Book Title: Shravak Dharm Pradip
Author(s): Jaganmohanlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ की उपाधि से विभूषित हैं एवं समाज-सेवी कार्यों में संलग्न हैं। समाज-सेवी स्व०स०सिंघई धन्यकुमार जी उनके चचेरे बड़े भाई एवं स्व०स०सिंघई जयकुमार जी अनुज थे। बाह्य आधार के अभाव में अन्तर्मुखी होकर पूज्य बाबा जी त्यागमय जीवन की ओर अग्रसर होते रहे। पूज्य वर्णी जी को सप्तम-प्रतिमा का व्रत देकर उन्हें चारित्र पदारूढ़ करके बाबाजी को अपार प्रसन्नता हुई। उन्होंने त्यागी-व्रती, ब्रह्मचारी एवं गृह-त्यागियों के लिए कुण्डलपुर एवं इन्दौर में उदासीन-आश्रमों की स्थापना की जो वर्तमान में आत्म-कल्याण के प्रतीक बन गये हैं। जीवन के अन्तिम दिनों में बाबा जी ने अपने द्वारा लिखे जा रहे ग्रन्थ को पूर्ण करने का दायित्व पण्डित जी को सौंपा व सन् १९२३ में समाधिस्थ हुए। किशोरावस्था में पण्डित जगन्मोहनलाल जी के मानसिक क्षितिज को धर्म ग्रन्थों की जिन विधाओं ने रंगीन किया था, उसके अनुरूप विद्या-अध्ययन के लिए मथुरा, मोरेना एवं वाराणसी गये। वहाँ व्याकरण, साहित्य, न्याय-दर्शनवधर्म की शिक्षा ग्रहण की। इस बीच सन् १९२० में महात्मा गांधी के आह्वान पर राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान सरकारी परीक्षाओं का बहिष्कार किया। तत्पश्चात् न्याय-सिद्धान्त के कोर्स को पूर्ण किया। शिक्षा पण्डित जी के बाह्य-स्तर पर काम करती रही किन्तु गंगा की शान्त, निश्छल, सुरमयी लहरों के पावन-जल ने उनके भाव और विचार-जगत को परिष्कृत किया। भौतिकता के साथ आध्यात्मिकता का समन्वय हुआ। एक सम्वेदनशील और गुणग्राही हृदय लेकर सन् १९२३ में पण्डित जी कटनी आये। स०सिंघई रतनचन्द जी के कहने पर जैन शिक्षा संस्था में अध्यापन करने लगे किन्तु शिक्षा-मद से कभी वेतन नहीं लिया। स०सिंघई जी के पारिवारिक ट्रस्ट की आमद से खर्च चलाते रहे। शान्ति निकेतन जैन संस्कृत विद्यालय, कटनी के प्रधानाचार्य/अधिष्ठाता, दि०जैन गुरुकुल, खुरई, जबलपुर, एलोरा, मथुरा एवं श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी के आजीवन सक्रिय, अधिष्ठाता एव उप-अधिष्ठाता रहे जिनके माध्यम से जैन-जैनेतर समाज बौद्धिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर लाभान्वित हो रही है। पण्डित जी के प्रबुद्ध एवं व्यक्तिगत निर्देशन में अनेकानेक धार्मिक, सामाजिक एवं साहित्यिक संस्थायें परिपुष्ट हुई हैं। एक ओर जहाँ वे श्री दि०जैन तीर्थ क्षेत्र, कुण्डलपुर के अध्यक्ष थे तो दूसरी ओर श्री दि० जैन संघ मथरा, श्री दि० जैन विद्वत परिषद, श्री गणेशवर्णी दिगम्बर जैन शोध संस्थान, वाराणसी, श्री दि० जैन महासमिति एवं श्री दि० जैन परवार सभा के संस्थापक / सदस्य / अध्यक्ष एवं मन्त्री के पदों को अदम्य उत्साह, अपूर्व सूझ-बूझ एवं उल्लेखनीय गरिमा प्रदान करते हुए सुशोभित करते रहे हैं। वे सम्पादन-कला विशारद थे। उन्होंने जैन-संदेश, परवार-बन्धु, वीर-संदेश प्रभृति अनेक पत्र-पत्रिकाओं का कुशल सम्पादन किया। पण्डित जी यथा-नाम तथा गुण थे; अपने सारस्वत वाङ्मय के माध्यम से जटिल विषय की सरल,सुबोध एवं स्पष्ट व्याख्या करके उन्होंने असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया। उनके द्वारा प्रतिपादित दार्शनिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 352