Book Title: Shilangadi Rath Sangraha
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown
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अजव-आर्जव, सरलता सच्च-सत्य
जोर-जोगवडे
सहस्साणं-हजारोन मेयाई-भेदो मजब-मार्दव-कोमळता। सोम-शौच, पवित्रता करणे-करणवढे अठारस-अढार- आहाराइ-आहारादिक मुत्ति-निलभता आकिंचणं-अकिंचनता | सना-संज्ञा
निष्पत्तो-निष्पत्ती ॥३॥ सत्रा-संझा तव-तप ( बंभ-ब्रह्मचर्य
भूपाइ-पृथ्वी आदिक. | करणाई-इंद्रियवाली' चउ-चार संजमें-सजम च-अने
समग+श्रमण, साधु मण इणियो-मनादिक/ सोआई-श्रोत्रादि बोधवे-जाणवा'. जइंधम्मो-यतिधर्म | सीलंग-शीलांग
। बति-होय छे. हवंति-होय छे.
इंदिभायंच॥श्री शीलांगरथ ॥१॥
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जे नो करंति मणसा, निजिय आहारसन्ना सोइंदी॥ पुढवीकायारंभ, खंतिजुआ ते मुणी वंदे ॥१॥
ये नो कुर्वति मनसा, निर्जिताऽऽहार संज्ञा श्रोत्रेन्डियाः॥
पृथिवीकायारनं, कान्ति युतान् तान् मुनीन् वंदे ॥१॥ आहारादि चार संज्ञा तथा श्रोत्रादि पांच इंडियोना विषयना जीतनार तथा क्षमा ( शांति ) वमे सहित एवा जे मुनिराजो मनथी पृथ्वीयादि जीवनो आरंन नथी करता तेने हुं वांदु . ॥१॥
खंतीय मद्दवजव, मुत्ती तव संजमे अ बोधवे॥ सञ्चंसोयं आकिं, चणं च बंभं च जइधम्मो॥२॥
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