Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 158
________________ १४८ [ शास्त्रवार्ता० स्त० - श्लो० १० से भिन्न नहीं है, किन्तु मुमुक्ष के समान चिद्रूप ही है, इसलिये नित्यप्राप्त भी है। उसकी इच्छा और उसके लिये प्रयत्न उसमें अप्राप्तत्वभ्रम के कारण ठीक उसी प्रकार होता है। जैसे कण्ठ में पहले हुए भुवर्णहार में अविद्यमानता का भ्रम होने से उसकी इच्छा और उसके पाने का प्रयत्न होता है और 'चैतन्यरूप मुक्ति प्रप्राप्त है'-इस भ्रम का निमित्त उसका अज्ञान ही होता है । [मुक्ति में पुरुषार्थत्य की हानि नहीं है ] यदि यह शंका को जाय कि-'मुक्ति को नित्यप्राप्त चैतन्यस्वरूप मानने पर उसमें पुरुषार्थत्व की हानि होगी-तो इसका उत्तर यह है कि मुक्ति को चैतन्यस्वरूप मानने पर भी यह दोष नहीं हो सकता, क्योंकि वह दोष तभी हो सकता है जब पुरुषकृतिसाध्य को ही पुरुषार्थ माना जाय । किन्तु यह सम्भव नहीं है, क्योंकि विषभक्षणादि भी पुरुषकृतिसाध्य होने से पुरुषार्थ हो जायमा । अभिलषितकृतिसाध्य को भी पुरुषार्थ नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने में गौरव है, किन्तु लाघव से अभिलषितस्वमात्र को ही पुरुषार्थ मानना होगा। ऐसा होने पर उक्त रीति से चतन्यस्वरूप मुक्ति भी अभिलषित होने से उसमें पुरुषार्थत्व सर्वथा युक्तिसंगत है। यदि यह कहा जाय कि--'अभिलषितमात्र को पुरुषार्थ मानने पर चन्द्रोदय भी अभिलषित होने से वह भी पुरुषार्थ हो जायगा'-तो यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है अर्थात् चन्द्रोदय भी पुरुषार्थ रूप होता ही है। पुरुषार्थ होने पर भी जो उसके लिये मनुष्य को प्रवृत्ति नहीं होती उसका कारण,-प्रवृत्ति के कारणीभूत इष्टसाधनता के ज्ञान का प्रभाव है सपकार नह निविवाद सिद्ध है कि-नित्यप्राप्त चैतन्य ही काठगत सुवर्णहार के समान मोक्षरूप में पुरुषार्थ है । यहो वेदान्त के विवेकपूर्ण विचार का निष्कर्ष है। "मुक्ती भ्रान्तिन्तिरेव प्रपञ्चे भ्रान्तिः शास्त्रे भ्रान्तिरेव प्रवृत्तौ । कुत्र भ्रान्तिर्नास्ति वेदान्तिनस्ते बलप्ता मूर्तिन्तिभिर्यस्य सर्वा ॥१॥" कथं चास्य भ्रान्तस्य शास्त्रश्रवणाद् नित्याचाप्ते चैतन्येऽनवाप्तत्वभ्रमो न निवर्तते । कथं वा विदितवेदान्तः स्वयमनिवृत्तानवाप्तत्वभ्रमः परमुपदेशेन प्रवर्तयन् प्रतारको न स्यात् ।। [ वेदान्ती का समूचा निर्माण भ्रान्तिमूलक है-उत्तरपक्ष ] वेदान्तो के दीर्घप्रतिपादन के विरोध में व्याख्याकार यशोविजयजी महाराज का कहना है कि वेदान्त का यह निष्कर्ष वेदान्ती को अप्रतिमभ्रान्ति का ही सूचक है क्योंकि उक्त निष्कर्ष के अनुसार यह अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है कि वेदान्ती को मोक्ष के विषय में भ्रान्ति है, प्रपञ्च के विषय में भ्रान्ति है, शास्त्र के विषय में भ्रान्ति है, प्रवृत्ति के विषय में भ्रान्ति है । इस प्रकार एक शब्द में यह कहा जा सकता है कि वेदान्ती को किस विषय में भ्रान्ति नहीं है ? ऐसा लगता है कि वेदान्ती का पूरा निर्माण ही केवल भ्रान्ति से हुआ है। इसके अतिरिक्त वेदान्त के सम्बन्ध में यह भी प्रश्न उठता है कि जब चैतन्यरूप मोक्ष नित्य प्राप्त है, अप्राप्तता का तो केवल भ्रममात्र है तो वह भ्रम शास्त्रश्रवणमात्र से ही क्यों निवृत नहीं होता? अथवा यह भी प्रश्न होगा कि-- वेदान्त का ज्ञाता होने पर भी उसके अपने ही मोक्ष अनवाप्त है, ऐसे भ्रम को निवृत्ति नहीं होती है तो उपदेश द्वारा श्रवणादि साधनों में अन्य पुरूषों को प्रवत्त करने से वह पञ्चक क्यों नहीं होगा ?"

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