Book Title: Siddhantasara Author(s): Jinchandra Acharya, Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Digambar Sahitya Prakashan View full book textPage 7
________________ सम्पादकीय माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थामाला से पूर्व में एक “सिद्धान्तसारादि संग्रह" नामक पच्चीस संस्कृत प्राकृत ग्रंथों का गुच्छक प्रकाशित हुआ था जिसके प्रारंभ में आचार्य जिनचन्द्र कृत सिद्धांतसार भाष्य भट्टारक ज्ञानभूषण कृत छपा हुआ है। अनायास ही गुच्छक के प्रथम ग्रंथ पर दृष्टि गई और यह अहसास किया कि यदि यह ग्रंथ अनुवाद सहित प्रकाशित हो तो जनसामान्य भी इस ग्रंथ में प्रतिपाद्य विषय से लाभान्वित हो सके। एतदर्थ यह प्रयास किया पूर्व में यह ग्रंथ अनुवाद सहित प्रकाशित नहीं हुआ है। एक सिद्धांतसार संग्रह जिस ग्रन्थ के रचियता श्री नरेन्द्रचार्य हैं जीवादि सात तत्वों का प्ररूपक संस्कृत छंदबद्ध ग्रन्थ हिन्दी भाषानुवाद सहित, जीवराज जैन ग्रन्थमाला, सोलापुर से प्रकाशित हुआ है। दूसरे एक सिद्धांतसार का उल्लेख भावसेन त्रैविद्य कृत ६०० श्लोक प्रमाण तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा में भावसेन त्रैविद्य आचार्य के परिचय में मिलता है- यह ग्रंथ भी अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है। जिनरत्नकोष के वर्णनानुसार यह ग्रंथ मूड़विद्री के मठ में है। तीसरा एक सिद्धांतसार दीपक आर्यिका विशुद्धमति द्वारा भाषानुवाद सहित प्रकाशित है जिसमें प्रस्तुत किया विषय तीन लोकों का विशद वर्णन करता है। ग्रन्थ में विषय और विशेषताएँ - इस सिद्धांतसार में आचार्य जिनचन्द्र से करणानुयोग का मुख्य विषय मार्गणाओं में जीवसमास, गुणस्थान, योग, आस्रव तथा जीव समास और गुणस्थानों में योग, उपयोग और आस्रव के प्रत्ययों का विषय समाविष्ट किया है। प्राकृत गाथाओं में गुथित यह ग्रंथ कुछ नवीन तथ्यों का भी उद्घाटन करता है । जैसेगाथा २६ में उद्धृत गाथा और भाष्य में, प्रतर समुद्धात अवस्था में कार्मण काययोग के साथ औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग को भी स्वीकृत किया गया है। यह विचारणीय विषय है। गाथा ३६ में कार्मण काययोग एवं औदारिक मिश्र काययोग में चक्षुदर्शन की अस्वीकृति। जबकि धवला पुस्तक २ / ६५६ में औदारिक मिश्र काययोग में चक्षुदर्शन माना गया है तथा वहीं धवला पुस्तक २/६७० में कार्मण काययोग में चक्षुदर्शन माना गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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