Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 159
________________ स्या०० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १४६ अथ द्विविधोऽस्माकं समाधिः- लयपूर्वका, बाधपूर्वकश्च । सत्र पञ्चीकृतपञ्चभूतकार्य व्यष्टिरूपं समष्टिरूपविराट्कार्यत्वात तब्यतिरेकेण नास्ति, तथा समष्टिरूपमपि पञ्चीकृतपञ्च भूतात्मक कार्यमपञ्चीकृतमहाभृतकार्यत्वात् तव्यतिरेकेण नास्ति, तत्रापि पृथिवी शब्द-स्पर्श रूप-रस-गन्धाख्यपञ्चगुणा गन्धेतर चतुगुणात्मकाऽकार्यत्वात् तद्व्यतिरेकेण नास्ति । आपश्च गन्धरसेतरत्रिगुणात्मकतेजाकार्यत्वात् तद्वतिरेकेण न सन्ति । तदपि गन्ध-रस-रूपेतरद्विगुणवायुकार्यत्वात् तन्यतिरेकेण नास्ति । स च शब्दमात्रगुणाकाशकार्यत्याद तद्वयतिरेकेण नास्ति । स च शब्दगुण आकाशो 'बहु स्याम्' इति परमेश्वरसंकल्पात्मकाहंकारकार्यत्वात् तद्वतिरेकेण नास्ति । सोऽपि मायेक्षणरूपमहत्तत्वकार्यत्वात् , तद्वयतिरेकेण नास्ति । तदपि मायापरिणामत्वात् तयतिरेकेण नास्ति । इत्यनुसन्धानन विद्यमानऽपि कार्यकारणात्मकं प्रपञ्चे चैत्रन्यमात्रगोचरो यः समाधिः स लयपूर्वक इत्युच्यते । अयं च सुषुप्तिवत् सबीजः, तत्त्वमस्यादिवेदान्तमहावाक्यार्थज्ञानाभावेनाविद्यातत्कार्यस्याऽक्षीणत्वात् । एवं चिन्तनेऽपि कारणसत्त्वेन पुनः कृत्स्नप्रपञ्चदर्शनाद् । वेदान्तमहावाक्यार्थज्ञानेनाविद्यानिवृत्तौ साक्षिक्रमेण तत्कानिवृत्तेहेन्वभावेन पुनरनुस्थानात् । वाधर्वस्तु निर्षीजः समाधिः, तत्र लयपूर्व कसमाधावनवाप्तत्वभ्रमनिवृत्तावपि पीजसथात् पुनस्तदुस्थानात प्रवृत्तिः । बाधपूर्वकसमाधौ तु कुलालचक्रभ्रमवत् पूर्वसंस्कारवशा• देव । उपदेशस्तु शमादिसंपत्यर्थमेव, नानवाप्तत्वभ्रमनिवृत्त्यमिति न तद्वैफल्यमिति चेत १ न, [प्रश्नद्वय के उत्तर में समाधि की प्रक्रिया ] इस प्रश्न के उत्तर में वेदान्ती की ओर से यह कहा जा सकता है कि घेदान्तमत में समाधि दो प्रकार को होती है एक लयपूर्वक, दूसरी बाधपूर्वक । जैसे पश्चीकृत पवमूतों का व्यष्टिरूप कार्य समष्टिरूप विराट का कार्य होने से समष्टि से अतिरिक्त नहीं होता और समष्टि भी अपञ्चीकृत महाभूतों का पञ्चीकृत पञ्चभूतात्मक कार्य होने से अपश्चीकृत महाभूतों से अतिरिक्त उसको भी सत्ता नहीं होती। अपञ्चीकृतमहाभूतों में भी शव रूप रस-गन्ध-स्पर्श इन पांच गुणों से युक्त पृथ्वो, गन्ध से भिन्न शम्दादि चार गुणों संयुक्त जल (-अप) का कार्य होने से जल से भिन्न उसको भी सत्ता नहीं है। एवं गन्ध और रस से भिन्न मान्दादि तीन गुणों से युक्त तेज का कार्य होने से तेज से भिन्न जल की भी सत्ता नहीं है। एवं गन्ध-रस-रूप से भिन्न शब्द और स्पर्शरूप दो गुणों से युक्त वायु का कार्य होने से वायु से भिन्न तेज को भी सत्ता नहीं है । तथा शब्दमात्रगुण वाले आकाश का कार्य होने से आकाश से भिन्न बायु की भी सत्ता नहीं है । एवं 'एकोऽहं बटु स्यां'-मैं अकेला बहुत बन जाउँ'-परमेश्वर के इस संकल्परूप अहंकार का कार्य होने से इस प्रकार से भिन्न आकाश की भी सत्ता नहीं है । एवं परमेश्वर को मायारूप शक्ति की ईक्षणात्मक वृत्तिरूप महत तत्व का कार्य होने से उस ईक्षण से भिन्न अहंकार को भी सत्ता नहीं है और माया का परिणाम होने से माया से अतिरिक्त ईक्षण को भी सत्ता नहीं है। इस प्रकार के ज्ञान से कार्य-कारणात्मक प्रपन्च के विद्यमान होते हुये भी चैतन्यमात्र मोचर जो समाधि होती है अर्थात् मुमुक्ष का चित्त कार्यकारणात्मक प्रपत्र के

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