Book Title: Siddhantasara
Author(s): Jinchandra Acharya, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Digambar Sahitya Prakashan

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Page 82
________________ (६७) क्रोधमानमायालोभा एतैः पंचदशभिर्न्यनाश्चतुर्विंशतिप्रत्ययाः स्युः ते षष्ठगुणस्थाने संभवतन्तीत्यर्थः । ते चतुर्विंशतिः किंनामानश्चेदुच्यंते- संज्वलनचतुष्कं हास्यादिनवनोकषाया अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिकाहारकाहारकमिश्रयोगास्त्रय एवं चतुर्विंशतिः ।। ७५ ।। अन्वयार्थ- (“सगतीसं देसे) पूर्व गाथा में इसका अर्थ कहा गया। देश संयम गुणस्थान में ऊपर जो सैंतीस प्रत्यय कहे गये उनमें (आहारदुगे) आहारक काययोग और आहारक मिश्र काय योग मिलाने पर उनतालीस आस्रव हुए । उनमें से (यारस अविरदिचउपच्चयाणूण) ग्यारह अविरति और प्रत्याख्यान, क्रोध, मान, माया, लोभ, इन पन्द्रह आस्रवों को कम करने पर (पत्ते य) प्रमत्तगुणस्थान में (चउवीसं पच्चया) चौबीस प्रत्यय होते हैं । भावार्थ - "सगतीस देसे" ३७ आस्रव पंचम गुण स्थान में होते हैं । यह पूर्व गाथा में वर्णित किया जा चुका है। देश विरत गुणस्थान के सैंतीस (३७) आस्रवों में आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग इन दोनों को मिलाने पर उनतालीस हुए। उनमें से ग्यारह (११) अविरति और चार प्रत्यख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ इन १५ पन्द्रह को कम करने पर २४ प्रत्यय (आस्रव) छट्टे गुणस्थान में होते हैं। वे इस प्रकार से हैं- संज्वलन चतुष्क, हास्यादि नव नोंकषाय घार मनोयोग चार वचनयोग, औदारिक काययोग, आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग इस प्रकार चौबीस प्रत्यय जानना चाहिये । आहारदुगूणा दुसु बावीसं हासछक संदित्थी । पुंकोहाइविहीणा कमेण णवमं दसं जाण ।। ७६ ।। आहारकद्विकोना द्विषु द्वाविंशतिः हास्यषट्केन षंढस्त्री । पुंक्रोधादिविहीनाः क्रमेण नवमं दशमं जानीहि || आहारदुगूणा दुसु बावीसं दुसु- इति, अप्रमत्तापूर्वकरणयोर्द्धर्योद्वयोर्गुणस्थानयोः प्रमत्तोक्ताश्चतुर्विंशतिप्रत्यया ये आहारकाहारकमिश्रद्वयोनाः, बावीसं- द्वाविंशतिप्रत्ययाः स्युः । ते के चेदुच्यते संज्वलनं ४ नोकषायाः ६ मनोवचनयोगाः ८ औदारिककाययोगः १ एवं २२ द्वाविंशतिः । हे शिष्य ! नवमं गुणस्थानं जानीहि । हासेत्यादि हास्यरत्यरतिशोक भजुगुप्साषट्केन हीनं । कोऽर्थः ? नवमेऽनिवृत्तिकरणगुणस्थाने पूर्वोक्ता द्वाविंशतिप्रत्यया हास्यादिषट्कहीनाः सन्तः षोडश आस्रवा भवन्ति । ते किंनामानः ? आहारदुगूण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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