Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 177
________________ स्पा० क० टोका एव हिन्दी विवेचन ] दोपपरिहारादिति स्वगृहतत्वमेव न प्रेक्षितं क्षुत्वामकुक्षिना तपस्विना, ततः सम्भ्यगुत्प्रेचितं शाक्यसिंह विनेयेन यत् 'प्रबलदोपमाहात्म्यात् 'खरविषाणम्' इत्यादिवाक्यादलीकस्याखण्डस्य खरविषाणस्येव वेदान्तवाक्यात् परेषां कुत्रासनादोषमाहात्म्यादलीकस्याखण्डस्य ब्रह्मणो बोधः' इति । एवं च सर्वस्य स्वरूपसत्तादिधर्मसंकीर्णस्य, पररूपासंकीर्णस्यैव चोपलम्भाद् व्यवहारस्य च प्रतियोगिप्रतिपत्तौ तथैवोदयात्, सदसदात्मकमेव जगत् । तदाहुवृद्धा"सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च । अन्यथा सर्वसत्यं स्यात् स्वरूपस्याप्यसंभवः ।" न तु सदाद्यद्वैतमेवेति व्यवस्थितम् ॥१०॥ 5 चार्वाकीयमतावकेशिषु फलं नैवास्ति बौद्धोक्तयः कर्कन्धूपमितास्तु कण्टकशतैरत्यन्तदुःखप्रदाः । उन्मादं दधते रसः पुनरमीवेदान्ततालद्रुमाः गीर्वाणद्रुम एव तेन सुधिया जैनागमः सेव्यताम् ॥ १ ॥ न काश्वाः सुगततनयैर्नापि शशके केनद्वितवैर्भ महिमा यस्य विदितः । मरालाः सेवन्ते तमिह जैनयतयः सरोजं स्याद्वादप्रकरमकरन्दे कृतधियः ॥ २ ॥ क्वचिद्भेदच्छेदः कचिदपि हताऽमेदरचना क्वचिद् नात्मख्यातिः क्वचिदपि कृपास्फातिविरहः । कलङ्कानां शङ्का न परसमये कुत्र तदहो । श्रिता यद् स्याद्वादं सुकृतपरिणामः स विपुलः ||३|| यस्यासन् गुरवोऽत्र जीतविजयप्राज्ञाः प्रकृष्टाशया आजन्ते सनया नयादिविजयप्राज्ञाथ विद्या प्रदाः । १६७ प्रेम्णां यस्य च सम पद्मविजयो जातः सुधीः सोदरस्तेन न्यायविशारदेन रचितस्तर्कोऽयमभ्यस्यताम् ॥४॥ ।। इति पण्डित श्रीपद्य विजयसोद न्यायविशारद पण्डितयशोविजयविरचिताय स्याद्वादकल्पलतानाम्न्यां शास्त्रवातसमुच्चयटीकायामष्टमः स्तबकः ।। इस संदर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि आत्मतत्त्वज्ञान में प्रतिब घक अदृष्ट की श्रवणादि से निवृत्तिरूप जो निर्दोषता होती है उसकी महिमा वेदान्त मत में भी शब्द से शुद्धब्रह्मबोध में हेतु नहीं हो सकती क्योंकि ऐसा मानने पर ग्रामाण्य की उत्पत्ति में स्वतस्त्व का भङ्ग हो जायगा क्योंकि प्रामाण्य की उत्पत्ति में स्वतस्त्व ज्ञानसामान्यसामग्रीजन्यत्वरूप ही होता है और वह तत्त्वमस्यादि वार्थ की प्रमाको निर्दोषत्वजन्य मानने पर युक्तिसंगत नहीं हो सकता । इस बात को भी दृष्टि में रखना आवश्यक है कि शब्द किञ्चिद्धर्मविशिष्ट का ही वाचक होने से शब्द से शुद्धब्रह्म का बोध कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न के समाधान की भूख से कृश कुक्षि तपस्वी मधुसूदन ने तत्त्वमस्यादिवाक्यजन्थबोध को निर्दोषत्वजन्य बताते हुये अपने घर की इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया कि अग्ने घर के भीतर गर्जन करने वाले उनके अन्य बन्धुओं ने प्रामाण्य की उपपत्ति में स्वतस्त्व मङ्ग को आपत्तिरूप दोष का यह कह कर परिहार किया है कि-'श्रवणादि से प्रतिबन्धक की निवृत्ति होती है । प्रत: प्रतिबन्ध का भाव तुच्छ होने से ब्रह्मबोध का हेतु नहीं होता। इसलिये ब्रह्मबोध को दोषाभावजन्य

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