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________________ (७) चोद्दस इगि वेभंगे मइसुइअवहीसु सणिदुगं ।। ७ ।। षंढे क्रोधे माने मायालोभयोः च कुमतिकुश्रुतयोः च । चतुर्दश एको विभंगे मतिश्रुतावधिषु संज्ञिद्विकं ।। संढे - नपुंसकवेदे चतुर्दश जीवसमासा भवन्ति । तथा, कोहे माणे मायालोहे य- क्रोधे माने मायायां लोभे च चतुर्दश जीवसमासा भवन्ति । तथा, कुमइकुसुईकुमतौ कुश्रुतौ च चतुर्दश जीवसमासा भवन्ति । इगि वेभंगे - विभंगे क्कवधिज्ञाने एकः पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तक एव। मइसुइअवहीसु सण्णिदुगं - मतिश्रुत्यवधिज्ञानेषु त्रिषु प्रत्येकं सण्णिदुगं- पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ जीवसमासौ स्त इत्यर्थः ।। ७ ।। अन्वयार्थ - (संढे ) - नपुंसक वेद में (चोइस) चौदह जीव समास और (कोहे माणे माया लोहे य) क्रोध, मान, माया और लोभ में (चोइस) चौदह जीव समास होते हैं। (कुमइ कुसुईये य) कुमति और कुश्रुत में (चोद्दस ) चौदह जीव समास होते हैं। (इगि वेभंगे) विभंगावधि ज्ञान में एक जीव समास (मइसुइअवहीसु) मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान इन तीनों में (सण्णिदुगं) संज्ञी दो जीव समास होते हैं । भावार्थ- नपुंसक वेद में चौदह जीव समास और क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों में चौदह जीव समास होते हैं। तथा कुमति और कुश्रुत ज्ञान में चौदह जीव समास होते हैं । विभंगावधिज्ञान में एक पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक ही जीव समास होता है । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान इन तीनों ज्ञानों में प्रत्येक में पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक और अपर्याप्तक इस प्रकार दो-दो जीवसमास जानना चाहिए । मणकेवलेसु सण्णी पुण्णो सामाइयादिछसु तह य । चउदस असंजमे पुण लोयणअवलोयणे छकं ॥ ८ ॥ मनः केवलयोः संज्ञी पूर्णः सामायिकादिषट्सु तथा च । चतुर्दश असंयमे पुनः लोचनावलोकने षट्कं ॥ मणकेवलेसु सण्णी पुणो मनःपर्ययकेवलज्ञानयोः द्वयोः पंचेन्द्रिय 1 संज्ञिपर्याप्त एव एकजीवसमासो भवति । सामाइयादिछसु तह य- तथा तेनैव प्रकारेण च देशसंयम सामायिक - च्छेदोपस्थापना - परिहारविशुद्धि सूक्ष्मसाम्यराययथाख्यातसंयतेषु षट्सु संयमेषु प्रत्येकं संज्ञिपर्याप्त एक एव स्यात् । चउदस असंजमेअसंयमनाम्नि सप्तमे संयमे चतुर्दशजीव समासा भवन्ति । पुण लोयणअवलोयणे छक्कंपुनः लोचनावलोकने चक्षुर्दर्शने जीवसमासषट्कं भवति । चतुरेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ, पंचेन्द्रियासंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ, पंचेन्द्रियसज्ञिपर्यापप्तापयाप्तौ उभौ इति षट्जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002711
Book TitleSiddhantasara
Original Sutra AuthorJinchandra Acharya
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherDigambar Sahitya Prakashan
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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