Book Title: Shravaka Pratikramana Sutra
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 16
________________ व्याख्या अर्थ: अरिहंत भगवान् मेरे देव हैं, यावज्जीवन श्रेष्ठ साधु मेरे गुरु हैं, जिन-प्ररूपित अहिंसा आदि तत्त्व मेरा धर्म है, यह सम्यक्त्व मैंने प्रहण किया। व्याख्या : यह 'सम्यक्त्व-सूत्र' है। सम्यक्त्व अध्यात्म-जीवन की प्रथम भूमिका है । आगे चल कर श्रावक आदि की भूमिकाओं में जो कुछ भी त्याग-वैराग्य, जप-तप तथा व्रत-नियम आदि साधनाएं की जाती हैं, उन सब की बुनियाद सम्यक्त्व को कहा गया है। यदि मूल में सम्यक्त्व नहीं है, तो अन्य सब तप-जप आदि क्रियाएँ केवल अज्ञान-कष्ट ही मानी जाती है, धर्म नहीं। क्योंकि वे संसार की वृद्धि करती हैं, संसार का क्षय नही करतीं। सम्यक्त्व के बिना होने वाला व्यावहारिक चारित्र, चाहे वह थोड़ा है, या बहुत, वस्तुतः कुछ है ही नहीं । सम्यक्त्व का सीधा-सादा अर्थ किया जाय तो विवेकदृष्टि होता है । सत्य और असत्य का मौलिक विवेक ही जीवन को सन्मार्ग की ओर अग्रसर करता है। प्रस्तुत सूत्र में व्यवहार-सम्यक्त्व का वर्णन किया गया है। यहाँ बताया गया है, कि किसको देव समझना, किसको गुरु समझना और किसको धर्म समझना ? साधक प्रतिज्ञा करता है राग-द्वेष विजेता अरिहंत मेरे देव हैं, पञ्च-महाव्रतधारी साधु मेरेगुरु हैं और जिन-भाषित दयामय आदि सच्चा धर्म मेरा धर्म है। परन्तु निश्चय-सम्यक्त्व तत्व-रूचिरूप होता है । जीवादि ज्ञय को जानने की, संवर-निर्जरा आदि उपादेय को ग्रहण करने की और हिंसा, असत्य आदि हेय को छोड़ने को जो अभिरूचि-विशेष होती है, वह निश्चय-सम्यक्त्व है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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