Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 167
________________ १५७ स्था० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] भावाधिकरणकालरूप अर्थ में 'ततः प्राक' और तत् के ध्वसाधिकरणकालरूप धर्म के अभिप्राय से 'ततः पश्चात् ' इस प्रयोग की उपपत्ति हो सकती है। तथा इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि यदि प्रागभाव का प्रभ्युपगम न किया जायगा तो उत्पन्न को पुनः उत्पत्ति का और ध्वंस का अभ्युपगम न करने पर मुद्गराविप्रहार के बाद भी घटादि के उन्मज्जन की प्रसक्ति होगी । अथ स ब्रह्मात्मकत्वाद् ब्रह्मणः स्वात्यन्ताभावः १, ब्रह्म तु न सर्वात्मकमिति तदेव सर्वात्यन्ताभावरूपम्, अत एव ब्रह्मसिद्धौ 'असर्वम्' इति ब्रह्मविशेषणमुक्तमिति चेत् १ न, व्याघातात् सर्वधर्मप्रतियोगितोपरक्या भावात्मकतया ब्रह्मणः सर्वस्वानपायात्, ब्रह्मस्वरूपवत् सर्वस्य ब्रह्माभिनत्वेऽनुच्छेदापाताच | 'नोच्छिद्यत एव ब्रह्मरूपेण सर्वम्, प्रपञ्चरूपेण चोच्छिद्यते' इति चेत् ? ब्रह्मापि संसाररूपेणोच्द्यिते नोच्द्यिते च ब्रह्मरूपेणेति तुल्यम् । 'नैकमेव निवर्तते, न निवर्तते चेति' चेत् १ न, रूपान्तरपरिगतोपादानरूपनिवृत्तिवादेऽनाद्यविद्यातादात्म्यानियाऽनिर्मोक्षापातस्य तदवस्थस्यात् । बाधरूपनिवृत्तिवादे च तस्य निर्विषयत्वाभावेन ब्रह्मरूपतदत्यन्ताभावविषयकेण तेन समानसं वित्संवेद्यतयाऽविद्यारूपत्रह्मात्पन्ता • मानोऽपि विषय क्रियेत । त्रैकालिकी तादात्म्यपरिणामनिवृत्तिरेव खत्वत्यन्ताभावः । अथास्त्वविद्याया ध्वंस एव स चानिर्वचनीयः, न चानिर्वचनीयस्य ज्ञाननिवर्त्यत्वनियमः, अविद्याध्वंसातिरिक्ते तत्संकोचादिति चेत् न, तथापि मुक्तौ तत्समयेऽद्वैतसंकोचावश्यकत्वात् तरकार्य निवृत्तीनामप्यनन्तानां तदा सस्ये तावतीषूक्त नियमाद्वैतसंकोचस्यातिजघन्यत्वाच मुक्तावद्वैतवचनस्य दृग्- दृश्य संयोगोपरतिवचनस्य च कर्मेनमुक्तत्वाभिप्रायेणैवोपपादयितुं युक्तत्वादिति दिगु | I afa यह शंका की जाय कि- " सम्पूर्ण विश्व ब्रह्मात्मक है अतः ब्रह्म का अश्यन्ताभाव कहाँ होगा ? किन्तु सर्व ब्रह्माश्मक होते हुए भी ब्रह्म सर्वात्मक नहीं है अतः ब्रह्म सर्वात्यन्ताभाव स्वरूप होने का अभ्युपगम सम्भव होने से ब्रह्म सर्वात्यन्ताभावरूप हो सकता है। और ब्रह्म में सभाव सम्भव होने से ही ब्रह्मसिद्धि ग्रन्थ में 'असद' इस शब्द से सर्वात्यन्ताभाव को ब्रह्म का विशेषण बताया गया है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने में व्याघात है क्योंकि ब्रह्म यदि सम्पूर्ण धर्मो की प्रतियोगिता से उपरक्त अभाव से अभिन्न होगा तो उसमें सर्वरूपता का अपाय नहीं हो सकता । यदि सर्व को ब्रह्म से अभिन्न माना जायगा तो ब्रह्मस्वरूप के समान उसके अनुच्छेद की आपत्ति होगी । यत्र यह कहा जाय कि "ब्रह्मरूप से सर्व का उच्छेद नहीं हो होता केवल प्रपश्वरूप से ही उच्छेष होता है" तो यह ठोक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर स के समान ब्रह्म के विषय में भी यह बात कही जा सकती है कि ब्रह्म का भी संसाररूप से उच्छेद हो जाता है और ब्रह्म रूप से उच्छेष नहीं होता । यदि ऐसा कहने में यह भय प्रदर्शित किया जाय कि- "ब्रह्म एक ही है अतः उस एक ही को ग्रह नहीं कहा जा सकता कि वह निवृत्त भी होता है और अनिवृत भी होता है क्योंकि निवृसरच

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