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________________ (५०) बारसकसायहीणा स्वकीयस्वकीयकषायचतुष्करहिता इतरद्वादशकषायहीनाः । क्रोधचतुष्के यदा स्वकीयं क्रोधचतुष्कं गृह्यते तदा इतरे द्वादश कषाया न भवन्ति । यदा मानचतुष्के स्वकीयमानचतुष्कं गृह्येते तदा तदपरे द्वादशकषाया न स्युः । एवं मायालोभयोर्योजनीयं । अनु च स्पष्टार्थं पंचचत्वारिंशत्प्रत्यया गण्यन्ते, किं नामानः ? तथा हि- अनन्तानुबन्ध्यादिक्रोधचतुष्के मिथ्यात्व ५ अविरति १२ अनन्तानुबन्ध्यादिक्रोधचतुष्कं ४ योग १५ हास्यादि ६ एवं ४५ । अयं क्रमः मानचतुष्के मायाचतुष्के लोभचतुष्के संभावनीयः । इति कषायमार्गणायां कषायाः ? ।। ५६ ।। गाथार्थ ५६ - ( इत्थिणउंसयवेदे ) स्त्री और नपुंसक वेद में (आहारय उहयपरिहीणा) आहारक द्विक को छोड़कर तथा अपने वेद से अन्य वेदों को छोड़कर त्रेपन आस्रव होते हैं । (पुरिसे) पुरुष वेद में अपने वेद को छोड़कर अन्य वेदों से रहित पचपन आस्रव होते हैं। (कोहपमुहेसु) क्रोध, मान, माया, लोभ, चतुष्क में (णि) अपनी अपनी कषाय से ( रहिय) रहित ( इयर बारस कसाय हीणा) शेष बारह कषायों से रहित (पणदाला) पैंतालीस आस्रव होते हैं । भावार्थ- स्त्रीवेद और नपुंसक वेद में आहारक द्विक और स्वकीय वेद से अन्य वेद को छोड़कर पांच मिथ्यात्व बारह अविरति, तेईस कषाय तेरह योग इस प्रकार तिरेपन आस्रव होते हैं । नपुंसक वेद और स्त्री वेद को छोड़कर पुरुष वेद में पचपन आस्रव होते हैं । कषाय मार्गणा की अपेक्षा क्रोध कषाय में अनन्तानुबंधी आदि चार प्रकार के क्रोध में अर्थात् अनंतानुबंधी क्रोध, अप्रत्याख्यान क्रोध, प्रत्याख्यान क्रोध और संज्वलन क्रोध में पांच मिथ्यात्व, बारह अविरति, पन्द्रह योग, चार प्रकार का क्रोध, हास्यादि नौ कषाय इस प्रकार पैंतालीस आस्रव होते हैं इसी प्रकार मान, माया और लोभ कषायों में भी पैंतालीस - पैंतालीस आस्रव होते हैं। दो गाथाओं द्वारा ज्ञान मार्गणा में आस्रव कहते हैंकुमइदुगे पणवण्णं आहारदुगूण कम्ममिस्सूणा । बावण्णा बेभंगे मिच्छं अणपंचचउहीणा ।। ५७ ॥ कुमतिके पंचपंचाशत् आहारकद्विकोनाः कर्ममिश्रोनाः । द्वापंचाशत् विभंगे मिथ्यात्वानपंचचतुर्हीना।। कुमइदुगे कुमतिज्ञाने कुश्रुतज्ञाने च पणवण्णं आहारदुगूण-आहारकाहारकमिश्रद्विकोना अन्ये, पणवण्णं कम्ममिसूणा बावण्णा वेभंगे - विभंगे क्कवधिज्ञाने आहारकाहारकमिश्रकार्मण पंचपंचाशत्प्रत्यया भवन्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002711
Book TitleSiddhantasara
Original Sutra AuthorJinchandra Acharya
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherDigambar Sahitya Prakashan
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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