Book Title: Siddhantasara
Author(s): Jinchandra Acharya, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Digambar Sahitya Prakashan

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Page 34
________________ (१६) अयोगकेवलिनि तु स्वभावतोऽनाहरकत्वमस्ति। एसु इदि मग्गणठाणएसु गुणा- इत्यमुना प्रकारेण एतेषु मार्गणास्थानेषु गुणा गुणस्थानानि ज्ञेयाः।। २०॥ ___ अन्वयार्थ- (सण्णि) संज्ञी जीवों के (बारस) बारह (असण्णिसु) असंज्ञी जीवों में (दो) दो गुणस्थान (आहारअणाहारे) आहारक और अनाहारक मार्गणा में (पढमादितिदस पण) प्रथम गुणस्थान को आदि लेकर तेरह और पांच अर्थात् आहारक में तेरह और अनाहारक में पाँच (गुणा कमसो) गुणस्थान क्रमशः होते हैं (इदि) इस प्रकार (मग्गणठाणएसु) मार्गणा स्थानों में गुणस्थानों का कथन पूर्ण हुआ। भावार्थ- संज्ञी जीवों में प्रथम गुणस्थान मिथ्यात्वगुणस्थान को आदि लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक बारह गुणस्थान होते हैं। असंज्ञी जीवों में मिथ्यात्व और सासादन सम्यग्दृष्टि ये दो गुणस्थान होते हैं। इस प्रकार संज्ञी मार्गणा पूर्ण हुई। आहारक मार्गणा में प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान को आदि लेकर सयोग केवली तक तेरह गुणस्थान होते हैं। मिथ्यात्व, सासादन, अविरत सम्यग्यदृष्टि, सयोग केवली और अयोग केवली इन गुणस्थानों में जीव अनाहारक होते हैं अर्थात् मिथ्यात्व, सासादन और अविरत सम्यग्दृष्टि जीवों में, विग्रह गति में अनाहारकपना संभव होता है। सयोग केवली में अनाहारक समुद्घात की अपेक्षा जानना चाहिए। अयोग केवली स्वभाव से ही अनाहारक होते हैं। इस प्रकार मार्गणा स्थानों में गुणस्थान जानना चाहिए। इस प्रकार मार्गणाओं में गुणस्थानों का विवेचन किया। इति मार्गणासु गुणा भणिताः। अथ चतुर्दशमार्गणासु पंचदशयोगान् प्रकटयन्नाह सूरिः आहारयओरालियदुगेहि हीणाः हवंति णिरयसुरे। आहारयवेउब्बियद्गजोगे इगिदस तिरियक्खे ॥ २१।। आहारकौदारिकद्विकैः हीना भवन्ति नारकसुरेषु। आहारकवैक्रियिकद्विकयोगेन एकादश तिरश्चि।। आहारय इत्यादि। णिरयसुरे-- नरकगतौ देवगतौ च आहाकाहारकमिश्रकाययोगे इति द्वयं, औदारिकौदारिकमिश्रकाययोगद्वयं इति चतुर्योगै ना अन्ये उद्धरिताः, इगिदस- एकादशयोगा भवन्ति। ते के इति चेत् ? मनोयोगचत्वारि वचनयोगचत्वारि वैक्रियिककाययोग वैक्रियिकमिश्रकाययोगकार्मणकाययोगा एवं एकादशयोगाः नरकगत्यां देवगत्यां भवन्तीति ज्ञेयं । आहारयवेउव्वियदुगजोगे इगिदस तिरियक्खे- तिर्यग्गतौ आहारकाहारकमिश्रवैक्रियिकतन्मिश्रकाययोगै_ना अन्ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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