्थः । विहीणा - पंचेन्द्रियपर्याप्तेषु द्वादशयोगा भवन्तीति कथितं तत्कथं योगास्तु पंचदश वर्तन्ते ? ते योगाः, विहीणा - द्वाभ्यामौदारिकमिश्रकायवैक्रियिकमिश्रकायाभ्यां हीनाः क्रियन्ते । भवांतरगईसु कम्मइओ इति वचनात् कार्मणकायेन विना अन्ये द्वादशयोगाः पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तकेषु भवन्तीत्यर्थः ।। ४३ ।। ४४॥
अन्वयार्थ ४३.४४ ( तब्भवगईसु एदे ) उस भव अर्थात् वर्तमान भव को प्राप्त होने पर (जीव समासेसु) जीवसमासों में (ते) वे योग (या) जानना चाहिये । (णवसु) नव (चउक्के) चार (इक्के) और एक जीव समास स्थान में यथा क्रम से (इगि) एक (दो) दो (बारसया) बारह (जोगा ) योग (हवंति) होते हैं । तथा (भंवतरगईसु) एक भव से दूसरे भव में जाने पर अर्थात् विग्रह गति में (कम्मइओ) कार्मण काय योग होता है। ( सत्तसु पुण्णेसु) सात पर्याप्त जीव समासों में (ओरालिय) औदारिक काय योग ( अपुण्णेसु) अपर्याप्त जीव समासों मे (मिस्सयं ) औदारिक मिश्र काय योग (हवे ) होता है । ( इगिइगि जोंग ) द्वीन्द्रिय आदि जीवों के एक- एक और संज्ञी पंचेन्द्रिय (जीवसमासेसु) जीव समासों में (विहीणा) दो योग कम (या) जानना चाहिये ।
भावार्थ- वर्तमान भव को प्राप्त एकेन्द्रिय सूक्ष्म अपर्याप्त में एक औदारिक मिश्र काय योग होता है एकेन्द्रिय सूक्ष्म पर्याप्त में एक औदारिक काय योग है। एकेन्द्रिय बादर अपर्याप्त में औदारिक मिश्रकाय योग, एकेन्द्रिय बादर पर्याप्त में औदारिक काय योग, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, असंज्ञी, अपर्याप्त पंचेन्द्रिय संज्ञि अपर्याप्त जीवों के एक औदारिक मिश्र काय योग होता है। इस प्रकार
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नव जीव समास स्थानों में एक-एक योग होता है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त इन चार जीवों समासों में औदारिक काययोग और अनुभय वचन ये दो योग होते हैं। पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्त जीव समास में चार मन, चार वचन योग, औदारिक काय योग, वैक्रियक काय योग, आहारक काय योग और आहारक मिश्र काय योग इस प्रकार बारह योग होते हैं। एक भव से दूसरे भव में जाने पर अर्थात् विग्रह गति में एक कार्मण काय योग होता है। एकेन्द्रिय सूक्ष्म बादर द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय असंज्ञी एवं पंचेन्द्रिय संज्ञी इन सातों अपर्याप्त जीव समासों में औदारिक मिश्र काय योग तथा पर्याप्त जीव समासों में औदारिक काय योग होता है।
इति जीवसमासेषु योगा उपनयस्ताः । इस प्रकार जीव समासों में योग कहे गये हैं।
अथ चतुर्दशजीवसमासेषु यथासंभवमुपयोगा लिख्यन्ते;-- चौदह जीव समासों में यथासंभव उपयोग लिखते हैं।
कुमइदुगा अचक्खु तिय दससु दुगे चदु हवंति चक्खुजुदा। सण्णिअपुण्णे पुण्णे सग दस जीवेसु उवओगा।। ४५।।
कुमतिद्विको अचक्षुः त्रयः दशसु द्विके चत्वारो भवन्ति।
चक्षुर्युताः संश्यपर्याप्ते पर्याप्ते सप्त दश जीवेषु उपयोगाः।। कुमइदुगा अचक्खु तिय दससु- इति, दशसु जीवसमासेषु कुमतिकुश्रुतज्ञानोपयोगौ द्वौ अचक्षुर्दर्शनोपयोगश्चैक एते त्रय उपयोगा भवन्ति। ते दशजीवसमासाः के येष्वेते त्रय उपयोगा जायन्ते तदाह- एकेन्द्रियसूक्ष्मा पर्याप्तःएकेन्द्रियसूक्ष्मपर्याप्तः- एकेन्द्रियबादरपर्याप्तः, द्वीन्द्रियापर्याप्तः द्वीन्द्रियपर्याप्तः, त्रीन्द्रियपर्याप्तः, त्रीन्द्रियापर्याप्तः, चतुरिन्द्रियापर्याप्तः, पंचेन्द्रियासंज्ञिजीवापर्याप्तः। एतेषु दशसु जीवसमासेषु कुमतिकुश्रुतज्ञानोपयोगी द्वौ अचक्षुर्दर्शनोपयोगश्चैते त्रयो भवन्तीति स्पष्टार्थः। दुगे चदु हवंति चक्खु जुदा- इति, द्वयोर्जीवसमासयोः चतुरिन्द्रियपर्याप्तपंचेन्द्रिया-संज्ञिजीवपर्याप्तयोश्चत्वार उपयोगा भवन्ति। ते के ? पूर्वोक्ताः कुमतिकुश्रुताचक्षुर्दर्शनोपयोगास्त्रयः, चक्खु जुदा- इति, चक्षुदर्शनोपयोगसहिता एवं चत्वार उपयोगाः स्युः। सण्णि अपुण्णे पुण्णे सग दस अत्र यथासंख्यालंकारः, पंचेन्द्रियसंज्यपर्याप्ते सग - इति, सप्तोपयोगा भवन्ति। ते के ?
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(४०)
कुमतिश्रुतसुमतिश्रुतावधिज्ञानोपयोगाः पंच अचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनोपयोगौ द्वौ एवं सप्त। पुण्णे दस- पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्ते उपयोगा दश भवन्ति। के ते दश? केवलज्ञानदर्शनवा अन्ये दशोपयोगाः स्युः। जीवेसु उवओगा- जीवसमासेषु • द्वादशोपयोगा यथाप्राप्ति प्ररूपिताः।। ४५॥
अन्वयार्थ ४५ - (दससु) दस (जीवेसु) जीव समासों में (कुमइदुगा) कुमति, कुश्रुत ज्ञानोपयोग (अचक्खु) अचक्षु दर्शनोपयोग ये (तिय) तीन उपयोग होते हैं। (दुगे) दोजीव समासों में (चक्खुजुदा) चक्षुदर्शनोपयोग सहित (चदु) चार उपयोग होते हैं। (सण्णिअपुण्णे) संज्ञी अपर्याप्तक जीवों में (सग) सात उपयोग तथा (पुण्णे) संज्ञी पर्याप्त जीव समास में (दस) दस उपयोग (हवंति) होते हैं।
भावार्थ- एकेन्द्रिय सूक्ष्म के पर्याप्त, अपर्याप्त एकेन्द्रिय बादर के पर्याप्त अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रियों के पर्याप्त, अपर्याप्त, चतुरिन्द्रय और अंसज्ञी पंचेन्द्रिय के अपर्याप्त इन दस जीव समासों में कुमति ज्ञानोपयोग, कुश्रुत ज्ञानोपयोग तथा अचक्षु दर्शनोपयोग ये तीन उपयोग होते हैं। चतुरिन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव समासों में कुमति, कुश्रुत ज्ञानोपयोग, चक्षु, अचक्षु दर्शनोपयोग ये चार उपयोग होते हैं। पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्त जीवों के कुमति, कुश्रुत, मति, श्रुत, अवधि ज्ञानोपयोग तथा चक्षु, अचक्षुदर्शनोपयोग इस प्रकार सात उपयोग होते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव समास में केवलज्ञानोपयोग तथा केवल दर्शनापयोग को छोड़कर शेष दस उपयोग होते हैं।
इति जीवसमासेषूपयोगा न्यस्ताः। इस प्रकार जीवसमासों में उपयोग का कथन पूर्ण हुआ।
अथ चतुर्दशगुणस्थानेषु यथासंभवं योगा निरूप्यन्ते;
मिच्छदुगे अयदे तह तेरस मिस्से पमत्तए जोगा। दस इगिदस सत्तसु णव सत्त सयोगे अयोगी य।। ४६।।
मिथ्यात्वद्विके अयते तथा त्रयोदश मिश्रे प्रमत्तके योगाः।
दशैकादश सप्तसु नव सप्त सयोगे अयोगिनि च।। मिच्छेत्यादि। मिथ्यात्वप्रथमगुणस्थाने सासादनगुणस्थाने च तथा अयदेचतुर्थगुणस्थाने, तेरस- इति, आहारकआहारकमिश्रयोगाभ्यां विना अन्ये त्रयोदश
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(४१) योगा भवन्ति। मिस्से पमत्तए जोगा दस इगिदस- अत्र यथासंख्यत्वेन भाव्यं, मिस्से - तृतीये मिश्रगुणस्थाने दश योगा भवन्ति। ते के? अथै मनोवचनयोगा औदारिककायवैक्रियिकाययोगौ द्वौ एवं दश। पमत्तए जोगा इगिदस षष्ठे प्रमत्तगुणस्थाने योगा एकादश भवन्ति। ते के? अथै मनोवचनयोगा औदारिककाययोग आहारककाययोगस्तन्मिश्रकाययोगश्चेति त्रय एव एकादश योगाः। सत्तसुणव सप्तसु गुणस्थानेषु पंचमे देशविरते सप्तमेऽप्रमत्ते अष्टमेऽपूर्वकरणे नवमेऽनिवृत्तिकरणे दशमे सूक्ष्मसाम्पराये एकादशे उपशान्तकषाये द्वादशे क्षीणकषाये एवं एतेषु कथितेषु सप्तगुणस्थानेषु नव योगाः स्युः। ते के? अयै मनोवचनयोगा औदारिककाययोगश्चैक एवं नव। सत्त सयोगे- सयोगकेवलिनि सप्त योगा भवन्ति। ते के? सत्यमनोयोगोऽनुभयमनोयोगः
सत्यवचनयोगोऽनुभयवचनयोग औदारिककाययोगस्तन्मिश्रकाययोगः कार्मणकाययोग इति सप्त योगाः। अयोगिनि चतुर्दशगुणस्थाने शून्यं योगाभावः॥४६॥
अब चौदह गुणस्थानों में यथा संभव योग कहते हैं
अन्वयार्थ ४६- (मिच्छदुगे) मिथ्यात्व, सासादन और (अयदे) असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में (तेरह) तेरह योग (मिस्से) मिश्र गुणस्थान में (दस जोगा) दस योग (पमत्तए) प्रमत्त विरत गुणस्थान में (इगिदस) ग्यारह योग (सत्तसु) सात गुणस्थानों में अर्थात् पांचवें, सातवें, आठवें नौवें, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें इन सात गुणस्थानों में (नव) नौ योग, (सयोगे) सयोग केवली गुणस्थान में (सत्त) सात योग होते है। (अयोगी) अयोग केवली गुणस्थान योग से रहित होता है।
भावार्थ- मिथ्यात्व सासादन और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में आहारक काययोग एवं आहारकमिश्र काययोग को छोड़कर शेष तेरह योग होते हैं। मिश्र गुणस्थान में औदारिक मिश्र, वैक्रियक मिश्र, आहारक काययोग, आहारक मिश्र और कार्मण काययोग को छोड़कर शेष दस योग होते हैं। प्रमत्त गुणस्थान में चार मनोयोग, चार वचन योग, आहारक काययोग, आहारक मिश्र काययोग और औदरिक काययोग ये ग्यारह योग होते हैं। पांचवें गुण स्थान तथा सातवें से बारहवें गुणस्थान तक चार मनोयोग चार वचन योग एवं औदारिक काय योग इस प्रकार नौ योग होते हैं। सयोग केवली गुणस्थान में सत्यमनोयोग, अनुभयमनोयोग, सत्यवचन योग, अनुभय वचन योग, औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काय योग और कार्मण काय योग ये सात योग होते हैं। अयोग केवली गुणस्थान में योगों का अभाव है।
इति गुणस्थानेषु योगा निरूपिताः।
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(४२)
इस प्रकार गुणस्थानों में योग का निरूपण किया।
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अथ चतुर्दशगुणस्थानेषु द्वादशोपयोगा वर्ण्यन्तेःपढमदुगे पण पणयं मिस्सा मिस्से तदो दुगे छक्कं । सत्तुवओगा सत्तसु दो जोगि अजोगिगुणठाणे ।। ४७ ।।
प्रथमद्विके पंच पंचकं मिश्रा मिश्र ततो द्विके षट्कं । सप्तोपयोगाः सप्तसु द्वौ योग्ययोगिगुणस्थाने ॥
पढमदुगे - प्रथमद्विके मिथ्यात्वसासादनगुणस्थाने पणपणयं - पंच पंच उपयोगा भवन्ति । ते के? कुमतिकुश्रुतविभगज्ञानोपयोगास्त्रयः चक्षुरचक्षुर्दर्शनोपयागौ द्वौ एवं पंच । मिस्सा मिस्से तदो दुगे छक्कं मिश्रगुणस्थाने तृतीये, तदो- इति, ततो मिश्रगुणस्थानात्, दुगे- इति, अविरते चतुर्थगुणस्थाने देशविरतगुणस्थाने पंचमे छक्कंषडुपयोगा भवन्ति । के ते ? मतिश्रुतावधिज्ञानोपयोगास्त्रयः चक्षुरचक्षुरवधिदर्श नोपयोगास्त्रयः । अत्र एतावान् विशेषः ये मिश्रगुणस्थानगा उपयोगास्ते मिश्रा भवन्ति । सत्तुवजोगा सत्तसु - सप्तसु गुणस्थानानेषु प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिकरण- सूक्ष्मसाम्पराययथाख्यातोपशान्तकषायक्षीण कषायाभिधानेषु उपयोगाः सप्त भवन्ति । ते के? सुमतिश्रुतावधिमनः पर्ययज्ञानोपयोगाश्चत्वारः चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनोपयोगास्त्रय एते सप्त स्युः । दो जोगिअजोगिगुणठाणे - सयोगिनि त्रयोदशगुणस्थाने योगिनि च द्वौ उपयोगौ स्तः । तौ कौ ? केवलज्ञानदर्शनोपयोगौ द्वौ ॥ ४७ ॥ अब चौदह गुणस्थानों में बारह उपयोग कहते हैं
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गाथार्थ ४७ - ( पढमदुगे) मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थान में (पण ) पाँच उपयोग (मिस्से) मिश्र गुणस्थान में ( छक्कं ) छह उपयोग ( मिस्सा) मिश्र रूप (दुगे) अविरत एवं देशविरत गुणस्थान में ( छक्क ) छह उपयोग ( जोगि अजोगिगुणठाणे) सयोग केवली तथा अयोग केवली गुणस्थान में (दो) दो उपयोग होते हैं।
भावार्थ- मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थान में तीन कुज्ञानोपयोग, चक्षु, अचक्षुदर्शनोपयोग ये पांच उपयोग होते हैं। मिश्र गुणस्थान में तीन कुज्ञान तीन सम्यग्ज्ञान दोनों मिले हुए मिश्र रूप तीन ज्ञानोपयोग तथा चक्षु अचक्षु अवधि दर्शनोपयोग इस प्रकार ये छह उपयोग होते हैं चौथे, पांचवे गुणस्थान में मति
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(४३) ज्ञानोपयोग, श्रुतज्ञानोपयोग, अवधिज्ञानोपयोग, चक्षुदर्शनोपयोग, अचक्षु दर्शनोपयोग तथा अवधि दर्शनोपयोग इस प्रकार छह उपयोग होते हैं । प्रमत्त विरत गुणस्थान से क्षीणकषाय गुणस्थान तक पाँचवें गुणस्थान के समान छह और मनः पर्यय ज्ञानोपयोग इसप्रकार सात उपयोग होते हैं । सयोग केवली और अयोग केवली गुणस्थान में केवलज्ञानोपयोग और केवल दर्शनोपयोग इस प्रकार दो उपयोग होते है । इति चतुर्दशगुणस्थानेषूपयोगा जाताः ।
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इस प्रकार चौदह गुणस्थान में उपयोग पूर्ण हुए।
अथ चतुर्दशमार्गणासु सप्तपंचाशत्प्रत्यया यथासंभवं कथ्यन्ते। अथ बालबोधनार्थं तेषां पूर्वं नामानि निगद्यन्ते;
मिच्छत्तमविरदी तह कसाय जोगा य पच्चयाभेया । पण दुदस बंधहेदू पणवीसं पण्णरसा हुंति ॥ ४८ ॥
मिथ्यात्वमविरतयस्तथा कषाया योगाश्च प्रत्ययभेदाः । पंच द्वादश बन्धहेतवः पंचविंशतिः पंचदश भवन्ति ॥ मिथ्यात्वपंचकं एकान्तविपरीतविनयसंशयाज्ञानोद्भवमिति
मिच्छत्तंपंचभेद । तथा चोक्तं
मिच्छोदएण
मिच्छत्तमसद्दहणं च तच्च अत्थाणं ।
एयंतं विवरीयं विणयं संसयिदमण्णाणं ।। 911 अविरदी (अविरतयः) द्वादश । कास्ताः ? उक्तं च
छस्सिंदिए विरदी छज्जीवे तह य अविरदी चेव । इंदियपाणासंजम दुदसं होदित्ति णिद्दि || 911
तह कसाय इति, तथा कषायाः पंचविंशतिः । के ते ? अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्पाः क्रोधमानमायालोभा इति षोडश, हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकभेदा एवं पिण्डीकृताः पंचविंशतिः स्युः। योगा इति पंचदश । ते के ? सत्यासत्योभयानुभयमनोवचनविकल्पा अष्टौ योगा औदारिकौदारिकमिश्रवैक्रियिकवैक्रियिक मिश्राहारकाहारमिश्रकार्मणकाययोगाः सप्त, एवमेकत्रीकृताः पंचदशयोगाः । पच्चयाभेया- प्रत्ययभेदा आस्रवप्रकाराः । पण दुदस
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(४४) अत्र यथासंख्यं, पण- मिथ्यात्वं पंचप्रकारं। दुदस- अविरतयो द्वादश। पणवीसंकषायाः पंचविंशतिः। पण्णरसा योगाः पंचदश। हुंति- भवन्ति। कथंभूता एते? बंधहेदू- कर्मबन्धहेतवः कर्मबन्धकारणानीत्यर्थः॥४८॥
अब चौदह मार्गणाओं में सत्तावन आस्रवों को यथा संभव बालबोध के लिए उनके नामों को कहते हैं।
अन्वयार्थ- ४८-- (मिच्छत्तम्) मिथ्यात्व (पण) पांच (अविरदी) अविरति (दुदस) वारह (तह) तथा (कसाय) कषाय (पणवीस) पच्चीस (य) और (जोगा) योग (पण्णरसा) पन्द्रह (पच्चायाभेया) आस्रव के भेद (हुंति) होते हैं।
भावार्थ- एकान्त, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान इस प्रकार मिथ्यात्व के पांच भेद होते हैं कहा भी है - गाथार्थ – मिथ्यात्व के उदय से होने वाला तत्वार्थ का अश्रद्धान मिथ्यात्व है। उसके एकान्त, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान ये पांच भेद हैं।
पांच इन्द्रिय एक मन तथा छह काय सम्बन्धी इस प्रकार बारह प्रकार की अविरति है कहा भी है कि
__ गाथार्थ- छह इन्द्रियों के विषय में अविरति होती है और छह प्रकार के जीवों के विषय में अविरति होती है इस तरह इन्द्रिय अविरति और प्राणि अविरति की अपेक्षा अविरति बारह प्रकार की है।
अनन्तानुबन्धी- अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान संज्वलन कोध, मान, माया, लोभ सोलहकषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद नौ नोकषाय इस प्रकार २५ कषायें। सत्य, असत्य, उभय अनुभय मन वचन योग के भेद से आठ योग, औदारिककाययोग, औदारिक मिश्रकाययोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग, और कार्मणकाययोग ये सात काययोग इस प्रकार पन्द्रह योग ये सभी मिलकर आस्रव के सत्तावन भेद होते हैं।
नरक गति एवं तिर्यंच गति में आस्रव
आहारोरालियदुगित्थीपुंसोहीण णिरइ इगिवणं। आहारयवेउब्विय दुगूण तेवण्ण तिरियक्खे।। ४६॥
आहारौदारिकद्विकस्त्रीहीना नरके एकपंचाशत्। आहारकवैक्रियिकद्विकोनाः त्रिपंचाशत् तिरश्चि।।
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आहारेत्यादि। णिरइ- नरकगतो आहारकाहारकमिश्रद्वयं औदारिकौदारिकमिश्रद्वयं स्त्रीवेदपुंवेदद्वयं एतैः षड्भिींनाः, इगिवण्णं -- अन्ये उद्धरित्ता एकपंचाशत्प्रत्यया भवन्ति। आहारयेतादि- तिरियक्खे- तिर्यग्गतौ आहारकतन्मिश्रद्वयं वैक्रियिकतन्मिश्रद्वयं एतैश्चतुर्भिरूना अपरे तेवण्ण- त्रिपंचाशत् आस्त्रवा भवन्ति।। ४६।।
अन्वयार्थ- (णिरइ) नरक गति में (आहारोरालिय दुग) आहारक, आहारक मिश्र काययोग, औदारिक, औदारिक मिश्र काययोग (इत्थीपुंसोहीण) स्त्री और पुरुष इन दो वेदों को छोड़कर (इगिवण्णं) इक्यावन आस्रव होते हैं। ((तिरियक्खे) तिर्यंच गति में (आहारय वेउव्विय दुगूण) आहारक, आहारक मिश्र, वैक्रियिक और वैक्रियिक मिश्र काययोग को छोड़कर (तेवण्ण) शेष त्रेपन आस्रव होते हैं।
मनुष्य गति और देव गति में आस्रव कहते हैं -
पणवणं वेउवियदुगूण मणुएसु हुंति बावणं । संढाहारोरालियद्गेहिं हीणा सुरगईए। ५०॥
पंचपंचाशत् वैक्रियिकतिकोना मनुजेषु भवन्ति
द्विपंचाशत् षंढाहारौदारिकद्विकैहीनाः सुरगत्याम्।। मणुएसु- मनुजेषु मनुष्यगतौ, वेउव्वियदुगूण- वैक्रियिकतन्मिश्रद्विकोनाः, पणवण्णं- पंचपंचाशत्प्रत्ययाः, हुंति- संभवन्ति । बावण्णं संढाहारोरालियदुगेहिं हीणा सुरगईए- सुरगतौ नपुंसकवेदश्चाहारकतन्मिश्रद्वयं च औदारिकौदारिकमिश्रद्वयं च तैः पंचभिर्हीनाः, बावण्णं- द्वापंचाशदास्रवाः स्युः। इति गतिमार्गणासु प्रत्यया निरूपिताः॥५०॥
अन्वयार्थ ५०-- (मणुएसु) मनुष्यगति में (वेउव्वियदुगूण) वैक्रियिक काय योग और वैक्रियिक मिश्रकाय योग को छोड़कर शेष (पणवण्णं) पचपन आस्रव होते हैं। (सुरगईए) देवगति में (संढाहारोरालिय दुरोहिं) नपुंसक वेद, आहारक, आहारक मिश्र काययोग औदारिक और औदारिक मिश्र काययोग को छोड़कर शेष (बावण्णं) बावन आस्रव (हृति) होते हैं।
छह गाथाओं द्वारा क्रम से इन्द्रिय, काययोग, वेद एवं कषाय मार्गणा को कहते हैं।
मणरसणचउक्वित्थीपुरिसाहारयवेउब्बियजुगेहिं एयक्खे मणवचिअडजोगेहिं हीण अडतीसं।। ५१॥
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(४६) मनोरसनचतुष्क स्त्रीपुरुषाहारक वैक्रि यिक युगैः।
एकाक्षे मनोवागष्टयोगैींना अष्टात्रिंशत्।। एयक्खे- एकेन्द्रियजीवेषु, मणरसेत्यादि- मनश्च रसनचतुष्कमिति रसनघ्राणचक्षुः श्रोत्रचतुष्कं च स्त्रीवेदश्च पुंवेदश्च आहारकाहारकमिश्रद्वयं च वैक्रियिकतन्मियुग्मं चैतैरकादशभिर्हीनाः पुनः मणवचिअडजोगेहिं सत्यासत्योभयानुभयमनोवचनयोगैरष्टभि ना अन्येभ्य एकोनविंशतिप्रत्ययेभ्य उद्धरिता अन्ये, अडतीसं- अष्टात्रिंशत्प्रत्यया भवन्ति।। ५१।।
अन्वयार्थ ५१- (एयखे) एकेन्द्रिय जीवों में (मणरसणचउक्वित्थी पुरिसाहारयवेउव्विय जुगेहिं) मन, रसना चतुष्क, अर्थात् रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र इन्द्रिय, स्त्री वेद, पुरुष वेद, आहारक काययोग, आहारक मिश्रकाय योग, वैक्रियक काययोग एवं वैक्रियक मिश्र काययोग (मणवचि अडजोगेहिं) चार मनोयोग चार वचन योग ये आठ योग इस प्रकार उपर्युक्त उन्नीस (हीण) आस्रवों से रहित (अडतीसं) अड़तीस आस्रव होते हैं।
___भावार्थ ५१- एकेन्द्रिय जीवों में गाथोक्त उन्नीस आस्रवों से रहित अड़तीस आस्रव होते हैं। वे इस प्रकार हैं- पांच मिथ्यात्व, स्त्रीवेद एवं पुरुषवेद को छोड़कर शेष २३ कषाय, षट्कषाय अविरति तथा स्पर्शन इन्द्रिय अविरति ये सात प्रकार की अविरति, औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग और कार्मण काययोग ये तीन योग इस प्रकार ये समस्त एकेन्द्रिय जीवों के अड़तीस आस्रव होते हैं।
एदे य अंतभासारसणजुया घाणचक्खुसंजुत्ता। चालं इगिवेयालं कमेण वियलेसु विण्णेया।। ५२।।
एते च अन्तभाषारसनायुक्ता घ्राणचक्षुःसंयुक्ताः।
चत्वारिंशत् एकद्विचत्वारिंशत् क्रमेण विकलेषु विज्ञेयाः।। कमेण- अनुक्रमेण, वियलेसु- विकलत्रयेषु -- द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु, विण्णेया-- प्रत्यया- ज्ञातव्याः स्युः। कथं ? एदे य एकेन्द्रियोक्ता अष्टात्रिंशत्प्रत्यया अन्तभाषारसनायुक्ता अनुभयवचनजिव्हासहिताः। चालं- चत्वारिंशत्प्रत्यया द्वीन्द्रियजीवे भवन्तीत्यर्थः। पुनरेते पूर्वोक्ता अष्टात्रिंशत् अनुभयवचनरसनघ्राणसहिताः, इगियालं-- एकचत्वारिंशदास्त्रवास्त्रीन्द्रिये स्युः। तथा पूर्वोक्ता अष्टात्रिंशत् अनुभयवचनजिव्हेन्द्रिय घ्राणचक्षुःसंयुक्ताः, वेयालं. द्विचत्वारिंशत् चतुरिन्द्रिये ज्ञातव्या इत्यर्थः।। ५२ ।।
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(४७) अन्वयार्थ ५२- (एदे य) एकेन्द्रियों में कहे गये अड़तीस आस्रवों में (वियलेसु) विकलेन्द्रियों में (कमेण) क्रम से (अंतभासारसण जुया) द्वीन्द्रिय में अनुभय वचनयोग और रसना इन्द्रिय सहित (चाल) चालीस आस्रव, त्रीन्द्रिय जीवों के (घ्राण) घ्राण (संजुत्ता) सहित (इगिचालं) इकतालीस आस्रव, चतुरिन्द्रिय के (चक्खु) चक्षु सहित (वेयालं) बयालीस आस्रव (विण्णेया) जानना चाहिए।
भावार्थ - द्वीन्द्रिय के पांच मिथ्यात्व स्त्रीवेद और पुरुष वेद को छोडकर शेष २३ कषाय अनुभय वचन योग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये चार योग, षट्काय अविरति तथा स्पर्शन, रसना इन्द्रिय ये दो इन्द्रिय अविरति इस प्रकार समस्त चालीस आस्रव होते हैं। त्रीन्द्रिय जीवों के उक्त चालीस और घ्राण इन्द्रिय सहित इक्तालीस चतुरिन्द्रिय के घ्राण और चक्षु इन्द्रिय सहित बयालीस आस्रव होते हैं।
पंचेंदिए तसे तह सवे एयक्खउत्त अडतीसा। थावरपणए गणिया गणणाहेहिं पचया णियमा।। ५३ ।।
पंचेन्द्रिये त्रसे तथा सर्वे एकाक्षोक्ता अष्टात्रिंशत् ।
स्थावरपंचके गणिता गणनाथैः प्रत्यया नियमात्।। पंचेत्यादि। पंचेन्द्रिये जीवे नानाजीवापेक्षया सर्वे प्रत्यया भवन्ति। इन्द्रियमार्गणासु प्रत्ययाः। तसे तह सव्वे- तथा त्रसे त्रसकाये सर्वे सप्तपंचाशनानाजीवापेक्षया आस्रवा भवन्ति। थावरपणए- स्थावरपंचके पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायेषु पंचसु, एयक्खउत्त अडतीसा-एकेन्द्रिये ये उक्ता अष्टात्रिंशत्प्रत्यया एव ते भवन्तीत्यर्थः । गणिया गणणाहेहिं पच्चया णियमा-नियमानश्चयात् गणनाथैर्गणधरैः प्रत्यया गणिता यथासंभवं संख्यां नीताः। इति कायमार्गणास्वास्त्रवाः।। ५३॥
___अन्वयार्थ ५३-- (गणणाहेहिं) गणधर देव ने (नियमा) नियम से (पंचेंदिए) पंचेन्द्रिय जीवों के (सव्वे) सभी आस्रव कहे हैं। (तह) उसी प्रकार (तसे) त्रसकाय जीवों के (सव्वे) सभी आस्रव होते हैं। (थावर पणए) पांच स्थावरकायिकों के (एयक्खउत्त) एकेन्द्रिय के समान (अडतीसा) अड़तीस आश्रव (गणिया) कहे हैं।
भावार्थ ५३-- पंचेन्द्रिय जीव और त्रस कायिकों के नाना जीवों की अपेक्षा सभी अर्थात् सत्तावन आश्रव होते हैं। स्थावरकायिकों के अर्थात् पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक जीवों के एकेन्द्रिय के समान कार्मण काययोग, औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग, इस प्रकार ये
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(४८)
तीन योग, पुरुष वेद को छोड़कर २३ कषाय, पांच मिथ्यात्व, षट्काय संबंधी छह अविरति और एक स्पर्शन इन्द्रिय सम्बन्धी अविरति इस प्रकार अडतीस आस्रव होते
हैं।
आहारदुगं हित्ता अण्णसु जोएसु णिय णियं धित्ता। जोगं ते तेदाला णायव्वा अण्णजोगूणा।। ५४।।
आहारकद्विकं हृत्वा अन्येषु योगेषु निजं निजं धृत्वा।
योगं ते त्रिचत्वारिंशत् ज्ञातव्या अन्ययोगोनाः।। __ आहारदुगं हित्ता- आहारद्विकं हृत्वा वर्जयित्वा। अण्णसु जोएसु णिय णियं धिता जोगं- अन्येषु त्रयोदशयोगेषु मध्ये निजं निजं स्वकीयं स्वकीयं योगं धृत्वा पुनः, अण्णजोगूणा- अन्यैर्वादशभिर्योगैरूनास्ते, तेदाला णायव्वा- इति, ते प्रत्ययाः स्वकीयस्वकीययोगयुक्ताः त्रिचत्वारिंशदास्त्रवा ज्ञातव्याः। अथ स्पष्टतयोच्यतेसत्यमनोयोगे मिथ्यात्वपंच (कं) अविरतयो द्वादश कषायाः पंचविंशतिः स्वकीयमनोयोगश्चैक एवं त्रिचत्वारिंशत् आस्रवा भवन्ति। एवं असत्यमनोयोगे ४३, उभयमनोयोगे ४३, अनुभयमनोयोगे ४३, सत्यवचनयोगे ४३, असत्यवचनयोगे ४३, उभयवचनयोगे ४३, अनुभयवचनयोगे ४३, औदारिककाययोगे ४३, तन्मिश्रे ४३, वैक्रियिककाययोगे ४३, तन्मिश्रकाययोगे ४३, कार्मणकाययोगे ४३, ।। ५४।।
अन्वयार्थ ५४- (आहारदुगं हित्ता) आहारक द्विक को छोड़कर (अण्णसुजोएसु) अन्य तेरह योगों में (णिय णियं) अपने अपने योग (धित्ता) सहित (अण्ण जोगूणा) अन्य योगों से रहित (ते जोगं) उन सभी योगों में (तेदाला) तेतालीस आस्रव (णायव्वा) जानना चाहिए।
भावार्थ- आहारक काय योग एवं आहारक मिश्र काययोग को छोड़कर शेष योगों में अपने-अपने योगों सहित और अन्य योगों रहित तेतालीस आस्रव जानना चाहिए जैसे सत्य मनोयोग में मिथ्यात्व पांच, बारह अविरति, पच्चीस कषाय तथा सत्यमनोयोग इस प्रकार तेतालीस आश्रव होते हैं। इसी प्रकार अन्य योगों में भी आस्रव लगा लेना चाहिए।
संजालासंढित्थी हवंति तह णोकसायणियजोया। बारस आहारजुगे आहारयउहयपरिहीणा॥ ५५॥
संज्वलना अषण्ढस्त्रियो भवन्ति तथा नोकषायनिजयोगाः। द्वादश आहारकयुगे आहारकोभयपरिहीनाः।।
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(४६) आहारजुगे-आहारककाययोगे तन्मिश्रकाययोगे च, बारस- द्वादश प्रत्यया भवन्ति। ते के ? संजाला इत्यादि। संज्वलनक्रोधमानमायालोभाश्चत्वारः, तह- तथा, असंढित्थी- षंढस्त्रीवेदद्वयवर्जिता अन्ये हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सा'वेदा इति नोकषायाः सप्त। णियजोया स्वकीयस्वकीययोगश्चैकैकः। आहारकेआहारककाययोगः, आहारकमिश्रे आहारकमिश्रकाययोग इत्यर्थः। इति योगमार्गणायां योगा (आस्रावाः) निरूपिताः । “आहारयउहयपरिहीणा' इति पदस्य व्याख्यानं उत्तरगाथायां।। ५५॥
अन्वयार्थ ५५- (आहार जुगे) आहारक एवं आहारक मिश्र काययोग में (संजाला) संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ (असंढित्थी) नपुंसक वेद और स्त्रीवेद को छोड़कर शेष (णोकसाय) नोकषाय अर्थात् सात नोकषाय और (णियजोया) स्वकीय योग इस प्रकार ये (बारस) बारह आस्रव (हवंति) होते हैं। (आहारयउहयपरिहीणा) इस पद का व्याख्यान आगे की गाथा में है।
___ भावार्थ ५५- आहारक काय योग तथा आहारक मिश्र काययोग में संज्वलन, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद और स्वकीय योग (अर्थात् यदि आहारक काययोग का ग्रहण किया गया हो तो आहारक काय योग सहित बारह आस्रव होते हैं।) ये बारह आश्रव होते हैं। “आहारय उहय परिहीणा'' इस पद का व्याख्यान आगे की गाथा में है।
तथा हि;
इत्थिणउसयवेदे सव्वे पुरिसे य कोहपमुहेसु। णियरहियइयरबारसकसायहीणा हु पणदाला॥ ५६।।
स्त्रीनपुंसकवेदे सर्वे पुरुषे च क्रोधप्रभृतिषु।
निजरहितेतरद्वादशकषायहीना हि पंचचत्वारिंशत्।। आहारउहयपरिहीणा इत्थिणउंसयवेदे- स्त्रीवेदे नपुंसकवेदे च आहारकद्वयपरिहीनाः। तथा स्त्रीवेदे निरूप्यमाणे स्त्रीवेदो भवति, नपुंसकवेदे निरूप्यमाणे नपुंसकवेदो भवेत्, पुंवेदे निरूप्यमाणे पुंवेदोऽस्ति। एवं एकस्मिन् वेदे निरूप्यमाणे स्वकीयवेदः स्यात्। अन्यवेदद्वयं न भवति। कोऽर्थः ? स्त्रीवेदे नपुंसकवेदे च मिथ्यात्व ५ अविरति १२ कषाया २३ योग १३ एवं त्रिपंचाशत् आस्रवाः स्युरित्यर्थः। सव्वे पुरिसेय - इति, पुंवेदे स्त्रीवेदनपुंसकवेदद्वयरहिता अन्ये पंचपंचाशत्प्रत्यया भवन्ति। कोहपमुहेसु- क्रोधमानमायालोभेषु चतुर्पु, हु .. स्फुटं, पणदाला- पंचचत्वारिंशत्प्रत्यया भवन्ति। कथमिति चेत् ? णियरहियइयर..
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(५०) बारसकसायहीणा स्वकीयस्वकीयकषायचतुष्करहिता इतरद्वादशकषायहीनाः । क्रोधचतुष्के यदा स्वकीयं क्रोधचतुष्कं गृह्यते तदा इतरे द्वादश कषाया न भवन्ति । यदा मानचतुष्के स्वकीयमानचतुष्कं गृह्येते तदा तदपरे द्वादशकषाया न स्युः । एवं मायालोभयोर्योजनीयं । अनु च स्पष्टार्थं पंचचत्वारिंशत्प्रत्यया गण्यन्ते, किं नामानः ? तथा हि- अनन्तानुबन्ध्यादिक्रोधचतुष्के मिथ्यात्व ५ अविरति १२ अनन्तानुबन्ध्यादिक्रोधचतुष्कं ४ योग १५ हास्यादि ६ एवं ४५ । अयं क्रमः मानचतुष्के मायाचतुष्के लोभचतुष्के संभावनीयः । इति कषायमार्गणायां कषायाः ? ।। ५६ ।।
गाथार्थ ५६ - ( इत्थिणउंसयवेदे ) स्त्री और नपुंसक वेद में (आहारय उहयपरिहीणा) आहारक द्विक को छोड़कर तथा अपने वेद से अन्य वेदों को छोड़कर त्रेपन आस्रव होते हैं । (पुरिसे) पुरुष वेद में अपने वेद को छोड़कर अन्य वेदों से रहित पचपन आस्रव होते हैं। (कोहपमुहेसु) क्रोध, मान, माया, लोभ, चतुष्क में (णि) अपनी अपनी कषाय से ( रहिय) रहित ( इयर बारस कसाय हीणा) शेष बारह कषायों से रहित (पणदाला) पैंतालीस आस्रव होते हैं ।
भावार्थ- स्त्रीवेद और नपुंसक वेद में आहारक द्विक और स्वकीय वेद से अन्य वेद को छोड़कर पांच मिथ्यात्व बारह अविरति, तेईस कषाय तेरह योग इस प्रकार तिरेपन आस्रव होते हैं । नपुंसक वेद और स्त्री वेद को छोड़कर पुरुष वेद में पचपन आस्रव होते हैं । कषाय मार्गणा की अपेक्षा क्रोध कषाय में अनन्तानुबंधी आदि चार प्रकार के क्रोध में अर्थात् अनंतानुबंधी क्रोध, अप्रत्याख्यान क्रोध, प्रत्याख्यान क्रोध और संज्वलन क्रोध में पांच मिथ्यात्व, बारह अविरति, पन्द्रह योग, चार प्रकार का क्रोध, हास्यादि नौ कषाय इस प्रकार पैंतालीस आस्रव होते हैं इसी प्रकार मान, माया और लोभ कषायों में भी पैंतालीस - पैंतालीस आस्रव होते हैं।
दो गाथाओं द्वारा ज्ञान मार्गणा में आस्रव कहते हैंकुमइदुगे पणवण्णं आहारदुगूण कम्ममिस्सूणा । बावण्णा बेभंगे मिच्छं अणपंचचउहीणा ।।
५७ ॥
कुमतिके पंचपंचाशत् आहारकद्विकोनाः कर्ममिश्रोनाः । द्वापंचाशत् विभंगे मिथ्यात्वानपंचचतुर्हीना।।
कुमइदुगे कुमतिज्ञाने कुश्रुतज्ञाने च पणवण्णं आहारदुगूण-आहारकाहारकमिश्रद्विकोना अन्ये, पणवण्णं कम्ममिसूणा बावण्णा वेभंगे - विभंगे क्कवधिज्ञाने आहारकाहारकमिश्रकार्मण
पंचपंचाशत्प्रत्यया भवन्ति ।
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(५१)
वैक्रियिकमिश्रौदारिकमित्रैः पंचभिर्हाना अन्येः, बावण्णा-द्वापंचाशदात्रवाः स्युः। "मिच्छंअणपंचचउहीणा'' पदव्याख्याग्रगाथायां।। ५७।।
___ अन्वयार्थ- (कुमइदुगे) कुमति और कुश्रुत ज्ञान में (आहारदुगूण) आहारककाय योग और आहारक मिश्र काययोग को छोड़कर (पणवण्णं) पचपन आस्रव होते हैं। (वेभंगे) विभंगावधि ज्ञान में आहारकद्विक (कम्म मिस्सूणा) कार्मण काययोग, औदारिक मिश्र काययोग और वैक्रियिक मिश्र काय योग इन पांच योगों से रहित (बावण्णा) बावन आस्रव होते हैं। “मिच्छंअणपंचचउहीणा'', इस पद की व्याख्या आगे की गाथा में की गई है।
णाणतिए अडदालाऽसंढित्थीणोकसाय मणपज्जे। वीसं चउसंजाला णवादिजोगा सगंतिल्ले॥ ५८॥
ज्ञानत्रिके अष्टचत्वारिंशत् अषण्ढस्त्रीनोकषाया मनःपर्यये।
विंशतिः चतुःसंज्वलनाः नवादियोगा सप्तान्तिमे।। मिच्छंअणपंचचउहीणा णाणतिए अडदाला- णाणतिए- ज्ञानत्रिके सुमतिश्रुतावधिज्ञानेषु मिथ्यात्वपंचकान्तानुबधिचतुष्कहीना अन्ये अष्टाचतवारिंशत्प्रत्ययाः स्युः। असंढीत्यादि- मणपज्जे-- मनःपर्ययज्ञाने, वीसं-- विंशतिः प्रत्यया भवन्ति-के ते? असंढित्थीणोकयाय- षढस्त्रीवेदद्वयवा अन्ये पुंवेदहास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सानामानः सप्त नोकषायः, चउसंजाला-चत्वारः संज्वलनक्रोधमानमायालोभाः, णवादिजोगा अष्यै मनोवचनयोगा औदारिक एक इति नव ते सर्वे पिण्डीकृता विंशतिरास्त्रवाः। संगतिल्ले- अंतिल्ले - अन्तज्ञाने केवलज्ञाने, सगसप्तप्रत्यया भवन्ति। के ते? सत्यमनोयोगानुभयमनोयोगसत्यवचन योगानुभयवचन योगाश्चत्वार औदारिकौदारिकमिश्रकार्मणकाययोगात्रय एवं सप्त। इति ज्ञानमार्गणायामास्त्रवाः।। ५८॥
अन्वयार्थ- (णाणतिए) मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों में (मिच्छंअणपंचचउहीणा) पांच मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी चार कषाय इनसे रहित (अडदाल) अड़तालीस आस्रव होते हैं। (मणपज्जे) मनःपर्यय ज्ञान में (असंढित्थी णोकसाय) नपुंसक वेद एवं स्त्रीवेद से अन्य शेष सात नोकषाय (चउसंजाला) चार संज्वलन कषाय (णवादिजोगा) और आदि के नौ योग इस प्रकार (वीसं) बीस आस्रव होते हैं। (सगंतिल्ले) अंतिम केवलज्ञान में सात आश्रव होते हैं।
भावार्थ- मति, श्रुत और अवधिज्ञान में पांच मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चतुष्य
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(५२) इनसे रहित अड़तालीस आस्रव होते हैं वे इस प्रकार हैं- षटकाय, पांच इन्द्रिय और एक मन संबंधी ये बारह प्रकार की अविरति व अनन्तानुबंधी चतुष्क को छोड़कर शेष २१ प्रकार की कषाय और १५ योग। मनःपर्यय ज्ञान में पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये सात नो कषाय, संज्वलन, क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय, चार मनोयोग, चार वचनयोग तथा एक औदारिक काययोग ये बीस आस्रव होते हैं। केवलज्ञान में सत्यमनोयोग, अनुभय मनोयोग, सत्यवचनयोग, अनुभयवचन योग, औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग और कार्मण काययोग इस प्रकार ये सात आस्रव होते हैं।
वेउबिदुगूरालियमिस्सयकम्मूण एयदसजोया। संजालणोकसाया चउवीसा पढमजमजुम्मे॥ ५॥
वैगूर्विकद्विकौदारिकमिश्रकार्मणोना एकादशयोगाः।
संज्वलननोकषायाः चतुर्विंशतिः प्रथमयमयुग्मे।। पढमजमजुम्मे - प्रथमयमयुग्मे सामायिकसंयमे छेदोपस्थानासंयमे च, चउवीसा- चतुर्विंशतिप्रत्यया भवन्ति। के ते? वेउव्वि- वैक्रियिकतन्मिश्रद्वयौदारिकमिश्रकार्मणकैश्च चतुर्भि_ना अन्ये, एयदसजोया अष्थै मनोवचनयोगा औदारिककाययोगाहारकाहारकमिश्रकाययोगाश्चेति त्रयः समुदिता एकादशयोगाः। संजालसंज्वलनक्रोधमानमायालोभाश्चत्वारः। णोकसाया- हास्यादिनवनोकषाया एवं चतुर्विंशतिः।। ५६॥
___ अन्वयार्थ ५६- (पढमजमजुम्मे) प्रथम संयम युगल में अर्थात् सामायिक, छोदोपस्थापना संयम में (वेउव्विदुग) वैक्रियिक द्विक (उरालियमिस्सय) औदारिक मिश्र काययोग (कम्मूण) और कार्मणकाययोग इन योगों से रहित अन्य (एयदसजोया) ग्यारह योग और (संजाणणोकसाया) चार संज्जवलन, नौ नोकषाय ये (चउवीसा) चौबीस आस्रव होते हैं।
परिहारे आहारयदुगरहिया ते हवंति वावीसं। संजलणलोहमादिमणवजोगा दसय हुँति सुहुमे य।। ६०॥
परिहारे आहारकद्विकरहितास्ते भवन्ति द्वाविंशतिः। ___ संज्वलनलोभ आदिमनवयोगा दश भवन्ति सूक्ष्मे च॥
परिहारेत्यादि। परिहारविशुद्धिसंयमे, आहारयदुगरहिया- आहारकाहारकमिश्रद्वयरहितास्ते पूर्वोक्ताः सामायिकच्छेदोपस्थापनयोः कथिता द्वाविंशतिः प्रत्यया
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(५३)
भवन्ति। अथ व्यक्तिः - अष्टमनोवचनयोगौदारिक-संज्वलन-चतुष्कहास्यादिनवेति द्वाविंशतिः प्रत्ययाः परिहारसंयमे भवन्तीत्यर्थः। संजलणेत्यादि। सुहमे य- च पुनः सूक्ष्मसाम्परायसंयमे, दसय हुंतिदश प्रत्ययाः स्युः। ते के ? एकः संज्वलनलोभ आदिमनवयोगा एवं दश।।६०॥
अन्वयार्थ- (परिहारे) परिहार विशुद्धि संयम में पूर्व गाथोक्त चौबीस आस्रवों में से (आहारयदुग रहिया) आहारक द्विक से रहित (बावीस) बाईस आस्रव (हवंति) होते हैं। (सुहुमे य) सूक्ष्मसाम्पराय संयम में (संजलणलोहमादिणव जोगा) संज्वलन लोभ और चार मनोयोग, चार वचन योग औदारिक काययोग ये नव योग इस प्रकार कुल (दसय) दस आस्रव (हुंति) होते हैं।
भावार्थ- परिहार विशुद्धि संयम में चार संज्वलन और नौ नोकषाय ये तेरह कषाय, चार मनोयोग, चार वचन योग, औदारिक काययोग ये नौ योग इस प्रकार कुल बाईस आस्रव होते हैं। सूक्ष्म साम्पराय संयम में संज्वलन लोभ कषाय, चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिक काययोग ये नौ योग इस प्रकार कुल दस आस्रव होते हैं।
ओरालमिस्सकम्मइयसंजुया लोहहीण जहखादे। णवजोय णोकसाया अद्भुतकसाय देसजमे॥ ६१॥
औदारिकमिश्रकार्मणसंयुता लोभहीना यथाख्याते।
नवयोगा नोकषाया अष्टान्तकषाया देशयमे।। जहखादे- यथाख्यातसंयमे सूक्ष्मसाम्परायोक्ता ये दश ते, ओराल मिस्सेत्यादि- औदारिकमिप्रकायकार्मणकायाभ्यां द्वाभ्यां संयुक्ता द्वादश भवन्ति, एते द्वादश लोहहीणा- संज्वलनलोभरहिताः क्रियन्ते तदा एकादश भवन्ति । के ते? अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिकौदारिकमिश्रकार्मणकायास्त्रय एते एकादश यथाख्यातसंयमिनां भवन्तीत्यर्थः। “णवजोय णोकसाया अटुंतकसाय देसजमे। इयमर्धगाथा तस्याः परिपूर्णसम्बन्ध उत्तरगाथां ज्ञेयः।। ६१।।
अन्वयार्थ- (जहखादे) यथाख्यात संयम में, सूक्ष्मसाम्पराय में कहे गये दस आस्रव तथा (ओरालमिस्सकम्मइयसंजुया) औदारिक मिश्र काययोग और कार्मण काययोग से सहित बारह आस्रव, इन बारह में से (लोहहीण) संज्वलन लोभ कम करने पर ग्यारह आस्रव होते हैं। (णवजोय णोकसाया अळंतकसाय देसजमे) इस पद की व्याख्या आगे की गाथा से जानना चाहिए।
भावार्थ- यथाख्यात संयम में चार मनोयोग, चार वचनयोग औदारिक
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(५४) काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग, और कार्मण काययोग, इस प्रकार ग्यारह आस्रव होते हैं। "णवजोय णोकसाया अटुंतकसाय देसजमे" इस पद की व्याख्या आगे की गाथा से जानना चाहिए।
तसऽसंजमहीणऽजमा सचे सगतीस संजमविहीणे। आहारजुगूणा पणवणं सबे य चक्खुजुगे।। ६२॥ त्रसासंयमहीना अयमाः सर्वे सप्तत्रिंशत् संयमविहीने।
आहारकयुगोनाः पंचपंचाशत् सर्वे च चक्षुर्युगे।। णवजोय णोकसाया अटुंतकसाय देसजमे तसऽसंजमहीणऽजमा सव्वे सगतीस- देसजमे- संयमासंयमे सप्तत्रिंशत्प्रत्यया भवन्ति। ते के ? णवजोयेत्यादि। मनोवचनयोरष्टौ औदारिककायस्यैक एवं नव, तथा णोकसाया- हास्यादयो नवनो-- कषायाः, अटुंतकसाय -- अष्थै अन्त्याः प्रत्याख्यानसंज्वलन-क्रोधमानमाया-लोभाः कषायाः तसऽसंजमहीणऽजमा सव्वे- त्रसवधरहिता अन्येऽसंयमा अविरतयः सर्वे एकादश एकत्रीकृताः सप्तत्रिंशत्। संजमविहीणे आहारजुगूणा पणवण्णं- असंयमे आहारजुगूणा - आहारकयुगोना आहारकाहार-कमिश्रद्वयोनाः, पणवण्णंपंचपंचाशत् प्रत्यया भवन्ति। इति संयममार्गणायां प्रत्ययाः। सव्वे य चक्खुजुगे-- च पुनः चक्षुर्युगे चक्षुरचक्षुर्दर्शनद्वये नानाजीवापेक्षया सर्वे सप्तपंचाशत्प्रत्यया भवन्ति।।६२॥
अन्वयार्थ- (देसजमे) देश संयम में (णवजोय) नौ योग (णोकसाय) नौ नोकषाय (अटुंतकसाय) प्रत्याख्यान क्रोध आदि अंत की आठ कषायें (तसऽसंजमहीण) त्रस जीवों के घात रूप असंयम से रहित (अजमा सव्वे) शेष सभी ग्यारह अविरति इस प्रकार (सगतीस) सैंतीस आस्रव होते हैं। (संजमविहीणे) असंयम में (आहारजुगूणा) आहारक द्विक को छोड़कर शेष (पणवण्णं) पचपन आस्रव होते हैं। (चक्खुजुगे) चक्षु और अचक्षु दर्शन में (सव्वे) सभी अर्थात् सत्तावन आस्रव होते
भावार्थ - देश संयम में नौ योग नौ नोकषाय प्रत्याख्यान क्रोधादि अंत की आठ कषायें त्रस जीवों के घात रूप असंयम से रहित शेष ग्यारह अविरति इस प्रकार सैंतीस आस्रव होते हैं अर्थात् चार मनोयोग, चार वचनयोग आठयोग्र
औदारिककाययोग ये नौ योग, हास्यादि नव नौकषाय, प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ ये आठ कषायें त्रस वध से रहित शेष ग्यारह
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अविरति इस प्रकार सैंतालीस आस्रव होते हैं। असंयम में आहारक द्विक को छोडकर शेष पचपन आस्रव होते हैं अर्थात् पांच मिथ्यात्व पच्चीस कषायें, चारमनोयोग चार वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिक मिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये तेरह योग बारह अविरति इस प्रकार असंयम में पचपन आस्रव होते हैं। चक्षु और अचक्षु दर्शन में सभी अर्थात् सत्तावन आस्रव होते हैं।
अवहीए अडदालं णाणतिउत्ता हि केवलालोए । सग गयदोआहारय पणवण्णं हुंति किण्हतिए।। ६३ ।।
अवधौ अष्टचत्वारिंशत् ज्ञानत्रिकोक्ता हि केवलालोके।
सप्त गतद्विकाहारकाः पंचपंचाशत् भवन्ति कृष्णत्रिके।। अवहीए- अवधिदर्शने, णाणतिउत्ता हि- निश्चितं ज्ञानत्रिके य उक्तास्त एव, अडदालं- इति, अष्टचत्वारिंशत्प्रत्यया भवन्ति। ते के ? इति चेदुच्यते अनन्तानुबन्धिचतुष्कं मिथ्यात्वपंचकं वर्जयित्वा अपरे अष्टाचत्वारिंशदास्त्रवाः। केवलालोए सग- केवलदर्शने सप्त। के ते? सत्यानुभयमनो-वचनयोगौदारिक-कौदारिकमिश्रकार्मणकाययोगा. एवं सप्त प्रत्यया भवन्ति। इति दर्शनमार्गणायामास्त्रवाः। गयदोआहारय किण्हतिए- कृष्णनीलकापोतलेश्यात्रिके आहारकतन्मिश्रद्वयरहिता अन्येऽवशिष्टाः, पणवण्णं - पंचपंचाशत्प्रत्ययाः, हुंति- भवन्ति।। ६३॥
अन्वयार्थ- (हि) निश्चय से (अवहीए) अवधि दर्शन में (णाणतिउत्ता) पूर्वोक्त मति, श्रुत, और अवधि इन तीन ज्ञानों में कहे गये (अडदालं) अड़तालीस आस्रव होते हैं। (केवलालोए) केवलदर्शन में केवलज्ञान के समान सात आस्रव होते हैं। (किण्हतिए) कृष्ण, नील और कापोत इन तीन लेश्याओं में (गयदोआहारय) आहारक द्विक को छोड़कर शेष (पणवण्णं) पचपन आस्रव (हुंति) होते हैं।
भावार्थ- अवधि दर्शन में अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ एवं पाँच प्रकार के मिथ्यात्व को छोड़कर शेष अड़तालीस प्रकार का आस्रव होता है। केवल दर्शन में सत्यमनोयोग अनुभय मनोयोग, सत्यवचनयोग, अनुभयवचनयोग,
औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, और कार्मणकाययोग ये सात आस्रव होते हैं। कृष्ण, नील और कापोत लेश्या में आहारक काय योग और आहारक मिश्र काययोग को छोड़कर शेष पचपन आस्रव होते हैं।
भावार्थ ६४ पीत, पद्म, शुक्ल इन तीन लेश्याओं में और भव्य जीवों के नाना जीवों की अपेक्षा सभी अर्थात् सत्तावन आस्रव होते हैं। वे इस प्रकार से हैं. १२
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अविरति, २५ कषायें, ५ मिथ्यात्व और १५ योग। अभव्य जीवों के आहारक द्विक बिना पचपन आस्रव होते हैं वे इस प्रकार हैं- १२ अविरति, २५ कषायें, ५ मिथ्यात्व, औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्र काययोग, कार्मण काययोग, चार मनोयोग और चार वचनयोग तेरह योग। उपशम सम्यक्त्व में छियालीस आस्रव होते हैं वे इस प्रकार से हैं- १२ अविरति, अनन्तानुबन्धी चतुष्क को छोड़कर शेष २१ कषाय, आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोग को छोड़कर शेष तेरह योग।
तेजादितिए भब्वे सब्वे णाहारजुम्मयाऽभवे । पणवण्णं ते मिच्छाअणूण छादाल उवसमए॥ ६४॥
तेजआदित्रिके भव्ये सर्वे अनाहारकयुग्मका अभव्ये।
पंचपंचाशत् ते मिथ्यात्वानोनाः षट्चत्वारिंशत् उपशमे।। तेजादितिए- पीतपद्मशुक्ललेश्यात्रिके तथा भव्यजीवे, सव्वे- सर्वे सप्तपंचाशत्प्रत्यया नानाजीवापेक्षया भवन्ति। णाहारजुम्मयाऽभव्वे पणवण्णं - अभव्यजीवे आहारकतन्मिश्रवा अन्ये पंचपंचाशदास्त्रवाः स्युः। इति लेश्याभव्यमार्गणयोः प्रत्ययाः तेमिच्छाउ/णूणछादाल उवसमए-उपशमकसमयक्त्वे तेइति, अभव्योक्ताः पंचपंचाशत्प्रत्यया मिथ्यात्वपंचकानन्तानुबन्धिचतुष्कोना अपरे षट्चत्वारिंशत्प्रत्यया भवन्ति। ते के चेदुच्यते- अविरतयः १२ कषायाः २१ आहारकद्वयं विना योगाः १३ एवं षट्चत्वारिंशत्।। ६४॥
अन्वयार्थ- (तेजादितिए) पीत, पद्म शुक्ल इन तीन लेश्याओं में (भव्वे) और भव्य जीवों के (सव्वे) सभी अर्थात् सत्तावन आस्रव होते हैं। (अभव्वे) अभव्य जीवों के (णाहारजुम्मया) आहारक द्विक बिना (पणवण्णं) पचपन आस्रव होते हैं : सम्यकत्व मार्गणा की विवक्षा में (उवसमए) उपशम सम्यक्त्व में आहारकद्विक (मिच्छाअणूण) पाँचों मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी चतुष्क से रहित (छादाल) छियालीस आस्रव होते हैं।
भावार्थ- पीत, पद्म, शुक्ल इन तीन लेश्याओं में और भव्य जीवों के नाना जीवों की अपेक्षा सभी अर्थात् सत्तावन आश्रव होते है वे इस प्रकार से हैं १२ अविरति, २५ कषायें, ५ मिथ्यात्व और १५ योग। अभव्य जीवों के आहारक द्विक बिना पचपन आश्रव होते हैं वे इस प्रकार है . १२ अविरति, २५ कषायें, ५ मिथ्यात्व, औदारिककाययोग, औदारिक मिश्र काययोग,वैक्रियिककाययोग,
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वैक्रियिकमिश्र काययोग, कार्मणकाययोग, चार मनोयोग और चार वचन योग इस प्रकार ये तेरह योग। उपशम सम्यक्त्व में छियालीस आश्रव होते हैं वे इस प्रकार से हैं - १२ अविरति, अनन्तानुबंधी चतुष्क को छोडकर शेष २१ कषाय आहारककाययोग और आहारक मिश्रकाययोग को छोडकर शेष १३ योग।
आहारयजुवजुत्ता खाइयदुगे य ए वि अडदाला। मिस्से तेदाला ते तिमिस्साहारयदुगूणा॥ ६५।।
आहारकयुगयुक्ताः क्षायिकद्विके च तेऽपि अष्टचत्वारिंशत्।
मिश्रे त्रिचत्वारिंशत् ते त्रिमिश्राहारकद्विकोनाः॥ खाइयदुगे य- च पुनः क्षायिकयुग्मे क्षायिकवेदकसम्यक्त्वे च आहार यजुवजुत्ता- आहारकद्वयसहिताः, ए वि- इति, तेऽपि उपशमसम्यक्त्वोक्ताः षट्चत्वारिंशत्, अडदाला- अष्टचत्वारिंशत् भवन्ति। ते के ? अविरतयः १२ कषायाः २१ योगाः १५ एवं ४८ । मिस्से- मिश्रसम्यक्त्वे तेदाला-त्रिचत्वारिंशत्प्रत्यया भवन्ति। ते--पूर्वोक्ताः क्षायिकवेदकोक्ता अष्टचत्वारिंशद्वर्तन्ते तेभ्यः पंच निष्काश्यते। ते के ? तिमिस्साहारयदुगुणा त्रिमिश्रा औदारिकमिश्रवैक्रियिकमिश्रकार्मणका-हारकाहारकमिश्रमेवं पंचहीनास्त्रिचत्वारिंशत्। के ते इति चेदुच्यते- अविरतयः १२ कषायाः २१ अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिकवैक्रियिककाययोगौ द्वौ एवं ४३ मिश्रसम्यक्त्वे भवन्तीत्यर्थः।। ६५॥
अन्वयार्थ- (खाइयदुगे) क्षायिक और वेदक सम्यक्त्व में उपशम सम्यक्त्व के छियालीस आस्रव और (आहारयजुवजुत्ता) आहारक द्विक सहित (अडदाला) अडतालीस आस्रव होते हैं। (मिस्से) मिश्र सम्यक्त्व में क्षायिक और वेदक सम्यक्त्व के अडतालीस आस्रव में से (तिमिस्सा हारयदुगूणा) तीन मिश्र और आहारक द्विक से रहित (तेदाला) तेतालीस आस्रव होते हैं।
भावार्थ- क्षायिक और वेदक सम्यक्त्व में पाँच मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी क्रोध आदि चार कषाय से रहित अडतालीस आस्रव होते हैं अर्थात् अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलन कोध, मान, माया, और लोभ ये बारह कषाय नौ नोकषाय, पन्द्रह योग और बारह अविरति इस प्रकार क्षायिक और वेदक सम्यकत्व में अडतालीस आस्रव होते हैं। मिश्र सम्यकत्व में पांच मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी क्रोध आदि चार, औदारिक मिश्र काययोग, वैक्रियिक मिश्र काययोग,कार्मण काय योग, आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग इनसे रहित तेतालीस आस्रव होते हैं अर्थात् अप्रत्याख्यान आदि बारह कषाय नौ नो कषाय चार मनोयोग चार वचन योग
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(५८) औदारिक योग, वैक्रियककाय योग, और बारह अविरति ये तेतालीस आस्रव होते
विदिए मिच्छपणूणा पण मिच्छे य हुंति पणवणं। आहारयजुयविजुया पञ्चेया सयल सण्णीए॥ ६६॥ द्वितीये मिथ्यात्वपंचकोनाः पंचाशत् मिथ्यात्वे च भवन्ति।
पंचपंचाशत् आहरकयुगवियुक्ताः प्रत्ययाः सकलाः संज्ञिनि।। विदिए- सासादनसम्यक्त्वे, मिच्छपणूणा- मिथ्यात्वपंचकोना आहारकयुग्मवर्जिता अन्ये, पण्णं- पंचाशत्प्रत्ययाः स्युः। मिच्छेय हुंति पणवण्णं आहारयजुयविजुया - पुनः मिथ्यात्वसम्यक्त्वे आहारकयुगवियुक्ता अन्ये, पणवण्णंपंचपंचाशत्प्रत्यया भवन्ति। इति सम्यक्त्वमार्गणायां प्रत्ययाः। पच्चया सयल सण्णीए - संज्ञिजीवे प्रत्ययाः सकलाः सर्वे सप्तपंचाशनानाजीवापेक्षया भवन्ति।। ६६॥
अन्वयार्थ- (विदिए) सासादन सम्यक्त्व में आहारक द्विक और (मिच्छपणूणा) पांच मिथ्यात्व से रहित . (पण्णं) पचास आस्रव होते हैं। (य) और (मिच्छे) मिथ्यात्व में (आहारयजुयविजुया) आहारक द्विक से रहित (पणवण्णं) पचपन आस्रव (हुति) होते हैं। संज्ञी मार्गणा की विवक्षा में (सण्णीए) संज्ञी जीवों के (सयल) सभी अर्थात् सत्तावन आस्रव होते हैं।
कम्मयओरालियदु गअसचमोसूणजोगमणहीणा। पणदालाऽसण्णीए सयलाहारे अकम्मइया॥ ६७॥
कार्मणौदारिकद्विकासत्यमृषोनयोगमनोहीनाः ।
पंचचत्वारिंशदसंज्ञिनि सकला आहारके अकार्मणकाः। असण्णीए- . असंज्ञिजीवे, पणदाला- पंचचत्वारिंशत्प्रत्यया भवन्ति। कथंभूताः? कम्मयेत्यादि- कार्मणकश्च औदारिकद्विकं च असत्यमृषा चेत्यनभयवचनयोग एतैश्चतुर्भिरूना हीना अन्ये एकादशयोगाश्च मनश्च तै_नाः । बालावबोधनार्थं स्पष्टतयोच्यते- असंज्ञिजीवे मिथ्यात्वपंचकं मनोवर्जिता एकादशाविरतयः कषायाः २५ कार्मणः औदारिकद्वययोगद्वयं, असत्यमृषा सत्यं च मृषा सत्यमृषे न विद्यते सत्यासत्ये यत्र योगे सोऽसत्यमृषो योगोऽनुभयवचनयोग इत्यर्थः एवं ४५ प्रत्यया भवन्ति। इति संज्ञिमार्गणायां प्रत्ययाः। सयलाहारे अकम्मइया- आहारे आहारकजीवे कार्मणकाययोगवर्जिता अन्ये सकलाः सर्वे षट्पंचाशत्प्रत्यया भवन्ति।। ६७।।
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(५६) अन्वयार्थ- (असण्णीए) असंज्ञी जीवों के (कम्मय ओरालियदुग असच्चमोसूणजोग) कार्मण काययोग, औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, असत्यमृषावचनयोग अर्थात अनुभयवचनयोग इन चार योगों को छोडकर शेष ग्यारह योगों से रहित तथा (मणहीना) मन को छोड़कर ग्यारह प्रकार की अविरति, पच्चीस कषाय, पाँच मिथ्यात्व ये (पणदाला) पेतालीस आस्रव होते हैं। आहार मार्गणा की विवक्षा में (आहारे) आहारक जीवों के (कम्मइया) कार्मण काययोग को छोड़कर शेष (सयल) सभी आस्रव अर्थात् छप्पन आस्रव होते हैं।
तेदालाणाहारे कम्मेयरजोयहीणया हुंति। तित्थप्पहुणा गणिया इति मग्गणपच्चया भणिया।। ६८।।
त्रिचत्वारिंशदनाहारके कर्मेतरजोगहीनका भवन्ति।
तीर्थप्रभुणा गणिता इति मार्गणाप्रत्यया भणिताः॥ तेदालाणाहारे- अनाहारके जीवे कम्मेयरजोयहीणया- कार्मणकाययोगादितरे ये चतुर्दशयोगास्तैींना अन्ये, तेदाला- त्रिचत्वारिंशत्प्रत्यया भवन्ति। ते के ?-मिथ्यात्वं ५ अविरतयः १२ कषायाः २५ कार्मणकाययोग १ एवं त्रिचत्वा रिंशत्प्रत्ययाः, हुंति- भवन्ति। तित्थप्पहुणा-- अमुना प्रकारेण पूर्वं तीर्थकर प्रभुणा तीर्थकरदेवेन मार्गणासु प्रत्यया इति गणिता इति, पश्चाद्गण-धरदेवादिभिः शब्दरूपेण गाथादिबन्धेन मार्गणासु प्रत्यया भणिता इति शेषः॥६॥
अन्वयार्थ- (अणाहारे) अनाहारक जीवों के (कम्मेयर जोय हीणया) कार्मण काय योग से अन्य चौदह योगों को छोड़कर शेष (तेदाल) तेतालीस आस्रव (हुंति)होते हैं। (इति) इस प्रकार (तित्थप्पहुणा) तीर्थंकर प्रभु ने (मग्गण) मार्गणाओं में (पच्चया) आस्रव (गणिया)कहे हैं उन्हीं को मेरे द्वारा(भणिया) कहा गया।
भावार्थ- अनाहारक जीवों के कार्मण काययोग अन्य चौदह योगों को छोडकर तेतालीस आस्रव हाते हैं अर्थात् पांच मिथ्यातत्व पच्चीस कषायें कार्मण काययोग और बारह अविरति इस प्रकार अनाहारक जीवों के तेतालीस प्रत्यय होते हैं। इस प्रकार तीर्थकर देव ने मार्गणाओं में प्रत्यय (आस्रव)कहे, पश्चात गणधर देव ने शब्द रूप से गाथादि रूप से मार्गणाओं में प्रत्यय कहे।
___ इति मार्गणासु प्रत्यया निर्दिष्टाः। इस प्रकार मार्गणओं में आस्रव कहे गये।
अथ चतुर्दशजीवसमासेषु यथासंभवं सप्तपंचाशत्प्रत्ययाः कथ्यन्ते;
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अवचौदह जीवसमासों में यथासंभव संतावन आस्रव कहते हैं। इगिदुतिचउरक्खेसु य सण्णीसु भासिया जे ते। अडतीसादी सयला, पणदाला कम्ममिस्सूणा।। ६६। सत्तसु पुण्णेसु हवे ओरिलिय मिस्सयं अपुण्णेसु। इगिइगिजोगविहीणा जीवसमासेसु ते णेया॥ ७०॥
एकद्वित्रिचतुरक्षेषु च संज्ञिषु भाषिता ये ते। अष्टात्रिंशदादयः सकलाः पंचचत्वारिंशत् कर्ममिश्रोनाः।। सप्तसु पूर्णेषु भवेत् औदारिकं मिश्रकं अपूर्णेषु।
एकैकयोगविहीना जीवसमासेषु ते ज्ञेयाः॥ गाथाद्वयेन सम्बन्धः । जीवसमासेसु ते णेया- ते प्रत्ययाश्चतुर्दशजीवसमासेषु ज्ञेया ज्ञातव्या भवन्ति इत्याह- इगिदुतिचउरक्खेत्यादि- एकद्विात्रचतुरिन्द्रियेषु च पुनः सयसंज्ञिजीवेषु ये अष्टात्रिंशदादयः सकलाः प्रत्ययाः पूर्वं भाषिताः। ते प्रत्ययाः पंचचत्वारिंशत् कथं भवन्ति? एकेन्द्रियादिराश्यपेक्षया अष्टात्रिंशत्प्रत्ययाः, द्वीन्द्रियस्य राश्यपेक्षया रसनेन्द्रियानुभयभाषयोरधिकत्वाच्चत्वारिंशत्प्रत्ययाः, त्रीन्द्रियस्य राश्यपेक्षया घ्राणेन्द्रियाधिकत्वादेकचत्वारिंशत्प्रत्ययाः, चतुरिंन्द्रियस्य चक्षुरधिकत्वाद्वाचत्वारिंशत्प्रत्ययाः, असंज्ञिपंचेन्द्रियस्य स्त्रीवेदपुंवेदश्रोत्राणामधिकत्वाद्राश्यपेक्षया पंचचत्वारिंशत्प्रत्ययाः। कथंभूताः पंचचत्वारिंशत् ? कम्ममिस्सूणा - कार्मण कायौदारिकमिश्रवैक्रियिकमिश्रोनाः। सत्तसु पुण्णेसु हवे ओरालिय- सप्तसु पर्याप्तसु जीवसमासेषु यथासंभवं पूर्वोक्ताः प्रत्ययाः, ओरालिय- औदारिकाययोगश्च भवेत्। मिस्सयं अपुण्णेसु-इति, अपर्याप्तेषु सप्तसु जीवसमासेषु, मिस्सयं -
औदारिकमिश्रः वैक्रियिकमिश्रो वा यथासंभवं भवति। इगिइगिजोगविहीणा- सप्तसु पर्याप्तेषु सप्तसु अपर्याप्तेषु एकैकयोगविहीनाः प्रत्यया भवन्ति। कोऽर्थः ? सप्तसु पर्याप्तेषु यदा औदारिककाययोगो भवति तदा औदारिकमिश्र योगो न भवति यदा अपर्याप्तेषु सप्तसु औदारिकमिश्रकायो भवति तदा औदारिककाययोगो न भवतीत्यर्थः। अथाल्पबुद्धीनां सम्यक्परिज्ञानाय चतुर्दशजीवसमासेषु प्रत्येकं यथासंभवं एतावन्तः प्रत्ययाः संभवन्तीत्याह – एकेन्द्रियसूक्ष्मापर्याप्ते मिथ्यात्वपंचकं षड्जीवनिकायानां विराधना स्पर्शनेन्द्रियस्यैकस्यानिरोध एवं सप्ताविरतयः ७ स्त्रीवेदपुंवेदद्वयवा अन्ये कषायस्त्रयोविंशतिः २३ औदारिकमिश्रकार्मणकाययोगौ द्वौ २ एवं सप्तत्रिंशत् ३७ प्रत्यया भवन्ति। एकेन्द्रियसूक्ष्मपर्याप्ते मिथ्यात्वं ५ अविरतयः ७ स्त्रीवेदपुंवेदवाः
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(६१) कषायस्त्रयोविंशतिः औदारिककाययोग एक एव एवं षट्त्रिंशत्प्रत्ययाः स्युः। एकेन्द्रियबादरापर्याप्ते मि. ५ अवि. ५ कषा. २३ औदारिकमिश्रकार्मणयोगौ द्वौ एवं सप्तत्रिंशत्प्रत्यया भवेयुः ३७। एकेन्द्रियबादरपर्याप्ते पंचमिथ्यात्वं अविरतयः सप्त पूर्वोक्ताः २३ कषाया औदारिककाययोग एक एवं षट्त्रिंशदास्रवाः स्युः। द्वीन्द्रियापर्याप्ते जीवसमासेमिथ्यात्वं५षट्कायानांविराधना स्पर्शरसनयोरनिरोधः इत्यविरतयोष्टौ पूर्ववत्कषायास्त्रयोविंशतिः औदारिकमिश्रकार्मण काययोगो द्वौ एवं अष्टात्रिंशत्प्रत्यया भवन्ति द्वीन्द्रियपर्याप्ते जीवसमासे मि० ५ अवि० ८ कषायाः २३ औदारिककाययोगानुभयभाषायोगौ द्वौ एवमष्टात्रिंशत्प्रत्ययाः संभवन्ति। त्रीन्द्रियापर्याप्त जीवसमासे मि. ५ षट्कायविराधना स्पर्शनरसनघ्राणानामनिरोध एवमवितरयो नव पूर्ववत्कषायाः २३ औदारिकमिश्रकार्मणकाययोगौ द्वौ एकीकृता एकोनचत्वारिंशत्प्रत्ययाः सन्ति। त्रीन्द्रियपर्याप्ते जीवसमासेऽपि मि० ५ षट्कायविराधनाः षट्स्पर्शनरसनघ्राणानां विषयानुभवनं तिस्त्र एवमविरतयोनव कषाया २३ औदारिककायानुभयवचनयोगौ द्वौ एवमेकोनचत्वारिंशत्प्रत्ययाः ३६ स्युः। चतुरिन्द्रियापर्याप्त जीवसमासे मि० ५ षड्जीवनिकायविराधना स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुषामनिरोध एवमविरतयो १० पूर्ववत्कषाया औदारिकमिश्रकार्मणकाययोगौ द्वौ एवं चत्वारिंशत्प्रत्ययाः सन्ति। चतुरिन्द्रियपर्याप्ते मि० पंच ५ पूर्वोक्ता दशाविरतयः १० कषाया २३ औदारिककायानुभयभाषायोगौ द्वौ २ एवं चत्वारिंशदास्त्रवाः प्रवर्तन्ते। पंचेन्द्रियासंज्ञिजीवापर्याप्त मि. ५ मनोवा अन्या एकादशाविरतयः ११ कषायाः सर्वे २५ औदारिकमिश्रकार्मणकाययोगौ द्वौ २ एवं त्रिचत्वारिंशदास्त्रवाः ४३ स्युः। असंज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्ते मि. ५ मनइन्द्रियं विना अन्या एकादशाविरतयः ११ कषायाः २५ औदारिकायानुभयवचनयोगौ द्वौ २ एवं त्रिचत्वारिंशत्प्रत्ययाः ४३ स्युः। पंचेन्द्रियसंज्ञिजीवापर्याप्ते मनइन्द्रियं विना एकादशाविरतयः ११ कषायाः २५
औदारिकमिश्रवैक्रियिकमिश्रकार्मणकाययोगास्त्रय एकीकृताः ४४ प्रत्यया भवन्ति। पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्ते जीवसमासे मि. ५ अविरतयः १२ कषायाः २५ मिश्रकार्मणकाययोगद्वयं विना अन्ये त्रयोदशयोगाः १३ एवं पंचपंचाशत्प्रत्यया भवन्ति ।। ६६-७०॥
अन्वयार्थ- (इगिदुति चउरक्खेसु) एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव समासों में (अडतीसादी) अडतीस आदि अर्थात् एकेन्द्रिय आदि जीवों के क्रमशः अडतीस चालीस, इकतालीस, व्यालीस आस्रव होते हैं। (य) और (सण्णीसु) पंचेन्द्रिय संज्ञी-असंज्ञी जीव समासों में क्रमशः (सयला) सभी और (पणदाला) पेंतालीस
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(६२)
आस्रव (भासिया) कहे गये हैं । ( सत्तसु) सात (पुण्णेसु) पर्याप्त (जीव समासेषु) जीव समासों में (ओरालिय) औदारिक काय योग ( अपुण्णेसु) सात अपर्याप्त जीव समासों में (मिस्सi) मिश्र काय योग होता है । ( इगिइगि जोग - विहीणा ) सात पर्याप्त और सात अपर्याप्त जीवसमासों में वे आस्रव एक-एक योग से रहित (या) जानना चाहिए। भावार्थ- दोनों गाथाओं का परस्पर में सम्बन्ध है एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव समासों के क्रमशः अडतीस, चालीस, इकतालीस, बयालीस, आस्रव होते हैं तथा पंचेन्द्रिय संज्ञी जीवों के सभी तथा असंज्ञी जीवों के पैंतालीस आस्रव होते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है - एकेन्द्रिय जीवों के पांच मिथ्यात्व स्त्रीवेद और पुरूष वेद को छोड़कर शेष २३ कषाय तीन योग (औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग) छह काय और एक स्पर्शन इन्द्रिय संबंधी ये सात प्रकार की अविरति इस प्रकार ३८ आस्रव होते हैं, द्वीन्द्रिय जीवों के उक्त अडतीस आस्रव तथा अनुभय वचनयोग रसना इन्द्रिय इस प्रकार चालीस आस्रव होते हैं त्रीन्द्रिय जीवों के उक्त चालीस तथा घ्राण इन्द्रिय सहित इकतालीस आस्रव होते हैं, चतुरिन्द्रय जीवों के उक्त इक्तालीस तथा चक्षु इन्द्रिय सहित बयालीस आस्रव होते हैं असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के उक्त बयालीस तथा श्रोत्र इन्द्रिय स्त्री वेद, पुरूष वेद सहित पैंतालीस आस्रव होते हैं, पंचेन्द्रिय संज्ञी जीवों के सभी आस्रव होते हैं । सात पर्याप्त सात अपर्याप्त जीव समासों एक-एक योग से रहित प्रत्यय होते है अर्थात् सात पर्याप्तकों में जब औदारिक काययोग होता है तब औदारिक मिश्र काययोग नही होता है और जब सात अपर्याप्तकों में औदारिक मिश्रकाययोग होता है तब औदारिक काययोग नहीं होता है चौदह जीव समासों में यथासंभव होने वाले आस्रव इस प्रकार से हैं – एकेन्द्रिय सूक्ष्म अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व ५, षट्काय जीव अविरति और स्पर्शेन्द्रियजन्य एक अविरति इस प्रकार कुल अविरति सात, स्त्रीवेद और पुंवेद को छोडकर २३ कषाय, औदारिक मिश्रकाययोग और कार्मण काययोग दोनों योग - इस प्रकार सब ३७ प्रत्यय होते हैं । एकेन्द्रिय सूक्ष्म पर्याप्तकों में मिथ्यात्व ५, अविरति ७, कषाय २३, औदारिक काययोग इस प्रकार ३६ प्रत्यय होते हैं । एकेन्द्रिय बादर अपर्याप्तकों में मि. ५, अवि ७, कषा. २३ औदारिक मिश्र और कार्मण काययोग ये दो, इस प्रकार ३७ प्रत्यय होते हैं। एकेन्द्रिय बादर पर्याप्तकों में पूर्वोक्त एकेन्द्रिय सूक्ष्म पर्याप्तकों के समान ३६ आस्रव जानना चाहिए । द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकों में सामान्य से कहे गये द्वीन्द्रिय जीवों के आस्रवों में से औदारिक काययोग और अनुभय वचन योग से रहित ३८ आस्रव जानना चाहिए । द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवसमास में मि. ५, अविरति ८, कषाय २३,
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(६३)
औदारिक काययोग, अनुभय वचनयोग ये दो योग इस प्रकार ३८ प्रत्यय होते हैं । त्रीन्द्रिय अपर्याप्त जीवसमासों में मि. ५, अवि. ६, कषा. २३ योग २, सभी मिलाकर ३६ प्रत्यय होते हैं । त्रीन्द्रिय पर्याप्त जीव समास में मि. ५, अविरति ६, कषा. २३, योग २, सभी मिलाकर ३६ आस्रव चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त जीवसमास में मि. ५, अविरति १०, कषा. २३ योग २, सभी मिलाकर ४० आस्रव होते हैं । चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीव समास में ४० आस्रव होते हैं। पंचेन्द्रिय असंज्ञि अपर्याप्त जीव समास में एवं पर्याप्त जीव समास ४३ - ४३ आस्रव होते हैं पंचेन्द्रिय संज्ञि अपर्याप्तक जीव समास में ४४ आस्रव तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव समास में ५५ आस्रव होते हैं । इति चुतर्दशजीवसमासेषु प्रत्येकं यथासंभवं प्रत्ययाः कथिताः व्यक्तिरूपेण बालबोधनार्थम ।
इस प्रकार चौदह तीवसमासों में बालकों के ज्ञान के लिये यथासंभव आस्रव कहे गये।
民纷纷
अथ चतुर्दशगुणस्थानेषु प्रत्ययाः कथ्यन्तेः
अब चौदह गुणस्थानों में बन्ध के कारण कहते हैं
मिच्छे चउपचइओ बंधो सासणदुगे तिपच्चइयो । ते विरइजुआ अविरइदेसगुणे उवरिमदुगं च ।। ७१ ॥
इक्को ।
दोणि तदो पंचसु तिसु णायव्वो जोगपञ्चई सामण्णपच्चया इदि अट्टण्हं होंति कम्माणं ॥ ७२ ॥ मिथ्यात्वे चतुःप्रत्ययो बन्धः सासनद्विके त्रिप्रत्ययः । ते विरतियुता अविरतदेशगुणे उपरिमद्विकं च ।। द्वौ ततः पंचसु त्रिशु ज्ञातव्यो योगप्रत्यय एकः । सामान्यप्रत्यया इति अष्टानां भवन्ति कर्मणां ॥
गाथाद्वयेन सम्बन्धः । मिच्छे चउपच्चइओ बन्धो- चतुःप्रत्ययजो बन्धः, कोऽर्थः ? मिथ्यात्वगुणस्थाने मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगानां चतुर्णां प्रत्यायानां बन्धो भवतीत्यर्थः । सासणदुगे द्वितीयसासादनगुण - स्थाने तृतीयमिश्रगुणस्थाने च, तिपच्चइओ - त्रिप्रत्ययजो बन्धः । कोऽर्थः ? सासादनमिश्रगुणस्थानयोरविरतिकषाययोगानां बन्धः स्यादित्यर्थः । तेऽविरईत्यादि । अविरइदेसगुणे चतुर्थेऽविरतिगुणस्थाने पंचमे देशविरतिगुणस्थाने च ते इति, ते प्रत्यया भवन्ति । कति
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भवन्तीत्याशंकायामाह- उवरिमदुगं उपरिमद्वयं कषाययोगयुग्मं। कथंभूतं? अविरतियुक्तं एवं त्रयः प्रत्यया भवन्ति, कोडर्थः ? अविरतिदेशविरतिगुणस्थानयोद्वयोरविरतिकषाययोगानां त्रयाणां प्रत्ययानां बन्धो भवतीत्यर्थः। दोण्णि तदो पंचसुइति, ततो देशविरतिगुणस्थानात्, पंचसु- इति, पंचगुणस्थानेषु प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसूक्ष्मसाम्परायाभिधानेषु दोण्णि- द्वौ प्रत्ययौ ज्ञातव्यौ, को भावः ? प्रमत्तादिपंचसु गुणस्थानेषु कषाययोगयोर्द्वयोर्बन्धः इति भावः। ततः, तिसु- इति, त्रिषु गुणस्थानेषु योगप्रत्यस्यैकस्य बन्ध इत्यर्थः। इदि- इति अमुना प्रकारेण, अट्ठण्हं कम्माणं - ज्ञानावरणादीनामष्टानां कर्मणां, सामण्णपच्चयासामान्येन मिथ्यात्वादिप्रत्यया बन्धकारणानि भवन्ति।।७१-७२।।
अन्वयार्थ- (मिच्छे चउपच्चइओ बंधो) मिथ्यात्व गुणस्थान में बंध के चार प्रत्यय होते हैं। (सासणदुग) सासादन सम्यग्दृष्टि और मिश्रगुणस्थान में (तिपच्चइओ) तीन प्रत्यय बंध के होते हैं। (अविरइदेसगुणे) चतुर्थ अविरत सम्यग्दृष्टि और पंचम देशविरत गुणस्थान में (उवरिमदुगं) ऊपर के दो, कषाय और योग(च) तथा (ते विरइजुआ) अविरतियुक्त तीन बंध के प्रत्यय होते हैं। (दोण्णि तदो पंचसु) देशविरत गुणस्थान से आगे सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान तक (दोण्णि) दो प्रत्यय (तिसु) आगे के तीन गुण स्थानों में (इक्को) एक (जोगपच्चई) योग प्रत्यय (इदि) इस प्रकार (अट्टह) आठ (कम्माणं) कर्मों के (साम्मणपच्चा) सामान्य प्रत्यय बंध के कारण होते हैं।
भावार्थ- मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग ये चार बंध के प्रत्यय होते हैं। द्वितीय सासादनगुणस्थान और तृतीय मिश्रगुणस्थान में अविरति, कषाय और योग इस प्रकार तीन बंध के प्रत्यय होते हैं। चतुर्थ अविरत सम्यग्दृष्टि और देश विरत गुणस्थान में अविरति, कषाय और योग ये तीन बंध के कारण होते हैं। पंचम गुणस्थान से आगे के प्रमत्त संयत, अप्रमत्त संयत, अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण, और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानों में दो प्रत्यय अर्थात् कषाय और योग बंध के कारण होते हैं। आगे के तीन गुणस्थानों में अर्थात् उपशांत कषाय, क्षीण कषाय और सयोगी केवली के एक योग ही बंध का कारण है। इस प्रकार ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों के सामान्य से बंध के कारण होते हैं।
पूर्वं सामान्येन प्रत्ययबन्धः कथितः, अधुना विशेषेण प्रत्ययबन्धाः कथ्यन्ते;
पूर्व में सामान्य रूप से बंध कारण कहे अब विशेष रूप से (आस्रव) बंध के कारण कहते हैं :
पढमगुणे पणवण्णं विदिए पण्णं च कम्मणअणूणा।
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मिस्सोरालिविउब्वियमिस्सूण तिदालया मिस्से।। ७३।।।
प्रथमगुणे पंचपंचाशत् द्वितीये पंचाशत् च कार्मणानोनाः।
मिश्रौदारिकवैक्रियिकमिश्रोनाः त्रिचत्वारिंशन्मिश्रे।। पढमगुणे- प्रथममिथ्यात्वगुणस्थाने आहारकतन्मिश्रद्वयवा अन्ये पणवण्णं - पंचपंचाशत्प्रत्यया भवन्ति। विदिए पण्णं च- पुनः सासादनगुणस्थाने मिथ्यात्वपंचकाहारद्वयरहिता अन्ये पंचाशत्प्रत्यया भवन्ति। कम्मणेत्यादि, मिस्सेतृतीयमिश्रगुणस्थाने ये सासादने कथिताः पंचाशत्प्रत्ययाः। ते कथंभूताः ? कर्मणेत्यादि, कार्मणकार्ययोगानन्तानुबन्धि क्रोधमानमायालोभचतुष्कोना औदारिकमिश्रकायोनो वैक्रियिकमिश्रकायोन एतैः सप्तभि_ना अन्ये, तिदाला- त्रिचत्वारिंशत्प्रत्यया भवन्ति ।।७३॥
____ अन्वयार्थ- (पढमगुणे) प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में (पणवण्णं) ५५ पचपन आस्रव के कारण होते हैं। (विदिए पण्णं च) सासादन गुणस्थान में पचास (मिस्से) मिश्र गुणस्थान में (कम्मणअणूणा) कार्मण काययोग, अनन्तानुबन्धी चतुष्क को छोड़कर (मिस्सोरालिविउव्वियमिस्सूण) और औदारिक मिश्रकाययोग, वैक्रियिक मिश्र काययोग इन से रहित (तिदालया) तेतालीस आस्रव होते हैं।
भावार्थ- प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोग इन दोनों को छोड़कर ५५ बंध के कारण होते हैं। पुनः सासादन गुणस्थान में मिथ्यात्व पाँच और आहारकद्विक को छोड़कर ५० आस्रव होते हैं और मिश्रगुणस्थान में कार्मण काययोग, अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया लोभ
औदारिकमिश्रकाययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोग इन सातों से रहित तेतालीस आस्रव होते हैं।
हुंति छयालीसं खलु अयदे कम्मइयमिस्सदुगजुत्ता।
विदियकसायतसाजमदुमिस्सवेउब्बियकम्मूणा।। ७४।। भवन्ति षट्चत्वारिंशत् खलुअयते कार्मणमिद्विकयुक्ताः।। द्वितीयकषायत्रसायमद्विमिश्रवै क्रि यिक कार्मणो नाः ।।
सगतीसं देसे? खलु-निश्चितं, अयदे- चतुर्थेऽविरतगुणस्थाने मिश्रगुणस्थानोक्तास्त्रिचत्वारिंशत्प्रत्ययाः, कम्मइयमिस्सदुगजुत्ता-- इति, कार्मणौदारिकमिश्रवैक्रियिकमिश्रत्रययुक्ताः सन्तः, छयालीसं षट्चत्वारिंशत्प्रत्यया भवन्ति। सगतीसं देसे इति, उत्तरगाथायां सम्बन्धः। देसे - इति, पंचमे देशविरतगुणस्थाने
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सप्तत्रिंशत्प्रत्यया
ते ?
मायालोभचतुष्कं
विदियकसायतसाजमदुमिस्सवेउव्वियकम्मूणा द्वितीयकषायोऽप्रत्याख्यान- क्रोधमानतसाजम- इति, त्रसवधः, दुमिस्स - औदारिकमिश्रवैक्रियिकमिश्रद्वयं, वेउव्विय- इति, वैक्रियिककाययोगः, कम्म- इति, कार्मणकाययोग एतैर्नवभिरूनाः । कोऽर्थ ? येऽविरतगुणस्थानोक्ताः षट्चत्वारिंशद्वर्तन्ते ते एतैर्नवभिर्हीनाः सन्तः सप्तत्रिंशदास्त्रवा भवन्ति - ते सप्तत्रिंशत्प्रत्ययाः पंचमे गुणस्थाने भवन्तीति स्पष्टार्थः ॥ ७४ ॥
अन्वयार्थ - ( अयदे) चतुर्थ गुणस्थान में तीसरे गुण स्थान में कहे गये ४३ . आस्रव तथा (कम्मइयमिस्स दुगजुत्ता) कार्मण काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, वैक्रियिक मिश्र काययोग इन तीनों से युक्त (छयालीसं ) छयालीस आस्रव होते हैं । (विदियकसाय) द्वितीय कषाय अर्थात् अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ (तसाजम) सवध ( दुमिस्स) औदारिक मिश्र और वैक्रियिक मिश्र दो (वेउव्विय) वैक्रियिक काययोग (कम्मूणा) कार्मण काययोग इन नौ आस्रवों से रहित (सगतीसं देसे) पंचम गुणस्थान में सैंतीस (३७) आस्रव होते हैं ।
(६६)
भवन्ति ।
भावार्थ - चतुर्थ गुणस्थान में अप्रत्याख्यान आदि बारह कषाय चार मनोयोग चार वचनयोग, औदारिक काययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियककाययोग, वैक्रिकयमिश्रकाययोग और कार्मण काययोग ये तेरह योग, हास्यादि नौ नोकषाय बारह अविरति इस प्रकार छयालीस आस्रव होते हैं। पंचम गुणस्थान में प्रत्याख्यान आदि आठ कषाय, नौ नोकषाय चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिक काययोग ये नौ योग त्रस बध से रहित ग्यारह अविरति इस प्रकार सैंतीस आस्रव होते हैं ।
७५ ॥
सगतीसं देसे तह चउवीसं पच्चया पमत्ते य । आहारदुगे यारस अविरदिचउपञ्च्चयाणूणं ॥ सप्तत्रिंशद्देशो तथा चतुर्विंशतिप्रत्ययाः प्रमत्ते च । आहारकद्विकौ एकादशाविरतिचतुः प्रत्ययन्यूनाः ॥
सगतीसं देसे इति पदं पूर्वगाथायां व्याख्यातं । तह चउवीसं पच्चया पमत्ते यच पुनः तथा, पत्ते - इति, षष्ठे प्रमत्तगुणस्थाने चतुर्विंशतिः प्रत्यया भवन्ति । कथं ? देशविरतगुणस्थानोक्तसप्तत्रिंशत्प्रत्ययमध्ये आहारदुगे आहारकाहारकमिश्रद्वयं यदा क्षिप्यते तदा एकोनचत्वारिंशत्प्रत्यया भवन्ति । ते एकोनचत्वारिंशत्प्रत्ययाः, एयारस अविरदिचउपच्चयाणूणं इति, एकादशाविरतयः चत्वारः प्रत्याख्यान
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(६७)
क्रोधमानमायालोभा एतैः पंचदशभिर्न्यनाश्चतुर्विंशतिप्रत्ययाः स्युः ते षष्ठगुणस्थाने संभवतन्तीत्यर्थः । ते चतुर्विंशतिः किंनामानश्चेदुच्यंते- संज्वलनचतुष्कं हास्यादिनवनोकषाया अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिकाहारकाहारकमिश्रयोगास्त्रय एवं चतुर्विंशतिः ।। ७५ ।।
अन्वयार्थ- (“सगतीसं देसे) पूर्व गाथा में इसका अर्थ कहा गया। देश संयम गुणस्थान में ऊपर जो सैंतीस प्रत्यय कहे गये उनमें (आहारदुगे) आहारक काययोग और आहारक मिश्र काय योग मिलाने पर उनतालीस आस्रव हुए । उनमें से (यारस अविरदिचउपच्चयाणूण) ग्यारह अविरति और प्रत्याख्यान, क्रोध, मान, माया, लोभ, इन पन्द्रह आस्रवों को कम करने पर (पत्ते य) प्रमत्तगुणस्थान में (चउवीसं पच्चया) चौबीस प्रत्यय होते हैं ।
भावार्थ - "सगतीस देसे" ३७ आस्रव पंचम गुण स्थान में होते हैं । यह पूर्व गाथा में वर्णित किया जा चुका है। देश विरत गुणस्थान के सैंतीस (३७) आस्रवों में आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग इन दोनों को मिलाने पर उनतालीस हुए। उनमें से ग्यारह (११) अविरति और चार प्रत्यख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ इन १५ पन्द्रह को कम करने पर २४ प्रत्यय (आस्रव) छट्टे गुणस्थान में होते हैं। वे इस प्रकार से हैं- संज्वलन चतुष्क, हास्यादि नव नोंकषाय घार मनोयोग चार वचनयोग, औदारिक काययोग, आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग इस प्रकार चौबीस प्रत्यय जानना चाहिये ।
आहारदुगूणा दुसु बावीसं हासछक संदित्थी । पुंकोहाइविहीणा कमेण णवमं दसं जाण ।। ७६ ।। आहारकद्विकोना द्विषु द्वाविंशतिः हास्यषट्केन षंढस्त्री । पुंक्रोधादिविहीनाः क्रमेण नवमं दशमं जानीहि || आहारदुगूणा दुसु बावीसं दुसु- इति, अप्रमत्तापूर्वकरणयोर्द्धर्योद्वयोर्गुणस्थानयोः प्रमत्तोक्ताश्चतुर्विंशतिप्रत्यया ये आहारकाहारकमिश्रद्वयोनाः, बावीसं- द्वाविंशतिप्रत्ययाः स्युः । ते के चेदुच्यते संज्वलनं ४ नोकषायाः ६ मनोवचनयोगाः ८ औदारिककाययोगः १ एवं २२ द्वाविंशतिः । हे शिष्य ! नवमं गुणस्थानं जानीहि । हासेत्यादि हास्यरत्यरतिशोक भजुगुप्साषट्केन हीनं । कोऽर्थः ? नवमेऽनिवृत्तिकरणगुणस्थाने पूर्वोक्ता द्वाविंशतिप्रत्यया हास्यादिषट्कहीनाः सन्तः षोडश आस्रवा भवन्ति । ते किंनामानः ?
आहारदुगूण
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(६८) वेदत्रयः ३ संज्वलनचतुष्कं ४ मनोवचनयोगा अष्टौ औदारिककाययोगश्चैक एवं षोडश आस्रवा अनिवृत्तिकरणस्थाने भवन्तीत्यर्थः। हे विनेय! क्रमेण अनुक्रमेण, दसं जाणदशमगुणस्थानं विद्धि। हे स्वामिन्! दशमं गुणस्थानं कीदृशं वेद्मि तत्र कति प्रत्यया संभवन्तीति शिष्यप्रश्नाद्गुरुराह -दस सुहुमे इत्युत्तरगाथापदेन सम्बन्धः। ते दश के ? अनिवृत्तिकरणोक्ताः षोडश, संढित्थी'कोहाइविहीणा- इति, षंढस्त्रीपुंवेदत्रयसंज्जवलनक्रोधमानमायात्रिकहीनाः सन्तः दश। अथ च व्यक्तिः - सूक्ष्मसाम्परायदशमे अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिककाययोगसंज्वलनलोभौ द्वाविति दश।। ७६।।
७६ अन्वयार्थ- (दुसु) अप्रमत्त और अपूर्वकरण गुणस्थान में (आहारदुगूणा) प्रमत्त गुणस्थान में कथित चौबीस आस्रवों में से आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग को कम करने पर (बाबीसं) बाइस आस्रव होते हैं। (नवम) नवम गुणस्थान में (हासछक्कं) हास्यादि छह कषायों से रहित सोलह (१६) आस्रव होते हैं। दसवें सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में (संढित्थी'कोहाइविहीणा) नपुंसक, स्त्री वेद, पुंवेद संज्वलन क्रोध, मान और माया ये छह अर्थात् १६ आस्रवों में छह कम देने पर (दस) १० आस्रव (जाण) जानो।
भावार्थ- अप्रमत्त और अपूर्व करण गुणस्थान में प्रमत्त गुणस्थान में कथित चौबीस आस्रवों में से आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग इन दोनों को कम कर देने पर बाईस आस्रव होते हैं। वे इस प्रकार से हैं- संज्वलन क्रोधादि ४ कषाय नव नोकषाय, मनोवचनयोग ८, औदारिक काययोग १ इस प्रकार २२ आस्रव जानना चाहिए, नवमें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में २२ आस्रवों में से हास्यादि ६ नोकषाय कम करने पर १६ आस्रव होते हैं- वे इस प्रकार हैं- तीन वेद, संज्वलन चतुष्क ४, मनोवचन योग ८, औदारिक काययोग एक इस प्रकार १६ आस्रव अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में होते हैं। दशवें गुणस्थान में कितने आस्रव होते हैं ? इस प्रकार का प्रश्न करने पर आचार्य महाराज कहते हैं कि दसवें गुणस्थान में दस प्रत्यय होते हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में कहे गये १६ प्रत्ययों में वेद तीन अर्थात् पुंवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया कम कर देने पर दस प्रत्यय होते हैं। वे इस प्रकार से हैं- चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक काययोग और संज्वलन लोभ इस प्रकार दस आस्रव जानना चाहिये।
दस सुहुमे वि य दुसु णव सत्त सजोगिम्मि पच्चया हुँति। पच्चयहीणमणूणं अजोगिठाणं सया वंदे।। ७७।।
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(६६) दश सूक्ष्मेऽपि च द्वयोः नव सप्त सयोगे प्रत्यया भवन्ति। प्रत्ययहीनमन्यूनं अयोगिस्थानं सदा वन्दे।।
दस सुहुमे इति पदस्य व्याख्यानं पूर्वगाथायां कृतं, अवि य- अपि च, दुसुद्वयोः एकादशे उपशान्तकषाये द्वादशे क्षीणकषायगुणस्थाने च, णव- नव प्रत्ययाः संभवन्ति। अष्ट मनोवचनयोगा औदारिककाययोग एक एवं ६ ।सत्त सजोगिम्मि पच्चया हुंति-सयोगकेवलिनि सप्त प्रत्ययाः, हुंति - भवन्ति। ते के ? सत्यानुभयमनोवचनयोगा
औदारिकतन्मिश्रकार्मणकाययोगा एवं सप्त। पच्चयहीणमणूणं अजोगिठाणं सया वंदेइति, नमस्कुर्वे सदा, किं तत्? कर्मतापन्नं अयोगिकेवलिगुणस्थानं किं विशेषणाञ्चितं? पच्चयहीणं- सप्तपंचाशत्प्रत्ययैर्हीनं रहितं। पुनः किं विशिष्टं? अणूणं- अन्यूनं परिपूर्ण।। ७७॥
इति चतुर्दश गुणस्थानेषु प्रत्ययाः प्रोक्ताः। ____ अन्वयार्थ- (दस सुहुमे) सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में दस प्रत्यय होते हैं यह पूर्वोक्त गाथा में कहा गया। (दुसु) आगे उपशान्त कषाय और क्षीण कषाय गुणस्थान इन दो गुणस्थानों में (णव) नौ आस्रव होते हैं। (सजोगिम्मि) सयोग केवली गुणस्थान में (सत्त) सात (पच्चया) प्रत्यय (हुति) होते हैं। (पच्चयहीणमणूणं) आस्रवों से रहित (अजोगिठाणं) अयोग केवली को (सया) सदा (वंदे) वंदना करता हूँ।
भावार्थ- सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान में दस प्रत्यय होते हैं इसका व्याख्यान पूर्व की गाथा में किया गया। ग्यारहवें उपशान्त कषाय गुणस्थान और क्षीण कषाय गुणस्थान में नौ प्रत्यय होते हैं वे इस प्रकार से हैं- चार मनोयोग, चार वचनयोग
और १ औदारिक काययोग इस प्रकार ६सयोगकेवली गुणस्थान में सात प्रत्यय होते हैं वे इस प्रकार से हैं- सत्य मनोयोग, अनुभय मनोयोग, सत्य वचनयोग, अनुभय'चनयोग, औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग इस प्रकार सम्मिलित सात आस्रव होते हैं। समस्त आस्रवों से रहित अयोग केवली की मैं सदा वंदना करता हूँ। इति चतुर्दशगुणस्थानेषु प्रत्ययाः प्रोक्ताः।
इस प्रकार १४ गुणस्थानों में आस्रव कहे।
पवयणपमा गलक्खणछंदालंकाररहि यहियएण। जिणइंदेण पउत्तं इणमागमभत्तिजुत्तेण॥ ७८॥
प्रवचनप्रमाणलक्षणच्छन्दोऽलङाररहितह्रदयेन।
जिनचन्द्रेण प्रोक्तं इदं आगमभक्तियुक्तेन। इणं- सिद्धान्तसारशास्त्रं पउत्तं- प्रोक्तंकेन क; ? जिणइंदेण जिनचन्द्रनाम्ना
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(७०)
सिद्धान्तग्रन्थवेदिना । कथंभूतेन जिनचन्द्रेण ? पवयणेत्यादि- प्रवचनप्रमाणलक्षणच्छन्दोलङ्काररहितह्रदयेन । पुनरपि कथंभूतेन ? आगमभत्तिजुत्तेण - जिनसूत्रस्य भक्तिः सेवा ताय युक्तेन ॥ ७८ ॥
७८ अन्वयार्थ - (आगमभत्ति जुत्तेण) आगम की भक्ति से युक्त (पवयणपमाण लक्खणछंदालंकार रहियहियएण) प्रवचन, प्रमाण, लक्षण, छन्द, अलंकार से अनभिज्ञ (जिण इंदेण) जिनचन्द्र के द्वारा (इणं) यह सिद्धांतसार नामक ग्रंथ (पउत्तं) कहा गया। भावार्थ - आचार्य जिनचन्द्र अपनी लघुता प्रकट करते हुए कहते हैं कि प्रवचन, प्रमाण, लक्षण, छंद और अलंकार से रहित होते हुए भी मैंने सिद्धांत की भक्ति से प्रेरित होकर यह सिद्धांत सार नामक ग्रंथ कहा ।
सिद्धंतसारं वरसुत्तगेहा, सोहंतु साहू मयमोहचत्ता । पूरंतु हीणं जिणणाहभत्ता, विरायचित्ता सिवमग्गजुत्ता। ७६ ॥
सिद्धान्तसारं वरसूत्रगेहाः, शोधयन्तुः साधवो मदमोहत्यक्ताः । पूरयन्तु हीनं जिननाथभक्ताः, विरागचित्ताः शिवमार्गयुक्ताः ॥ कविः कथयति, साहू - इति, भोः साधवः ! इमं सिद्धान्तसारं ग्रन्थं, सोहंतुशुद्धीकुर्वन्तु अपशब्दरहितं कुर्वन्तु । पुनरपि भोः साधवः ! पूरंतु हीणं- अस्मिन् ग्रन्थे मया यत्किंचिद्धीनं प्रतिपादितं भवति तद्भवन्तः, पूरंतु पूरयन्तु पूर्णं कृत्वा प्रतिपादयन्तु । कथंभूताः साधवः ? वरसुत्तगेहा- वराणि च तानि सूत्राणि जिनवचननानि तेषां गेहा मन्दिरप्रायाः । पुनरपि कथंभूताः ? मयमोहचत्तामदमोहरत्यक्ताः । पुनरपि कथंभूताः ? जिणणाहभत्ता जिननाथभक्ताः । पुनरपि कथंभूताः ? विरायचित्ता - विगतो रागो यस्मात् तत्, विरागं चित्तं मानसं येषां ते विरागचित्ताः। अनु च किं विशेषणांचिताः ? सिवमग्गजुत्ता- इति, शिवमार्गो, मोक्षमार्गः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणः तेन युक्ताः शिवमार्गयुक्ताः ॥ ७६॥ इति सिद्धान्तसारभाष्यम्।
अन्वयार्थ - ( वरसुत्तगेहा) जिनेन्द्र भगवान के वचन ही हैं मन्दिर (घर) जिनके (मयमोहचत्ता) मद और मोह को त्याग दिया है जिन्होंने (जिणणाहभत्ता) जिनेन्द्र देव के जो भक्त हैं (विरायचित्ता) राग से रहित है चित्त जिनका (सिवमग्ग जुत्ता) शिवमार्ग अर्थात् मोक्षमार्ग में जो संलग्न हैं ऐसे (साहू) साधु (सिद्धंतसारं) सिद्धांतसागर नामक ग्रन्थ का (सोहंतु ) संशोधन करें और (हीणं) जो कुछ कहना योग्य था किन्तु कहा नहीं गया हो उसे ( पूरंतु ) पूर्ण करे ।
इस प्रकार सिद्धान्तसार पूर्ण हुआ ।
编
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