Book Title: Shrimad Vallabh Vedanta
Author(s): Vallabhacharya
Publisher: Nimbarkacharya Pith Prayag

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Page 6
________________ शुद्धाद्वैत संदर्भ श्रीमद् वल्लभाधीश गोस्वामी दीक्षित जी महाराज इस दृश्य भोग्य एवं कार्य रूप जगत में मानवीय चेतना केवल दृष्टा, भोक्ता एवं कर्त्ता के रूप में ही प्रकट नहीं होती, मानव एक विचारशील प्राणी है अतः उसमें वह यथार्थ की अदम्य जिज्ञासा के रूप में प्रकट होती है । विज्ञान एवं दर्शन दोनों ही यथार्थ अन्वेषण के मानवीय प्रयत्न हैं । वस्तु के यथार्थ की मानवीय अनुभूति या विचार के संदर्भ के बिना भी एक निरपेक्ष यथार्थ के रूप में जानने की महत्वाकांक्षा ही विज्ञान है । दर्शन उसी वस्तुगत यथार्थ को ज्ञान के विभिन्न रूपों के माध्यम से परखने का प्रयास है । दर्शन की इस ज्ञान निर्भरता से स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि ज्ञान एवं ज्ञ ेय का > परस्पर सम्बन्ध क्या है ? ज्ञान की ऐसी क्या विशेषता है कि वह अपने से अतिरिक्त वाह्य ज्ञेय जगत के यथार्थ निरूपण का दायित्व वहन करे ? इन प्रश्नों से ही दर्शन का 'अथ' होता है दर्शन की 'इति' भी इन्हीं से होती है । ( १ ) एक वस्तु का प्रभाव अन्य वस्तुओं पर जो अनिवार्य रूप से पड़ती है उसी को जटिल से जटिलतम होती प्रक्रिया ज्ञान है, अतः स्वाभाविक रूप में 'वह अपने पर्यावरण की वास्तविकता का प्रभाव है, कोई भी कार्य अकारण उत्पन्न नहीं होता, ज्ञान एवं ज्ञेय का कार्यकारण सम्बन्ध ही ज्ञान को, ज्ञ ेय के यथार्थ निरूपण का अधिकार देता है । (२) ज्ञान स्वाभाविक रूप में दर्पण की तरह सामने की वस्तु को प्रतिबिम्बित करता है यही उसकी विशेषता है । पुरोवस्तु को प्रतिबिम्बित कर पाने में भी दर्पण की अपनी सीमायें हैं, उसी तरह ज्ञान की भी सीमायें हैं, उसी में वह ज्ञय को प्रतिबिम्बित कर पाता है । हम ज्ञान की उन सीमाओं को परख कर विषय सम्बन्धी निष्कर्ष पर पहुंचें यही समझदारी है । (३) ज्ञान, स्वयं प्रकाश है, वह अपनी और अपने अतिरिक्त अपनी

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