Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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चित्र परिचय
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ये मूडबिद्रीके वर्तमान भट्टारक श्रीचारुकीर्ति स्वामी हैं, जो सिद्धान्त बसदिके मुख्य अधिकारी हैं । आप अपनी मातृभाषा कनाड़ी के अतिरिक्त संस्कृत, अंग्रेजी, हिन्दी आदि अनेक भाषाओंके ज्ञाता हैं। उत्तर भारतमें भी आप दीर्घकाल तक रह चुके हैं। आपके ही समयमें श्रीमहाधवलकी प्रतिलिपि पूर्ण हुई । आपके ही सरल स्वभाव और उदार विचारोंका यह सुफल है कि वहांकी पंचायतद्वारा श्रीमहाधवलकी प्रतिलिपि जिज्ञासु समाज को प्राप्य बनानेका प्रस्ताव स्वीकृत हो गया है । आप जीर्णोद्धारादि धार्मिक कार्योंमें खूब दत्तचित्त रहते हैं । ग्रंथोंका जीर्णोद्धार कार्य भी आपकी दृष्टिके ओझल नहीं रह सका। हमारे सिद्धान्त-ग्रंथके संशोधन व प्रकाशन कार्यमें अब हमें आपकी पूर्ण सहानुभूति और सहायता मिल रही है, जिसके सुफल पाठक इस ग्रंथभागमें तथा आगे भी देखेंगे।
आप मूडबिद्री के नगरसेठ श्रीदेवराजजी सेठी हैं । सिद्धान्तमन्दिरके आप पंच हैं, और भट्टारकजीके सत्कार्योंमें आपकी सम्मति और सहयोग रहता है । आप भी सिद्धान्तग्रंथोंके सुप्रचार के पक्षपाती हैं।
आप मूडबिद्री सिद्धान्तमन्दिरके पंच श्रीयुक्त धर्मपालजी हैं । आप एक बडे उत्साही युवक हैं, और सिद्धान्तग्रंथोंके सुप्रचार करानेमें आपकी विशेष रुचि है।
सरस्वती भूषण पं. लोकनाथजी शास्त्रीका पैतृक निवासस्थान मूडबिद्री ही है। आपका विद्याभ्यास स्वनामधन्य स्वर्गीय पं. गोपालदासजी बरैयाकी अध्यक्षतामें मोरेना विद्यालयमें हुआ था । तत्पश्चात् आपने मूडबिद्रीकी जैन संस्कृत पाठशालामें बीस वर्ष तक अध्यापन कार्य किया, और अनेक ऐसे योग्य विद्वान् उत्पन्न किये जो अब उस प्रान्तमें धर्म और समाजकी भारी सेवा कर रहे हैं । आपने अपने निरंतर कठिन परिश्रमसे वीरवाणीविलास सिद्धान्तभवनकी स्थापना की है जिसमें मुद्रित व हस्तलिखित ताडपत्रादि चार हजार ग्रंथोंसे ऊपरका संग्रह है। यहांसे आप एक वीरवाणी ग्रंथमालाका भी संपादन करते हैं, जिसमें सोलह ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। आप मूडबिद्रीके भंडारसे अलभ्य ग्रंथोंकी प्रतिलिपि कराकर मुंबई, आरा, इंदौर, सहारनपुर, कलकत्ता आदि शास्त्रभंडारोंको भेज चुके हैं, जिसकी श्लोक सं. ८५००० से भी ऊपर हो गई है। आपका सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य सिद्धान्तग्रंथोंकी प्रतिलिपियोंसे संबंध रखता है। जैसा हम प्रथम भागकी भूमिकामें कह आये हैं, महाधवलकी नागरी प्रतिलिपि पहले पहल आपके द्वारा ही सन् १९१८ से १९२२ तक की गई थी। सन् १९२४ में आपने सहारनपुर पहुंचकर वहांकी धवला और जयधवलाकी कनाड़ी और नागरी प्रतियों का मिलान करवाया था। वर्तमानमें हमारी
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