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वैक्रियिकमिश्रौदारिकमित्रैः पंचभिर्हाना अन्येः, बावण्णा-द्वापंचाशदात्रवाः स्युः। "मिच्छंअणपंचचउहीणा'' पदव्याख्याग्रगाथायां।। ५७।।
___ अन्वयार्थ- (कुमइदुगे) कुमति और कुश्रुत ज्ञान में (आहारदुगूण) आहारककाय योग और आहारक मिश्र काययोग को छोड़कर (पणवण्णं) पचपन आस्रव होते हैं। (वेभंगे) विभंगावधि ज्ञान में आहारकद्विक (कम्म मिस्सूणा) कार्मण काययोग, औदारिक मिश्र काययोग और वैक्रियिक मिश्र काय योग इन पांच योगों से रहित (बावण्णा) बावन आस्रव होते हैं। “मिच्छंअणपंचचउहीणा'', इस पद की व्याख्या आगे की गाथा में की गई है।
णाणतिए अडदालाऽसंढित्थीणोकसाय मणपज्जे। वीसं चउसंजाला णवादिजोगा सगंतिल्ले॥ ५८॥
ज्ञानत्रिके अष्टचत्वारिंशत् अषण्ढस्त्रीनोकषाया मनःपर्यये।
विंशतिः चतुःसंज्वलनाः नवादियोगा सप्तान्तिमे।। मिच्छंअणपंचचउहीणा णाणतिए अडदाला- णाणतिए- ज्ञानत्रिके सुमतिश्रुतावधिज्ञानेषु मिथ्यात्वपंचकान्तानुबधिचतुष्कहीना अन्ये अष्टाचतवारिंशत्प्रत्ययाः स्युः। असंढीत्यादि- मणपज्जे-- मनःपर्ययज्ञाने, वीसं-- विंशतिः प्रत्यया भवन्ति-के ते? असंढित्थीणोकयाय- षढस्त्रीवेदद्वयवा अन्ये पुंवेदहास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सानामानः सप्त नोकषायः, चउसंजाला-चत्वारः संज्वलनक्रोधमानमायालोभाः, णवादिजोगा अष्यै मनोवचनयोगा औदारिक एक इति नव ते सर्वे पिण्डीकृता विंशतिरास्त्रवाः। संगतिल्ले- अंतिल्ले - अन्तज्ञाने केवलज्ञाने, सगसप्तप्रत्यया भवन्ति। के ते? सत्यमनोयोगानुभयमनोयोगसत्यवचन योगानुभयवचन योगाश्चत्वार औदारिकौदारिकमिश्रकार्मणकाययोगात्रय एवं सप्त। इति ज्ञानमार्गणायामास्त्रवाः।। ५८॥
अन्वयार्थ- (णाणतिए) मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों में (मिच्छंअणपंचचउहीणा) पांच मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी चार कषाय इनसे रहित (अडदाल) अड़तालीस आस्रव होते हैं। (मणपज्जे) मनःपर्यय ज्ञान में (असंढित्थी णोकसाय) नपुंसक वेद एवं स्त्रीवेद से अन्य शेष सात नोकषाय (चउसंजाला) चार संज्वलन कषाय (णवादिजोगा) और आदि के नौ योग इस प्रकार (वीसं) बीस आस्रव होते हैं। (सगंतिल्ले) अंतिम केवलज्ञान में सात आश्रव होते हैं।
भावार्थ- मति, श्रुत और अवधिज्ञान में पांच मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चतुष्य
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