Book Title: Shilangadi Rath Sangraha
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 43
________________ शीलांगादि रथसैग्रद् ॥ १ ॥ 6 तव - बाह्यतपं अंतरतव - अभ्यंतरतप साहु-साधु साहम्मि - साधर्मिक कुल-कुळनी गण- गच्छ (नी) संघ-संघनी वैयावच्ची - वैयावच्च करनार सुज्जर-शुद्ध करे आलोइड-आलोइने कोइ कोइ . पडिकमणो- पडिकमणाथी मीसेन - मिश्रतावडे छ मां तपरथनी बहारनी गाथायना घरा शब्दोना नाणरुइ - ज्ञाननीरुचिवाळो (१) | गुरु-गुरु देह - शरीर (ना) विवेगी- विवेकवाळो अ-आ विवज्जिओ-रहित सुवायणिओ-सुवाचक वेयावच्चकरो - वैयावचनो करनार. सुज्ज-शुद्धि करेले आलोइडं-आलोवीने कोइ कोइ निरवेरको निरपेक्ष विवेगओ - सारा विवेकथी उग्गओ - कायोत्सर्ग (थी) सुतवणओ - सारा तपथी निचं - हमेशां छेउ-छेदथी पडिकपणओ-पडिकमणथी मिसेणउं - मिश्रण करीने विवेग-विवेक उसग्ग-कायोत्सर्ग छेया-छेदथी मूला-मूल (थो) सयकाल - सदाकाळ |मूलाउ- मूळपी नरो - माणस अणवद्वि-अनवस्थितपणामां सम्म सम्यकमकारे पारविए - पारने जाणनार अर्थ य-वळी, अने तहा - तेमज अणवडिय - अनवस्थित तह - तेमज पारंचिए - पारांचित ॥ श्री तपोरथ ॥ ८॥ Trees देहविवेगी, अट्टविवज्जिओ सुवायणिओ ॥ गुरु वेयावच्च करो, सुज्झइ आलोइउं कोइ ॥ १ ॥ ॥ १५ ॥

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