Book Title: Siddhantasara
Author(s): Jinchandra Acharya, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Digambar Sahitya Prakashan

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Page 83
________________ (६८) वेदत्रयः ३ संज्वलनचतुष्कं ४ मनोवचनयोगा अष्टौ औदारिककाययोगश्चैक एवं षोडश आस्रवा अनिवृत्तिकरणस्थाने भवन्तीत्यर्थः। हे विनेय! क्रमेण अनुक्रमेण, दसं जाणदशमगुणस्थानं विद्धि। हे स्वामिन्! दशमं गुणस्थानं कीदृशं वेद्मि तत्र कति प्रत्यया संभवन्तीति शिष्यप्रश्नाद्गुरुराह -दस सुहुमे इत्युत्तरगाथापदेन सम्बन्धः। ते दश के ? अनिवृत्तिकरणोक्ताः षोडश, संढित्थी'कोहाइविहीणा- इति, षंढस्त्रीपुंवेदत्रयसंज्जवलनक्रोधमानमायात्रिकहीनाः सन्तः दश। अथ च व्यक्तिः - सूक्ष्मसाम्परायदशमे अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिककाययोगसंज्वलनलोभौ द्वाविति दश।। ७६।। ७६ अन्वयार्थ- (दुसु) अप्रमत्त और अपूर्वकरण गुणस्थान में (आहारदुगूणा) प्रमत्त गुणस्थान में कथित चौबीस आस्रवों में से आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग को कम करने पर (बाबीसं) बाइस आस्रव होते हैं। (नवम) नवम गुणस्थान में (हासछक्कं) हास्यादि छह कषायों से रहित सोलह (१६) आस्रव होते हैं। दसवें सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में (संढित्थी'कोहाइविहीणा) नपुंसक, स्त्री वेद, पुंवेद संज्वलन क्रोध, मान और माया ये छह अर्थात् १६ आस्रवों में छह कम देने पर (दस) १० आस्रव (जाण) जानो। भावार्थ- अप्रमत्त और अपूर्व करण गुणस्थान में प्रमत्त गुणस्थान में कथित चौबीस आस्रवों में से आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग इन दोनों को कम कर देने पर बाईस आस्रव होते हैं। वे इस प्रकार से हैं- संज्वलन क्रोधादि ४ कषाय नव नोकषाय, मनोवचनयोग ८, औदारिक काययोग १ इस प्रकार २२ आस्रव जानना चाहिए, नवमें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में २२ आस्रवों में से हास्यादि ६ नोकषाय कम करने पर १६ आस्रव होते हैं- वे इस प्रकार हैं- तीन वेद, संज्वलन चतुष्क ४, मनोवचन योग ८, औदारिक काययोग एक इस प्रकार १६ आस्रव अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में होते हैं। दशवें गुणस्थान में कितने आस्रव होते हैं ? इस प्रकार का प्रश्न करने पर आचार्य महाराज कहते हैं कि दसवें गुणस्थान में दस प्रत्यय होते हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में कहे गये १६ प्रत्ययों में वेद तीन अर्थात् पुंवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया कम कर देने पर दस प्रत्यय होते हैं। वे इस प्रकार से हैं- चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक काययोग और संज्वलन लोभ इस प्रकार दस आस्रव जानना चाहिये। दस सुहुमे वि य दुसु णव सत्त सजोगिम्मि पच्चया हुँति। पच्चयहीणमणूणं अजोगिठाणं सया वंदे।। ७७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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