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श्राद्धविधि प्रकरणम् प्रतिमा देखकर वन्दनाकर इस प्रकार स्तुति करने लगा
'एक तरफ तो स्तुति करने के लिए बहुत उत्सुकता और दूसरी तरफ निपुणता का अभाव, ऐसा होने से मेरा चित्त भक्ति से स्तुति करने की ओर तथा शक्ति न होने से न करने की ओर खिंचने से डोलायमान होता है। तथापि हे नाथ! मैं यथाशक्ति आपकी स्तुति करता हूँ, क्या मच्छर भी अपनी शक्ति के अनुसार वेग से आकाश में नहीं उड़ता? अपरिमित (प्रमाण रहित) दाता ऐसे आपको मित (प्रमाण सहित) देनेवाले कल्पवृक्ष आदि की उपमा किस प्रकार दी जा सकती है? इसलिए आप अनुपम हो। आप किसी पर प्रसन्न नहीं होते और न किसी को कुछ देते हैं तथापि सर्व मनुष्य आपकी आराधना करते हैं इसलिए आपकी गति अद्भुत है। आप में ममता न होते हुए भी जगत् रक्षक और कोई जगह साथ न होते हुए भी जगत् प्रभु कहलाते हो। ऐसे लोकोत्तर स्वरूपके धारक अरूपी परमात्मा आपको मेरा नमस्कार हो।'
पास ही आश्रम में बैठे हुए गांगलि ऋषि ने राजा की मधुरशब्द से की हुई इस स्तुति को आनन्दपूर्वक श्रवण की। और साक्षात् शंकर के समान जटाधारी तथा वल्कल (वृक्षों की छाल) वस्त्रधारी, निर्मल विद्या के ज्ञाता ऐसे वे कारणवश मंदिर में आये और भक्तिपूर्वक श्री ऋषभदेव भगवान् को वन्दनाकर मनोहर, निर्दोष तथा तुरन्त बनाये हुए नवीन गद्यात्मक वचनों से इस तरह स्तुति करने लगे____ 'तीनों लोक के नाथ, त्रिलोकोपकारी यशकीर्ति देने में समर्थ, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन आदि अतिशयों से सुशोभित हे आदिनाथ भगवन्! आपकी जय हो! नाभिराजा के कुलरूपी कमल को विकसित करने के लिए सूर्य के समान, तीनों लोकों के जीवों को स्तुति करने योग्य, श्री मरुदेवी माता की कुक्षिरूपी सुन्दर सरोवर में राजहंस के समान हे भगवन्! आपकी जय हो। त्रिलोकवासी भव्य-प्राणियों के चित्तरूपी चकोर पक्षी का शोक दूर करने के लिए सूर्य के समान, अन्य सम्पूर्ण देवताओं के गर्वको समूल नष्ट करनेवाले निस्सीम, निर्दोष व अद्वितीय ऐसी महिमा और तेज रूपी लक्ष्मी के विलास के लिए कमलाकर (कमल सरोवर) ऐसे हे भगवन्! आपकीजय हो। सरस भक्तिरस से सुशोभित तथा स्पर्धा से वन्दना करते हुए देवताओं तथा मनुष्यों के मुकुटों में जड़े हुए रत्नों की कान्तिरूपी निर्मल जल से धुल गये हैं चरण जिनके, तथा समूल नाश कर दिये हैं मन के अन्दर रहे हुए राग द्वेषादिक मल जिन ने ऐसे हे भगवन्! आपकी जय हो। अपार भवसागर में डूबते हुए जीवों को किनारे लगाने के लिए जहाज समान, सर्व स्त्रियों में श्रेष्ठ सिद्धिरूपी स्त्री के प्रियपति, जरामरण-भय से रहित, सर्व देवों में उत्तम ऐसे हे परमेश्वर, युगादि तीर्थकर, श्री आदिनाथ भगवन् आपको नमस्कार हो।'
इस प्रकार स्तुति करके गांगलि ऋषि ने सरल स्वभाव से मृगध्वज राजा को कहा कि 'ऋतुध्वज राजा के कुल में ध्वजा के समान हे मृगध्वज राजन्! हे वत्स! तू मेरे आश्रम में चल, तू मेरा अतिथि है। मैं आनन्द पूर्वक तेरा अतिथिसत्कार करूंगा। तेरे