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________________ (१५) की अपेक्षा मिथ्यात्व गुणस्थान को आदि लेकर सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान पर्यन्त दश गुणस्थान होते हैं। इस प्रकार कषाय मार्गणा समाप्त हुई। कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और विभंगावधि ज्ञान इन तीनों ज्ञानों के प्रत्येक में दो गुणस्थान अर्थात् मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान इन तीनों ज्ञानों में चतुर्थ गुणस्थान अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीण कषाय पर्यन्त बारहवें गुणस्थान तक नौ गुणस्थान होते हैं। सग मणपज्जे केवलणाणे जोगदुर्ग पमत्तादी। चदु सामाइयजुयले पमत्तजुयलं च परिहारे।। १६ ।। सप्त मनःपर्यये केवलज्ञाने योगिद्विकं प्रमत्तादीनि। चत्वारि सामयिकयुगले प्रमत्तयुगलं च परिहारे। सग मणपज्जे- मणपज्जे इति, मनःपयर्यज्ञाने, सग-इति, सप्त गुणस्थानानि स्युः। तानि कानि चेदुच्यते प्रमत्तादिक्षीणकषायपर्यन्तानि सप्त भवन्ति। केवलणाणे जोगदुगं- केवलज्ञाने योगद्विकं सयोगायोगकेवलिगुणस्थानद्वयं भवति। इति ज्ञानमार्गणा। पमत्तादी चदु सामाइयजुयले- सामायिकयुगले सामायिकच्छेदोपस्थापनद्वयोः प्रमत्ताद्यनिवृत्ति करणगुणस्थानपर्यन्तानि चत्वारि भवन्ति। पमत्तजुयलं च परिहारे- परिहारविशुद्धिसंयमे तृतीये प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानद्वयं भवति।।१६।। अन्वयार्थ- (मणपज्जे) मनःपर्ययज्ञान में (सग) सप्त गुणस्थान (केवलणाणे) केवलज्ञान में (जोगदुर्ग) सयोग केवली और अयोग केवली (सामायिक जुयले) सामायिक युगल अर्थात् सामायिक और छेदोपस्थापना संयम में (पमत्तादि चदु) प्रमत्तादि चार गुणस्थान (च) और (परिहारे) परिहारविशुद्धि संयम में (पमत्तजुगलं) प्रमत्त युगल अर्थात् प्रमत्त और अप्रमत्त ये दो गुणस्थान होते हैं। भावार्थ- मनःपर्यय ज्ञान में प्रमत्त गुणस्थान से क्षीणकषाय गुणस्थान तक अर्थात् बारहवें गुणस्थान तक सात गुणस्थान होते हैं। केवलज्ञान में सयोग केवली और अयोग केवली ये दो गुणस्थान होते हैं। इस प्रकार ज्ञान मार्गणा समाप्त हुई। सामायिक और छेदोपस्थापना संयम इन दो संयमों में प्रमत्त संयत गुणस्थान से अनिवृत्तिकरण गुणस्थान अर्थात् छठवें से नौवें गुणस्थान तक चार गुणस्थान होते हैं। परिहारविशुद्धि तृतीय संयम में प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत ये दो गुणस्थान होते सुहमे सुहमं अंतिमचत्तारि हवंति जहखादे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002711
Book TitleSiddhantasara
Original Sutra AuthorJinchandra Acharya
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherDigambar Sahitya Prakashan
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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