Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 170
________________ १६० [ शास्त्रवा० स्त०८ श्लो० १० 'शुक्लः कृष्णः' इत्यादिकं गुणतः, “धनी गोमान्' इत्यादिकं च संवन्धत इति । ब्रह्म तु जाति-क्रिया गुणसंबन्धरहितं मुख्यया वृत्या न केनापि शब्देन प्रतिपादयितुं शक्यते, परन्तु यथाकथश्चिल्लक्षणयैव वसि इत्यादिवाक्यात साधा, तत्रापि तात्पर्यस्य नियामकत्वाद् । निर्दोषत्वमहिम्ना वृत्ति विनैव वा ततस्तद्धोध इति मधुसूदनाभिप्रायोऽपि निरस्तः। अस्य खलु तपस्थिनो 'यथा कथञ्चित्' इति वदतो लक्षणायां संशय एव । न हि बहुप्रसिद्धथनारूढपदसंबन्धरूया शक्याथसंवन्धरूपा या लक्षणा ब्रह्मणि घटते । न चाखण्डार्थप्रतीतिर्लक्षणया क्वचिद् दृष्टेति । न चास्य महात्मन उत्तरसपाधानपाणिनाऽपि विवेकलोचनमाच्छादयतो दोपदस्योर्ने भयम् । न हि वृत्ति विना क्वचन शब्दात् प्रतीतिः प्रादुर्भवन्ती दृष्टा । यदि च निर्दोपत्वमहिम्मा शाब्दसामग्रीमतिपत्यैव शब्दाद् ब्रह्म बोधयेत् तदा शब्दमतिपयवासी स्वातन्त्र्येण तद्बोधयन कुतो न प्रमाणान्तरतामास्कन्देत १ । न च निर्दोपत्यमत्रा विद्यानिवृत्तिरूपम्, तस्याः फलत्वात् , तृतीयप्रतिपत्ती भावाच । तिस्रो हि ब्रह्मगि प्रतिपत्तयः, आद्या शब्दात् , द्वितीया शब्दात् प्रतिपद्य संतानवती, तृतीया तु निविकल्पकसाक्षात्काररूपेति । किन्तु श्रवणादिजन्यप्रतिबन्धकाष्टनिवृत्तिरूपम् । न च श्रवणादिकं वेदान्तवाक्यार्थबोधार्थ विधीयते, येन तत्र सा द्वारं स्यात्, किन्वात्मसाक्षात्कारार्थम् , “आत्मा वा रे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः" इति श्रुतो 'अग्निहोत्रं जुहोति, यवागु पचति' इतिवदार्थक्रमस्य वलयच्यात , श्रवण-मननादिभिरात्मा द्रष्टव्य इत्यर्थात् । प्रस्तुत विषय में मधुसूदन सरस्वती का यह अभिप्राय है कि-"शब्द शवित द्वारा जातिविशिष्ट-क्रियाविशिष्ट-गुणविशिष्ट और सम्बन्धविशिष्ट का ही बोधक होता है जैसे गो-अश्व इत्यादि शब्द से गोत्व अश्वत्वादि जातिविशिष्ट अर्थ का बोध होता है और पचति' 'पति' पाचकपाठक इत्यादि शब्द से पाक और पटन क्रियाविशिष्ट का बोध होता है । एवं शुक्ल-कृष्ण प्रादि शब्द से शुक्ल-कृष्ण आविरूप गुण से विशिष्ट अर्थ का बोध होता है, तथा धनी गोमान्' इत्यादि शब्द से धन और गौ के स्वामित्व सम्बन्ध से विशिष्ट अर्थ का बोध होता है । किन्तु बह्म जातिक्रिया-गुण और सम्बन्ध से रहित है अत: मुख्यपत्ति शक्ति द्वारा किसी भी शब्द से उसका बोध नहीं हो सकता । अतः 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्य से यथाकविन-जिस-किसी प्रकार लक्षणा से ही बोध होता है और उस लक्षणा में भी तत्वमस्यादि वाक्य का ब्रह्मबोधविषयक तात्पर्य नियामक है । अथवा यदि लक्षणा को उपपत्ति में कठिनाई हो तो यह कहा जा सकता है कि यतः 'सत्वमसि' आदि वाक्य से ब्रह्मबोध का उदय होने में कोई दोष नहीं है अतः इस निर्दोषत्व की महिमा से वृत्ति के बिना भी उस ब्रह्म का बोध होता है।" किन्तु यह अभिप्राय भी निरस्तप्रायः है। क्योंकि लक्षणा के सम्बन्ध में यथाकथविद् शब्द का प्रयोग कर बेचारे ने लक्षणा में स्वयं ही संशय प्रकट कर दिया है। क्योंकि जिस अर्थ में जिसकी बहुत प्रसिद्धि न हो उस अर्थ के साथ उस पद के सम्बन्ध को अथवा पर के शक्यार्थ के सम्बन्ध को

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