Book Title: Shravak Pragnpti
Author(s): Rajendravijay
Publisher: Sanskar Sahitya Sadan
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________________ सटीकश्रावकज्ञप्त्याख्यप्रकरणं / [ 181 ] -- श्रावकः सूत्रतोऽर्थतश्च जघन्येन ता एव प्रवचनमातर उत्कृष्टतस्तु षड्जीवनिकायं यावदुभयतोऽर्थतस्तु पिण्डैषणा न तु तामपि सूत्रत इत्येतावद्गृह्णाति / उक्ता ग्रहणशिक्षा, अत ऊर्ध्वमितरामासेवनशिक्षा प्रवक्ष्यामि यथासौ भेदिका एतयोरिति / संपुन्नं परिपालइ सामायारि सदेव साहु ति / ईयरोतकालम्मि वि अपरिन्नाणाइओ नतहा।२९८ [संपूर्णा परिपालयति सामाचारी सदैव साधुरिति / इतरः तत्कालेऽपि अपरिज्ञानादेः न तथा // 298 // ] ___ संपूर्णा' निरवशेषां परिपालयत्यासेवते सामाचारों मुखवस्त्रिकाप्रत्युपेक्षणादिको क्रियां सदैव सर्वकालमेव साधुरित्या जन्म तथाप्रवृत्तेः इतरः श्रावकस्तत्कालेऽपि सामायिकसमयेऽपि अपरिज्ञानादेरपरिज्ञानादभिष्वङ्गानिवृत्त्या असंभवादनभ्यासाचन तथा पालयत्येवमासेवनाशिक्षापि भिन्नैव तयोरिति द्वारं सूत्रप्रामाण्याच विशेष इति गाथेत्युपलक्षिता। तामाहसामाइयम्मि उ कए समणो इव सावओ हवइ जम्हा। एएण कारणेणं बहुसो सामाइयं कुज्जा // 299 // [सामायिके तु कृते श्रमण इव श्रावको भवति यस्मात / एतेन कारणेन बहुशः सामायिकं कुर्यात् // 299 // ] सामायिके प्राइनिरूपितशब्दार्थे तुशब्दो ऽवधारणार्थः
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