________________
(८) समासाश्चक्षुर्दर्शने भवन्तीत्यर्थः।।८।।
(८) अन्वयार्थ- (मणकेवलेसु) मनःपर्यय और केवलज्ञान इन दोनों ज्ञानों में पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक एक ही जीवसमास होता है। (सामाइयादिछसु तह य) सामायिकादि छह संयममार्गणा में एक पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक जीव समास पाया जाता है। (चउदस असंजमे) असंयम में चौदह जीव समास होते हैं (पुण लोयणअवलोपणे छक्कं) पुनः चक्षुदर्शन में छह जीव समास होते हैं।
भावार्थ- मनःपर्यय ज्ञान और केवलज्ञान इन दोनों ज्ञानों में पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक एक ही जीव समास होता है। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म-साम्पराय, यथाख्यात इन पांच संयम और देश संयम में इन सभी में संज्ञी पर्याप्तक एक ही जीव समास होता है और संयम मार्गणा के अन्तर्गत असंयम में चौदह जीव समास पाये जाते हैं। पुनः चक्षुदर्शन में छह जीव समास इस प्रकार होते हैंचतुरिन्द्रिय में पर्याप्तक अपर्याप्तक दो, पंचेन्द्रिय असंज्ञी में पर्याप्तक अपर्याप्तक दो, पंचेन्द्रिय संज्ञी में अपर्याप्तक और पर्याप्तक इस प्रकार दो। इस प्रकार चक्षु दर्शन में छह जीव समास जानना चाहिए।
चउदस अचक्खुलोए दो एकं अवहिकेवलालोए। किण्हादितिए चउदस तेजाइसु सण्णियदुगं च।। ६॥
चतुर्दश अचक्षुरालोके द्वौ एकोऽवधिकेवलालोके।
कृष्णादित्रिके चतुर्दश तेजआदिषु संज्ञिद्विकं च। चउदस अचक्खुलोए- अचक्षुर्दर्शने चतुर्दशजीवसमासा भवन्ति। दो एक्कं अवहिकेवलालोए- अत्र यथासंख्येन व्याख्या, अवधिज्ञाने पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ जीवसमासौ भवतः, केवलदर्शने पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तक एक एव जीवसमार: स्यात्। किण्हादितिए चउदस-कृष्णादित्रिके कृष्णनीलकापोतासु लेश्यासु तिसृषु चतुर्दश-जीवसमासा ज्ञेयाः। तेजाइसु सण्णियदुगं च- तेजआदिषु पीतपद्मशुक्ललेश्यात्रिके पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासद्विकं भवति॥६॥
(E) अन्वयार्थ- (अचक्खुलोए) अचक्षु दर्शन में (चउदस) चौदह जीव समास होते हैं। (अवहिकेवलालोए दो एकं) अवधिदर्शन में दो केवल दर्शन में एक (किण्हादितिए) कृष्णनीलादि तीन लेश्याओं में (चउदस) चौदह जीव समास (तेजाइसु) पीतादि तीन लेश्याओं में (सण्णिदुर्ग) संज्ञी द्विक अर्थात् संज्ञी पर्याप्तक और संज्ञी अपर्याप्तक इस प्रकार दो जीव समास जानना चाहिए।
भावार्थ- अचक्षुदर्शन में चौदह जीव समास होते हैं। अवधिदर्शन में पंचेन्द्रिय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org