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समा
श्रीमान्बभूव
मार्तण्डस्तत्पट्टोदयभूधरे। पद्यमनन्दी बुधानन्दी तमच्छेदी मुनिप्रभु।। १३॥ तत्पट्टाम्बुधिसञ्चन्द्रः शुभचन्द्रः सतां वरः। पंचाक्षवनदावाग्निः कषायक्ष्माधराशनिः।। १४॥ तदीयप्टाम्बरभानुमाली क्षमादिनानागुणरत्नशाली। भट्टारक री जिनचनद्र नामा सैद्धान्तिकानां भुवि योस्ति सीमा।।
१५॥ इससे मालूम होता है कि ये जिनचन्द्र भी सैद्धान्तिक विद्वान् थे और इस लिए उक्त सिद्धान्तसार का इनके द्वारा भी निर्मित होना सब प्रकार से संभव है।
इस सिद्धान्तसार की एक कनड़ी टीका भी है जो प्रभाचन्द्र की बनाई हुई है और आरा के सरस्वती भवन में मौजूद है। यह कबकी बनी हुई है, यह नहीं मालूम हो सका।
भट्टारक श्री ज्ञान भूषण जी का जीवन परिचय
भट्टारक श्री ज्ञानभूषण जी ने सिद्धान्तसार के भाष्य में यधपि अपना कोई स्पष्ट परिचय नहीं दिया है और न उसमें कोई प्रशस्ति ही है, परंतु मंगलाचरण के नीचे लिखे शोक से मालूम होता है कि वह भ. ज्ञानभूषण का ही बनाया हुआ है। ग्रंथ के आदि में मंगलाचरण निम्न प्रकार से प्रस्तुत है
श्री सर्वज्ञं प्रणम्यादौ लक्ष्मी वीरेन्दु सेवितम्। भाष्यं सिद्धान्तसारस्य वक्ष्ये ज्ञानसुभूषणम्।।
इस मंगलाचरण में सर्वज्ञको जो ज्ञान भूषण विशेषण दिया है, वह निश्चय ही भाष्यकर्ता का नाम है।
उक्त मंगलाचरण के लक्ष्मीचन्द्र वीरेन्दुसेवितम् पद से यह भी मालूम होता है कि लक्ष्मी चन्द्र और वीरेन्द्र नाम के उनके (ज्ञानभूषण के) कोई शिष्य या प्रशिष्यादि होंगे जिनके पढ़ने के लिए उक्त भाष्य बनाया गया होगा। ज्ञानभूषण के प्रशिष्य शुभचन्द्राचार्य की बनाई हुई स्वामिकीर्ति के यानु पेक्षा-टीका की प्रशस्ति के १०-११ वें थोक में इन लक्ष्मीचन्द्र वीरचन्द्र का उल्लेख है और उस उल्लेख से हम कह सकते हैं कि भाष्य के मंगलाचरण का ‘लक्ष्मीवीरेन्दुसेवितम' पद उन्हीं को लक्ष्य करके लिखा गया है।
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