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जैन विद्या के मूर्धन्य विद्वान् / साधक पण्डित जगन्मोहनलाल शास्त्री : जीवन-दर्शन पण्डित जी सीमित चेतना के वृत्त में आबद्ध नहीं थे। उनके अन्दर ऊर्ध्व-चेतना की धारा सतत प्रवाहित होती रही है जिसने उनके व्यक्तित्व को विशिष्टता प्रदान करते हुए समाधि के अन्तिम क्षणों तक गतिमान बनाये रखा। अन्तर्मन की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने जिस भाषाशैली का प्रयोग किया है उसकी तह से एक दार्शनिक संत झांकता है.... कहीं कहीं उभर आता है। उनकी ऊर्ध्व-चेतना सर्वांशतः साहित्य और दर्शन की
ओर उन्मुख थी। उनकी शैली विशिष्ट और विचार सदा जीवन्त तथा वेगपूर्ण है। पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी एवं गुरु गोपालदास बरैया की शिष्य परम्परा को आगे बढ़ाने वाले उद्धट विद्वान् के पाण्डित्य को पल्लवित करने में उनके पैतृक पृष्ठभूमि का भी परोक्ष हाथ रहा। उनके भव्य व्यक्तित्व में एक चुम्बकीय आकर्षण था। इसके बावजूद पण्डित जी प्रवृत्त्या आत्मोपासक थे। समाज सेवा उनके व्यक्तित्व पर एक ओढ़ी चादर थी।
पं०जगन्मोहनलाल जी शास्त्री के पूज्य पिताश्री बाबा गोकुलप्रसाद जी का प्रादुर्भाव उस समय हुआ जब कि सम्पूर्ण सामाजिक परिवेश धार्मिक, सांस्कृतिक घड़ियों से गुजर रहा था। सर्वत्र अशांति और धार्मिक विद्वेष का वातावरण था। पारस्परिक सद्भावना तथा सौहार्द की भावना से रहित अवसाद से पीड़ित समाज जीवन के वास्तविक आदर्शों के प्रकाश के अभाव में अज्ञानान्धकार से ग्रसित थी। वे मध्यप्रदेश के जबलपुर जिलान्तर्गत मझौली ग्राम में सद्गृहस्थ थे। सन् १९०१ में पण्डित जी का जन्म हुआ। बचपन में ही उनकी माताश्री का स्वर्गवास हो जाने से अत्यन्त करुणामय वातावरण एवं किशोरावस्था पर संघर्षों के प्रश्नचिह्न लग गये।
कटनी में बाबा गोकुलप्रसाद जी के मौसेरे भाई स०सि०कन्हैयालाल जी, रतनचन्द जी, दरबारीलाल जी और परमानन्द जी ने बालक जगन्मोहनलाल की शिक्षा-दीक्षा का पूर्ण प्रबन्ध करने की जिम्मेदारी लेकर बाबा जी के समाज-सेवा एवं व्रती जीवन व्यतीत करने का मार्ग प्रशस्त किया। वे अद्वितीय त्यागी थे। उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया। अहिंसा और अनेकान्त रूप विश्व-कल्याणकारी मार्ग पर जीवन-पर्यन्त चलते रहे। इसका ज्वलन्त उदाहरण है मैहर की शारदा देवी के मंदिर में अहिंसामयी वातावरण निर्मित करने का, जहाँ सदा-सदैव के लिए पशु-बलि पूज्य बाबा जी के अलौकिक एवं प्रेरणास्पद उपदेश को सुनकर बन्द कर दी गई। मूक प्राणियों को अभय दान मिला। सिंघई-परिवार ने जिस समय यह शुभ संदेश सुना उनके यहाँ पुत्र-रत्न की उपलब्धि पर बधाई बज रही थी। उस पुत्र का नामकरण अभयकुमार हुआ जो 'सवाई-सिंघई
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