SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तत्रिंशत्प्रत्यया ते ? मायालोभचतुष्कं विदियकसायतसाजमदुमिस्सवेउव्वियकम्मूणा द्वितीयकषायोऽप्रत्याख्यान- क्रोधमानतसाजम- इति, त्रसवधः, दुमिस्स - औदारिकमिश्रवैक्रियिकमिश्रद्वयं, वेउव्विय- इति, वैक्रियिककाययोगः, कम्म- इति, कार्मणकाययोग एतैर्नवभिरूनाः । कोऽर्थ ? येऽविरतगुणस्थानोक्ताः षट्चत्वारिंशद्वर्तन्ते ते एतैर्नवभिर्हीनाः सन्तः सप्तत्रिंशदास्त्रवा भवन्ति - ते सप्तत्रिंशत्प्रत्ययाः पंचमे गुणस्थाने भवन्तीति स्पष्टार्थः ॥ ७४ ॥ अन्वयार्थ - ( अयदे) चतुर्थ गुणस्थान में तीसरे गुण स्थान में कहे गये ४३ . आस्रव तथा (कम्मइयमिस्स दुगजुत्ता) कार्मण काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, वैक्रियिक मिश्र काययोग इन तीनों से युक्त (छयालीसं ) छयालीस आस्रव होते हैं । (विदियकसाय) द्वितीय कषाय अर्थात् अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ (तसाजम) सवध ( दुमिस्स) औदारिक मिश्र और वैक्रियिक मिश्र दो (वेउव्विय) वैक्रियिक काययोग (कम्मूणा) कार्मण काययोग इन नौ आस्रवों से रहित (सगतीसं देसे) पंचम गुणस्थान में सैंतीस (३७) आस्रव होते हैं । (६६) भवन्ति । भावार्थ - चतुर्थ गुणस्थान में अप्रत्याख्यान आदि बारह कषाय चार मनोयोग चार वचनयोग, औदारिक काययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियककाययोग, वैक्रिकयमिश्रकाययोग और कार्मण काययोग ये तेरह योग, हास्यादि नौ नोकषाय बारह अविरति इस प्रकार छयालीस आस्रव होते हैं। पंचम गुणस्थान में प्रत्याख्यान आदि आठ कषाय, नौ नोकषाय चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिक काययोग ये नौ योग त्रस बध से रहित ग्यारह अविरति इस प्रकार सैंतीस आस्रव होते हैं । Jain Education International ७५ ॥ सगतीसं देसे तह चउवीसं पच्चया पमत्ते य । आहारदुगे यारस अविरदिचउपञ्च्चयाणूणं ॥ सप्तत्रिंशद्देशो तथा चतुर्विंशतिप्रत्ययाः प्रमत्ते च । आहारकद्विकौ एकादशाविरतिचतुः प्रत्ययन्यूनाः ॥ सगतीसं देसे इति पदं पूर्वगाथायां व्याख्यातं । तह चउवीसं पच्चया पमत्ते यच पुनः तथा, पत्ते - इति, षष्ठे प्रमत्तगुणस्थाने चतुर्विंशतिः प्रत्यया भवन्ति । कथं ? देशविरतगुणस्थानोक्तसप्तत्रिंशत्प्रत्ययमध्ये आहारदुगे आहारकाहारकमिश्रद्वयं यदा क्षिप्यते तदा एकोनचत्वारिंशत्प्रत्यया भवन्ति । ते एकोनचत्वारिंशत्प्रत्ययाः, एयारस अविरदिचउपच्चयाणूणं इति, एकादशाविरतयः चत्वारः प्रत्याख्यान , For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002711
Book TitleSiddhantasara
Original Sutra AuthorJinchandra Acharya
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherDigambar Sahitya Prakashan
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy