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(४७) अन्वयार्थ ५२- (एदे य) एकेन्द्रियों में कहे गये अड़तीस आस्रवों में (वियलेसु) विकलेन्द्रियों में (कमेण) क्रम से (अंतभासारसण जुया) द्वीन्द्रिय में अनुभय वचनयोग और रसना इन्द्रिय सहित (चाल) चालीस आस्रव, त्रीन्द्रिय जीवों के (घ्राण) घ्राण (संजुत्ता) सहित (इगिचालं) इकतालीस आस्रव, चतुरिन्द्रिय के (चक्खु) चक्षु सहित (वेयालं) बयालीस आस्रव (विण्णेया) जानना चाहिए।
भावार्थ - द्वीन्द्रिय के पांच मिथ्यात्व स्त्रीवेद और पुरुष वेद को छोडकर शेष २३ कषाय अनुभय वचन योग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग ये चार योग, षट्काय अविरति तथा स्पर्शन, रसना इन्द्रिय ये दो इन्द्रिय अविरति इस प्रकार समस्त चालीस आस्रव होते हैं। त्रीन्द्रिय जीवों के उक्त चालीस और घ्राण इन्द्रिय सहित इक्तालीस चतुरिन्द्रिय के घ्राण और चक्षु इन्द्रिय सहित बयालीस आस्रव होते हैं।
पंचेंदिए तसे तह सवे एयक्खउत्त अडतीसा। थावरपणए गणिया गणणाहेहिं पचया णियमा।। ५३ ।।
पंचेन्द्रिये त्रसे तथा सर्वे एकाक्षोक्ता अष्टात्रिंशत् ।
स्थावरपंचके गणिता गणनाथैः प्रत्यया नियमात्।। पंचेत्यादि। पंचेन्द्रिये जीवे नानाजीवापेक्षया सर्वे प्रत्यया भवन्ति। इन्द्रियमार्गणासु प्रत्ययाः। तसे तह सव्वे- तथा त्रसे त्रसकाये सर्वे सप्तपंचाशनानाजीवापेक्षया आस्रवा भवन्ति। थावरपणए- स्थावरपंचके पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायेषु पंचसु, एयक्खउत्त अडतीसा-एकेन्द्रिये ये उक्ता अष्टात्रिंशत्प्रत्यया एव ते भवन्तीत्यर्थः । गणिया गणणाहेहिं पच्चया णियमा-नियमानश्चयात् गणनाथैर्गणधरैः प्रत्यया गणिता यथासंभवं संख्यां नीताः। इति कायमार्गणास्वास्त्रवाः।। ५३॥
___अन्वयार्थ ५३-- (गणणाहेहिं) गणधर देव ने (नियमा) नियम से (पंचेंदिए) पंचेन्द्रिय जीवों के (सव्वे) सभी आस्रव कहे हैं। (तह) उसी प्रकार (तसे) त्रसकाय जीवों के (सव्वे) सभी आस्रव होते हैं। (थावर पणए) पांच स्थावरकायिकों के (एयक्खउत्त) एकेन्द्रिय के समान (अडतीसा) अड़तीस आश्रव (गणिया) कहे हैं।
भावार्थ ५३-- पंचेन्द्रिय जीव और त्रस कायिकों के नाना जीवों की अपेक्षा सभी अर्थात् सत्तावन आश्रव होते हैं। स्थावरकायिकों के अर्थात् पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक जीवों के एकेन्द्रिय के समान कार्मण काययोग, औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग, इस प्रकार ये
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