Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 152
________________ १४२ [ शास्त्रवार्ता स्त० श्लोक तथा द्वग्अभेद रहने से व्यभिचार होगा। यदि इगअभेद को 'दृष्टो घटः' इत्यादि प्रतीति से सिद्ध आध्यासिक अभेदरूप माना जायगा और उसी का विषयता' इस अन्य नाम से व्यवहार किया जायगा तो प्रतिवादी के प्रति हेतु को अप्रसिद्धि होगी। क्योंकि उसके मत में प्राध्यासिक अभेद अमान्य है । एवं वादी के मत में प्रपञ्चरूप पक्षान्तर्गत पाने वाले हग-दृश्यामेद में आध्यासिक ग्अभेद न होने से भागासिद्धि होगी। क्योंकि प्रनवस्था को प्रापत्ति के भय से वादी भी आध्यासिक दृग्अभेव में अन्य हगभेद का अडोकार नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त मिथ्यात्व के अभाव का होने से दृश्यत्व हेतु मिथ्यात्वरूप साध्य के प्रति विरुद्ध भी है अत: उक्त अनुमान में कुछ भी सार नहीं है। इस प्रकार दीर्घ परामर्श से यह सिद्ध होता है कि अद्वैत ही तत्व नहीं है किन्तु प्रतीति के अनुरोध से ब्रह्म के समान प्रपञ्च भी परमार्थ सत् ही है ॥ ७ ॥ एतद्वादविषयविभागवार्तामाह ८ वी कारिका में यह बात बतायी गयी है-अबंतवाद के विषयरूप में जिसकी प्रसिद्धि हैअद्वैतवाद का विषय वस्तुतः उससे भिन्न है। मुलं-- अन्ये व्याख्यानयन्त्येवं समभावप्रसिद्धये । अद्वैतदेशना शास्त्रे निर्दिष्टा न तु तत्त्वतः ॥ ८॥ अन्ये = जैनाः व्याख्यान यन्ति = व्याचक्षते एवं-यदत्त, समभावप्रसिद्धये = प्रपश्चस्पाश्चिाविलसितत्त्रपात्रप्रदर्शनेन स्वात्मन्येव प्रतिबन्धस्थैर्यात शत्रु-पुत्रादी द्वेष-रागादिभावविच्छेदात् परमचित्तप्रपादरूपमाम्यसिद्धयर्थम् शास्त्रे = श्रावकमज्ञप्तिवेदे, अबैतदेशमा = "आत्मैवेदं सर्व, ब्रह्म वेदं सर्वम्" इत्यादिका निविष्टा न तु तत्त्वतः = अद्वैतमेव तत्त्वमित्यभिप्रायेण | अत एव "पुरुष एवेदं स ग्निम्' इत्यादि श्रुतीनामापातार्थदर्शनजनिती गणधरसंशयस्तासामुक्तार्थमात्मार्थवादत्वेन तदीयसदाशयस्फातये प्रपञ्चमत्यतावेदकश्रुत्यन्तरप्रकटीकरणेन स्वयमेर भगवता निरस्तः । व्यक्तं चैतद् विशेषावश्यकावी। अद्वैत ब्रह्म का उपदेश समभाव की सिद्धि के लिये ] अद्वैतवाद के सम्बन्ध में जैन मनीषियों का यह कथन है कि शास्त्र यानी श्रावकप्रज्ञप्ति नामक वेदशास्त्र में यह सब आत्मा ही है-यह सब ब्रह्म हो है इस प्रकार जो अद्वैत का उपदेश किया गया है वह समभाव-साम्य की प्रकृष्टसिद्धि के लिये किया गया है । समभाव का अर्थ है सभी विषयों में चित्तको समानवृत्ति-जिसे चित्त का परमप्रसाब-नितान्तनमल्य कहा जाता है। इसकी सिद्धि शत्र-पुत्रादि में द्वेष-रागादिभावों के उच्छेद से होती है और वह अपनी आत्मा में ही चित्तवृत्ति स्थिरीकरण से होता है। चित्त का यह स्थिरीकरण जगत में अज्ञानमूलकत्व के दर्शन से होता है। इस प्रकार अद्वैतदेशमा का उद्देश चितनमल्य का सम्पादन है, न कि 'अद्वैतमात्र ही तत्व है- इस विषय का प्रतिपादन ।

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