Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 172
________________ [ शास्त्रवार्ता स्त० ८ श्लो० १० तन्मात्रेण तद्बोधने लक्षणापत्तेः' इति मिश्रोतः। अत एव श्रवणे वेदान्त्युक्तरीत्या नियमविधिरपि न न्याय्यः । इस संवर्भ में यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि प्रात्मसाक्षात्कार के लिये जो श्रवण दिहित है वह केवल वेदान्तवाक्यों का ही श्रवण नहीं है क्योंकि 'श्रोतव्यः श्रुतिवारयेभ्यः' इस वाक्य में श्रुतिपद अपौरुषेय प्रमाणशब्दपरक न होकर प्रमाणशब्दमात्र परक है अतः प्रमाणशाच स्वरूप सभी वाक्यों के श्रवण के विधान में उक्त श्रुति का तात्पर्य है । यदि ऐसा न माना जायगा तो वेदान्तधाक्य समान अन्य प्रमाण शब्द से भी श्रवण को प्राप्ति होने के कारण अन्य प्रमाणशब्दों की निवृत्ति के लिये श्रवण विधायक श्रति को नियम-विधि मानकर 'वेदान्तवाक्यों से ही आत्मा का श्रवण करना चाहिये' यही उस श्रतियाक्य का अर्थ करना होगा। प्रतः इस पक्ष में नियम विधि प्रयुक्त अष्टको कल्पना का गौरव होगा क्योंकि नियतविधि से किसी दृष्टसाधन की मि न होने से अदृष्ट द्वारा ही उसकी सार्थकता होती है। यदि यह कहा जाय कि-'नियमाप्ट को कल्पना से प्रयुक्त गौरव के भय से श्रुतिशब्द के मुख्यार्थ का त्याग किया जायगा तो शक्ति द्वारा निशेष्य का बोध करने के लिये विशेष्य में विशिष्टवाचकपद के शक्ति को अविद्या भ्रम को प्रयुक्ति होगी। अतः इस भय अर्थबोध को उत्पत्ति के लिये रूविशान्ति का हारमा होगा!" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि विशिष्टवाचकपद से विशेव्यतावच्छेदकप्रकारेण विशेष्यमात्र के बोध के लिये लक्षणा की आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि विशेष्य भी विशिष्ट की कुक्षि में प्रविष्ट होता है। अत एव जब विशिष्ट के शक्याथ होने पर विशेष्य का भी शक्यार्थ होना अनिवार्य है तो अपौरुषेयत्व विशिष्ट प्रमाणशब्द में अति शब्द की शक्ति होने से प्रमाणशब्दरूप विशेष्य में भी श्रुतिशब्द का शा ब्दरूप विशेष्य में भी श्रुतिशब्द की शक्ति आवश्यक है। इसलिये प्रमाणशब्दमात्र का बोध श्रुतिशब्द की शक्ति से हो सम्पन्न हो जाने से प्रमाणशब्द में श्रुतिशब्द की लक्षणा मानने की आवश्यकता नहीं है और प्रमाणशबद में श्रुति शब्द का शत्ति ज्ञान भ्रमात्मक भी नहीं होगा क्योंकि विशिष्ट के विशेषण और विशेष्य से अतिरिक्त न होने से विशिष्ट में शक्ति का अभ्युपगम विशेषण-विशेष्योभय की शक्ति के अभ्युपगम में पर्यवसित होता है। इसीलिये अर्थात् विशिष्ट वाचकपद से विशेष्य का बोध शक्ति से हो सम्भव होने के कारण 'श्येनेन अभिचरन यजेत' इस वचन से बलवनिष्ठाननबन्धित्वविशिष्ट इष्टसाधनत्व के बोधक विधिप्रत्यय की इष्ट साधनस्व में लक्षणा के बिना भी श्येनादि में सष्टसाधनत्व का बोध होता है। अत एव 'श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येभ्यः' इस यचन में श्रतिशब्द प्रमाणशब्दमात्रपरक है किन्तु प्रमाणमात्रपरक नहीं है क्योंकि मिश्र ने यह कहा है कि श्रुतिपद की शक्ति में मुख्यविशेष्य में प्रमाणत्व के साक्षात् प्रकार न होने से प्रमाणत्वमात्ररूप से प्रमाणसामान्य का बोध मानने पर प्रमाणत्वविशिष्ट में श्रुतिपद की लक्षणा की आपत्ति की होगी । इसीलिये वेदान्ती की उक्ति रीति से श्रवण में नियमविधि भो न्यायसंगत नहीं है। नन्वेवमपि शाब्दबोधस्यैव तत्प्रयोजकत्वाय नियमा-ऽदृष्ट कल्पनावश्यकत्वाद् विशिष्टवाचकश्रुतिपदजन्योपस्थितिसंकोचस्याऽन्याय्यत्वात् । संन्यासाधिकारवत एव श्रवणस्य नियम्यत्वाच्च न नियमविधरन्यायपत्यमिति चेत ? न, तथाप्यामदर्शनार्थ तद्विधिसिद्धेने तज्जन्य

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