Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 156
________________ १४६ [ शास्त्रवार्ता स्त० ८ श्लो० १० यह मानना सम्भव नहीं है तो यह भय अविद्यानिवृत्ति को असत् मानकर उसमें उद्देश्यत्व और ज्ञानजन्यत्वादि की कल्पना करने में भी समान है। उक्त सत्त्व, असस्य, सबसत्त्व और अनिर्वचनीयत्व इन चार प्रकार से अन्य कोई पांचवा प्रकार अत्यन्त अप्रसिद्ध है, अतः अविद्यानिवृत्ति के सम्बन्ध में किसी पांचवे प्रकार को श्राश्रय करने की सम्भावना शक्य नहीं है । यदि उक्त दोषों के कारण अविद्यानिवृत्ति को चैतन्यस्वरूप माना जायगा तो चैतन्य सदा विद्यमान होने से अविद्यानिवृत्ति भी सदा विद्यमान होगी । अतः उसके लिये मुमुक्षु के प्रयत्न के वैकल्यरूप पूर्वोक्त दोष प्रसक्त होगा । [ तच्चज्ञानोपलक्षित चैतन्य अविद्यानिवृत्तिरूप कैसे ? ] यदि यह कहा जाय कि - 'तत्त्वज्ञान से उपलक्षित चैतन्य ही अज्ञाननिवृति है और एवम्भूत तय तत्वज्ञान से पहले नहीं रहता क्योंकि उपलक्षणत्व सम्बन्धाधीन होता है । श्रतः संतन्य के साथ तत्त्वज्ञान का सम्बन्ध होने के बाद ही तत्त्वज्ञान चैतन्य का उपलक्षण और चेतन्य तत्त्वज्ञान से उपलक्षित हो सकता है। उपलक्षणत्व सम्बन्धाधीन होता है यह काकोपलक्षितगृह में दृष्ट है, क्योंकि वही गृह काकोपलक्षित कहा जाता है जिस में काकसम्बन्ध हो चुका है ।' किन्तु विचार करने पर यह har भी ठीक प्रतीत नहीं होता क्योंकि एकान्तवाद में गृह में काकोपलक्षितत्व का भी कथन सम्भव नहीं traffic reसम्बन्धजनितस्वभाव एकान्तवाद में काकसम्बन्ध के बाद भी अनुवर्तमान नहीं रहता है | अतः अनेकान्तवाद ही गृह में काकोपलक्षितत्व की उक्ति एवं उस दृष्टान्त से चैतन्य में तत्त्वज्ञानोपलक्षितत्व की उक्ति 'अयं छत्री' इस उक्ति के समान योगसत्य रूप में पर्यवसित हो सकती है। कहने का प्राशय यह है कि जिस वस्तु में जिसका कभी योग हुआ रहता है उस योग का अभाव हो जाने पर भी वह वस्तु उस असोत योग द्वारा उस रूप में भी सत्य कही जाती है जिस रूप में वह योगकाल में सत्य कही जाती थी। जैसे, जब कोई मनुष्य छत्रधारण किये हुये रहता है तो उस समय उसे छत्री कहना सत्य होता है, उसी प्रकार जिस समय उसके पास छत्र नहीं होता उस समय भी पूर्व छत्र सम्बन्ध के कारण उसे छत्री कहना सत्य माना जाता है । किन्तु यह बात प्रनेकान्त पक्ष में अर्थात् एक वस्तु को परस्पर विरोधी धर्मात्मक मानने के पक्ष में ही सम्भव होती है । अतः तय को तत्त्वज्ञानोपलक्षित एवं गृह को काकोपलक्षित सभी कहा जा सकता है जब चैतन्य को तत्त्वज्ञान से सम्बद्धासम्बद्ध एवं गृह को काक से सम्बद्धाऽसम्बद्ध माना जाय । इसके अतिरिक्त अन्य बात यह है कि शानोपलक्षितत्व को भी यदि सत् माना जाएगा तो अत व्याघात होगा । यदि असत् माना जायगा तो वह उद्देश्य नहीं हो सकेगा । यदि मिथ्या माना जायगा तो ज्ञान निवर्त्यत्व की आपत्ति होगी । यदि चैतन्यमात्रस्वरूप माना जायगा तो बह नित्यसिद्ध होने से उसके लिये मुमुक्षु के प्रयत्नवैकल्यरूप उक्त दोष का परिहार नहीं हो सकेगा | अतः यह कथन भी निःसार हो है । *अथ नाऽज्ञानस्य निवृत्तिर्नामध्वंसः, रूपान्तरपरिणतोपादानस्यैव तद्रूपत्वाद, घटध्वंसो हि चूर्णाकारपरिणता मृदेव । न च चैतन्यस्य रूपान्तरमस्ति । तस्माद् नास्त्येवाज्ञानध्वंसः, ॐ इतः 'सर्वस्वम्' [पृ० १४७] इति पर्यन्तो वेदान्सिपूर्वपक्ष:

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