Book Title: Shilangadi Rath Sangraha
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 34
________________ शीलांगादि रथसंग्रह.॥ १०॥ ROCODEGORREGARDS चतुश्शरण ज्ञानाशनाति, चार पृथिव्यादि जीवकादीनां (जीवराजीनां)। आराधनं पुन: सहस्राण्यष्टादश जवन्ति ॥ ३ ॥ चार शरण, ज्ञान, अशन (नोजन ), अतिचार, पृथ्वी विगेरे जीव समूहर्नु आराधन, ए प्रमाणे अढार हजार थाय डे ॥३॥ अरिहंत सिद्ध गणहर, केवली ओहिय मण जिणाणंच ॥ सुयजिण साहु समख्खं, देवतह अप्प सख्खीहिं ॥४॥ अईत् सिद्ध गणधर, कवलि अवधि मन:पर्यव जिनानां ॥ श्रुत जिन साधु समदं, देवस्य तथा आत्म सादिनिः॥४॥ अरिहंत, सिद्ध, गणधर, केवळी, अवधिजिन, मनः पर्यवजिन, श्रुतजिन, साधु, देव (श्रावक) तथा पोतानी साक्षीवमे खमाबुलु. ॥४॥ श्री श्रमण धर्मरथना चित्रना अघरा शब्दोना अर्थ. | न हणेइ-नयी हणतो. संवुडओ-संवृत ... मुत्त-मुक्त . | घाणिदी-घाणइंद्रिने नासिनेव हणावेइ-हणावतो नथी रहिओ-रहित परिग्गह-परिग्रह काने हणतं-हणताने भयसनाए-भयसंज्ञावाळो । सोइंदि-श्रोत्रइंद्रि | निम्भिदि-जीमइंद्रिने, रसना अणुमन्नइ-अनुमोदे वजिओ-वर्जित संवरणो-वश राखनार इंदिने आहार सनि-आहारसंज्ञा | मेहुण-मैथुन चरिखदी-चक्षु इंदिने फासिदि-स्पर्शइदिने EOLOGORADODARDARDar - - G

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