Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 22
________________ १२ [ शास्त्रवार्ता० श्लो०१ में अभ्युपगम किया जाय । अतः रज्जुसर्प में ऐसे रज्जुदेशास्तित्व की प्रतीति होती है जिसका उत्तरकाल में बाध हो जाता है-यही मानना उचित है अतः रज्जुसर्प का किसो देश में अबाधितसत्त्व नहीं है किन्तु रज्जुदेश में बाधित हो सत्त्व है। [रज्जुसर्प-वास्तवसर्प दो में एक अवाच्य, अन्य वाच्य कैसे १] यदि यह प्रश्न किया जाय कि-'यदि रज्जुसर्प को भी सत् माना जायगा तो रज्जुसर्प और व्यावहारिक वास्तवसर दोनों में समान सत्त्व होने से यह कहना कसे सम्भव होगा कि व्यावहारिक वास्तव सर्प वाच्य है और रज्जुसर्प अवाच्य है ?'-तो यह प्रश्न मलविहीन है, क्योंकि इस प्रकार का प्रश्न रज्जु सर्प को सत् न मानने पर भी ऊठ सकता है-जैसे व्यावहारिक वास्तवसर्प की प्रतीति होती है उसी प्रकार रज्जुसर्प को भी प्रतीति होती है अत: दोनों प्रतीतियों में साम्य होने पर व्यावहारिक वास्तव सर्प की प्रतीति सत्य है और रज्ज सर्प को प्रतीति असत्य-अप्रमा कथन कैसे सम्भव होगा? इस प्रश्न के उत्तर में यदि कहा जाय कि-'रज्जु-सर्प प्रतीति के बाद रज्जुसर्प के बाध को भी प्रतीति होती है अतः यह प्रतीति असत्य होती है और व्यावहारिक वास्तवसर्प की प्रतीति में बाध न होने से यह प्रतीति सत्य होती है तो इस प्रकार का उत्तर खजुसर्प को सत् मानने के पक्ष में भी दिया जा सकता है, अर्थात् यह कहा जा सकता है कि व्यावहारिक वास्तवसर्प में सत्त्व का घाघ-ज्ञान न होने से वह सर्प सप से वाच्य होता है और रज्जुसर्प में सत्त्व के बाध की प्रतीति होने से रज्जुसर्प सप से अवाच्य होता है। किय, सायकल चा अमानुभवत्वम् , गौरवात् ; किन्त्वनुभवत्वम् , लाघवात् । ततश्चावच्छेदकलाघवेन पुरोत्र तिनि सर्पसिद्धिा, तस्य च मिथ्यात्वमनुभवादेव 'मिथ्या सर्पः इति । 'अज्ञानाधुपादानकल्पनागौरवप्रसङ्ग एवं' इति चेत् १ न, अवच्छेदकलाघवेन तस्य फलमुखत्वात् । वस्तुतस्तु विपरीतमेव गौरवं परेषाम् , अत्र प्रतिपन्ने देशान्तरसत्यस्याऽप्रत्यासन्नस्याऽपवित्वस्य ज्ञानस्य प्रत्यासत्तित्वस्य दोषस्य ताइक्सामर्थ्यादेः कल्पनात् । [ अनुभवमात्र वस्तुसाधक मानने में लाघव ] दूसरी बात ध्यान देने योग्य यह है कि वस्तु को सिद्ध करने वाला प्रमानुभव है यह न मान कर अनुभव सामान्य है यह मानना उचित है, क्योंकि प्रथमपक्ष में प्रमानुभवत्व को वस्तु की साधकता का अवच्छेदक मानने में गौरव होगा और द्वितीयपक्ष में अनुभवत्वमात्र को साधकतार चछेदक मानने में लाघव होगा। इस प्रकार जब अनुभवत्वरूप से अनुभवमात्र वस्तु का साधक है तब पुरोवौ रज्जु में सर्प का अनुभव होने से उसमें भी सर्प को सिद्धि निर्बाध है। अनुभव द्वारा उसके सि.नु होने पर मी वह मिथ्या इसलिए होता है कि जैसे सर्पानुभव से सर्प सिद्ध है उसी प्रकार 'सर्पः मिथ्या' इस रूप में सर्प में मिथ्यात्व भी सिद्ध है। यदि यह कहा जाय कि-'रज्जुसर्प का अस्तित्व मानने पर उसको उत्पत्ति के लिये उसके उपादान कारणादिरूप में अतिरिक्त प्रज्ञानादि को कल्पना करनी पडेगी, क्योंकि जिन कारणों से व्यावहारिक वास्तव सर्प को उत्पत्ति होती है वे कारण रज्जुदेश में अनुपस्थित है । अतः रज्जु सर्प की सत्ता मानने पर उसके अतिरिक्त कारणों की कल्पना आवश्यक होने से गौरव हैं'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रमानुभवस्वरूप से वस्तु की साधकता मानने की अपेक्षा अनुभवत्व

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