Book Title: Siddhantasara
Author(s): Jinchandra Acharya, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Digambar Sahitya Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 85
________________ (७०) सिद्धान्तग्रन्थवेदिना । कथंभूतेन जिनचन्द्रेण ? पवयणेत्यादि- प्रवचनप्रमाणलक्षणच्छन्दोलङ्काररहितह्रदयेन । पुनरपि कथंभूतेन ? आगमभत्तिजुत्तेण - जिनसूत्रस्य भक्तिः सेवा ताय युक्तेन ॥ ७८ ॥ ७८ अन्वयार्थ - (आगमभत्ति जुत्तेण) आगम की भक्ति से युक्त (पवयणपमाण लक्खणछंदालंकार रहियहियएण) प्रवचन, प्रमाण, लक्षण, छन्द, अलंकार से अनभिज्ञ (जिण इंदेण) जिनचन्द्र के द्वारा (इणं) यह सिद्धांतसार नामक ग्रंथ (पउत्तं) कहा गया। भावार्थ - आचार्य जिनचन्द्र अपनी लघुता प्रकट करते हुए कहते हैं कि प्रवचन, प्रमाण, लक्षण, छंद और अलंकार से रहित होते हुए भी मैंने सिद्धांत की भक्ति से प्रेरित होकर यह सिद्धांत सार नामक ग्रंथ कहा । सिद्धंतसारं वरसुत्तगेहा, सोहंतु साहू मयमोहचत्ता । पूरंतु हीणं जिणणाहभत्ता, विरायचित्ता सिवमग्गजुत्ता। ७६ ॥ सिद्धान्तसारं वरसूत्रगेहाः, शोधयन्तुः साधवो मदमोहत्यक्ताः । पूरयन्तु हीनं जिननाथभक्ताः, विरागचित्ताः शिवमार्गयुक्ताः ॥ कविः कथयति, साहू - इति, भोः साधवः ! इमं सिद्धान्तसारं ग्रन्थं, सोहंतुशुद्धीकुर्वन्तु अपशब्दरहितं कुर्वन्तु । पुनरपि भोः साधवः ! पूरंतु हीणं- अस्मिन् ग्रन्थे मया यत्किंचिद्धीनं प्रतिपादितं भवति तद्भवन्तः, पूरंतु पूरयन्तु पूर्णं कृत्वा प्रतिपादयन्तु । कथंभूताः साधवः ? वरसुत्तगेहा- वराणि च तानि सूत्राणि जिनवचननानि तेषां गेहा मन्दिरप्रायाः । पुनरपि कथंभूताः ? मयमोहचत्तामदमोहरत्यक्ताः । पुनरपि कथंभूताः ? जिणणाहभत्ता जिननाथभक्ताः । पुनरपि कथंभूताः ? विरायचित्ता - विगतो रागो यस्मात् तत्, विरागं चित्तं मानसं येषां ते विरागचित्ताः। अनु च किं विशेषणांचिताः ? सिवमग्गजुत्ता- इति, शिवमार्गो, मोक्षमार्गः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणः तेन युक्ताः शिवमार्गयुक्ताः ॥ ७६॥ इति सिद्धान्तसारभाष्यम्। अन्वयार्थ - ( वरसुत्तगेहा) जिनेन्द्र भगवान के वचन ही हैं मन्दिर (घर) जिनके (मयमोहचत्ता) मद और मोह को त्याग दिया है जिन्होंने (जिणणाहभत्ता) जिनेन्द्र देव के जो भक्त हैं (विरायचित्ता) राग से रहित है चित्त जिनका (सिवमग्ग जुत्ता) शिवमार्ग अर्थात् मोक्षमार्ग में जो संलग्न हैं ऐसे (साहू) साधु (सिद्धंतसारं) सिद्धांतसागर नामक ग्रन्थ का (सोहंतु ) संशोधन करें और (हीणं) जो कुछ कहना योग्य था किन्तु कहा नहीं गया हो उसे ( पूरंतु ) पूर्ण करे । इस प्रकार सिद्धान्तसार पूर्ण हुआ । 编 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 83 84 85 86