Book Title: Shilangadi Rath Sangraha
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown
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२७ मा ज्ञानदर्शन चारित्ररथना चित्र बहारनी गाथाना बुटा शब्दानो अर्थ.॥ जे-जेभो लीणा-लीन
| रुवज्झणं-रुपस्थ ध्यान | आसुरे-आसुर नाणचित्र-ज्ञानांचित | दप्प-दर्पने
आलीगो-लीन
| आवइ-वारंवार आवर्तन ज्ञानबडे सहित परिहरंतो-त्याग करतो
रुवातीतं-रुपातीतने
मुअ-मूत्र
पुणो-वळी मणसा-मनवडे (एप्त) खंतिखम-क्षमाए करीने युक्त
कम्पखयं-कर्मक्षयने
संकिए-शंकित पिंडथ्य-पिंडस्थ साहूणं-साधुओने कुणइ-करेछे
सहसागारो-सहसात्कार; एकदम झाण-ध्यान वंदे-चांदुर्छ (१) दप्प-अहंकार .
भये-भय पढम-प्रथम
अंचिय-युक्त | पमाय-प्रमाद
पओसे-प्रदोष वय-व्रत(मा) पदथ्य-पदस्थ
अणाभोग-अजाणपणे अनाभोगे विमसो-विमर्श, विचार (३)
शीखांगादि रथसंग्रह. ॥ ४२ ॥
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॥ श्री ज्ञानदर्शन चारित्ररथ ॥ १७ ॥ जे नाणंचिअ मणसा, पिंडथ्थज्झाण पढमवयलीणा॥ | दप्पं च परिहरंतो. खतिखमं साहूणं वंदे ॥१॥
ये झानमेव मनसा, पिंमस्थध्यान प्रथमव्रतलीनः॥ - दर्प च परिदरतः दान्ति दमान् साधून वन्दे ॥ १॥ जे ज्ञानी डे अने मनवमे पिंमस्थादि चार ध्यान अने प्रथम व्रतमां लीन बे, दर्पनो जेणे त्याग कयों ने एवा क्षमा राखवाने समर्थ साधूर्जने ९ वांउंडं ॥१॥
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