Book Title: Siddhantasara
Author(s): Jinchandra Acharya, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Digambar Sahitya Prakashan

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Page 61
________________ (४६) मनोरसनचतुष्क स्त्रीपुरुषाहारक वैक्रि यिक युगैः। एकाक्षे मनोवागष्टयोगैींना अष्टात्रिंशत्।। एयक्खे- एकेन्द्रियजीवेषु, मणरसेत्यादि- मनश्च रसनचतुष्कमिति रसनघ्राणचक्षुः श्रोत्रचतुष्कं च स्त्रीवेदश्च पुंवेदश्च आहारकाहारकमिश्रद्वयं च वैक्रियिकतन्मियुग्मं चैतैरकादशभिर्हीनाः पुनः मणवचिअडजोगेहिं सत्यासत्योभयानुभयमनोवचनयोगैरष्टभि ना अन्येभ्य एकोनविंशतिप्रत्ययेभ्य उद्धरिता अन्ये, अडतीसं- अष्टात्रिंशत्प्रत्यया भवन्ति।। ५१।। अन्वयार्थ ५१- (एयखे) एकेन्द्रिय जीवों में (मणरसणचउक्वित्थी पुरिसाहारयवेउव्विय जुगेहिं) मन, रसना चतुष्क, अर्थात् रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र इन्द्रिय, स्त्री वेद, पुरुष वेद, आहारक काययोग, आहारक मिश्रकाय योग, वैक्रियक काययोग एवं वैक्रियक मिश्र काययोग (मणवचि अडजोगेहिं) चार मनोयोग चार वचन योग ये आठ योग इस प्रकार उपर्युक्त उन्नीस (हीण) आस्रवों से रहित (अडतीसं) अड़तीस आस्रव होते हैं। ___भावार्थ ५१- एकेन्द्रिय जीवों में गाथोक्त उन्नीस आस्रवों से रहित अड़तीस आस्रव होते हैं। वे इस प्रकार हैं- पांच मिथ्यात्व, स्त्रीवेद एवं पुरुषवेद को छोड़कर शेष २३ कषाय, षट्कषाय अविरति तथा स्पर्शन इन्द्रिय अविरति ये सात प्रकार की अविरति, औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग और कार्मण काययोग ये तीन योग इस प्रकार ये समस्त एकेन्द्रिय जीवों के अड़तीस आस्रव होते हैं। एदे य अंतभासारसणजुया घाणचक्खुसंजुत्ता। चालं इगिवेयालं कमेण वियलेसु विण्णेया।। ५२।। एते च अन्तभाषारसनायुक्ता घ्राणचक्षुःसंयुक्ताः। चत्वारिंशत् एकद्विचत्वारिंशत् क्रमेण विकलेषु विज्ञेयाः।। कमेण- अनुक्रमेण, वियलेसु- विकलत्रयेषु -- द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु, विण्णेया-- प्रत्यया- ज्ञातव्याः स्युः। कथं ? एदे य एकेन्द्रियोक्ता अष्टात्रिंशत्प्रत्यया अन्तभाषारसनायुक्ता अनुभयवचनजिव्हासहिताः। चालं- चत्वारिंशत्प्रत्यया द्वीन्द्रियजीवे भवन्तीत्यर्थः। पुनरेते पूर्वोक्ता अष्टात्रिंशत् अनुभयवचनरसनघ्राणसहिताः, इगियालं-- एकचत्वारिंशदास्त्रवास्त्रीन्द्रिये स्युः। तथा पूर्वोक्ता अष्टात्रिंशत् अनुभयवचनजिव्हेन्द्रिय घ्राणचक्षुःसंयुक्ताः, वेयालं. द्विचत्वारिंशत् चतुरिन्द्रिये ज्ञातव्या इत्यर्थः।। ५२ ।। Jain Education International . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,

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