Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 161
________________ १५१ ०० टीका एवं वी] है' इस सिद्धान्त के समर्थक बौद्ध की ही विजय होगी। क्योंकि बौद्धमत में भी सर्वज्ञ ज्ञान के चरम क्षण को किसी अन्य प्रकार से सर्वज्ञ के पूर्वज्ञान से विलक्षण न बता कर स्वरूपमात्र से ही विलक्षण माना जाता है और वही बात उक्त रीति से वेदान्त में भी नित्य चैतन्य को मोक्षस्वरूप मानने पर बलवान होती है। किश्च निवृत्तानवाप्तत्वभ्रमस्यापि पुनस्तद्मोदयादेव प्रवृत्तिरित्यपूर्वेयं प्रेचावता । अपिच, शमाद्यर्थोऽप्युपदेशो व्यर्थ एव, मुक्तिसाधनतायां तस्थाऽप्रामाण्यात् । अथ तवज्ञानसाधनताय तत् प्रामाण्यम्, तच स्वत एव फलरूपम्, अत एव न तद् विधेयमिति चेत् न, तत्वज्ञानस्य सुख-दुःखहान्यन्यतरत्वाभावेन स्वतः फलरूपत्वानुपपत्तेः । न च दुःखहा निरूपमेव तत्वज्ञानमिति स्वतः फलम् एकस्य भावाऽभावोभवरूपत्वविरोधात् अविरोधे वा भावाइभावकरम्बितो भयवस्त्वापत्तेः । किञ्च तत्वज्ञानेऽपि मुमुक्षयैवेच्छा जायमाना तस्य स्वतः फलत्वं व्याद्दन्ति । यदि च तत्र स्वरसत एवेच्छा तदा वटादावपि तथैव सा स्यादिति घटादेरपि स्वतः फलत्वापत्तिरिति न किञ्चिदेतत् । [ भ्रमनिवृत्ति के बाद पुनः अमोदय से प्रवृत्ति की उपहास्यता- उत्तरपक्ष ] उक्त रोति से नित्यचैतन्यात्मक मोक्ष के लिये इच्छा और प्रवृत्ति का उपपावन करने वाले वेदान्ती की यह अपूर्व [ उपहसनीय] बुद्धिमत्ता प्रकट होती है कि मुमुक्षु लयसमाधिलीन होने पर उसके मोक्ष में अप्राप्तश्वभ्रम की निवृत्ति हो जाने पर भी पुन: श्रप्राप्तत्व भ्रम का उदय होता है और उससे उसकी प्रवृत्ति होती है । दूसरी बात यह है कि अप्राप्तत्वभ्रम की निवृत्ति के समान समाधि के लिये भी उपदेश व्यर्थ है क्योंकि शमादि की मुक्तिसाधना में कोई प्रमाण नहीं है। यदि यह कहा जाय कि 'शमादि की मोक्षसाधनता भले प्रामाणिक न हो किन्तु तत्वज्ञानसाधना प्रामाणिक है और तत्त्वज्ञान स्वतः फलरूप होने से विधेय नहीं हो सकता, अतः उसका उपाय होने से शमादि विधेय हो सकता है। अतः शमादि के लिये उपदेश व्यर्थ नहीं हो सकता ।' तो यह ठीक नहीं, क्योंकि तत्त्वज्ञान सुख अथवा दुःखाभावरूप न होने से स्वतः फल नहीं हो सकता। यदि कहा जाय कि- 'तत्वज्ञान दुःखहानिरूप होने से हो स्वतःपल है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि एकवस्तु में भावाऽभाव उभयरूपता वेदान्तमत में विरुद्ध है । यदि भावाभावरूपता में विरोध न माना जायगा तो भावाभावमिश्रित उभयवस्तु की प्रापत्ति होगी अर्थात् दुःखहानिस्वरूपेण अभात्रात्मक और तत्त्वज्ञानात्मना भावात्मक एक वस्तु और तत्त्वज्ञान स्वरूपेण भावात्मक एवं दुखहानिस्वरूपेण अभावात्मक इस प्रकार उभयवस्तु को प्रापति होगी । इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह कि यतः तत्त्वज्ञान की इच्छा मोक्षेषामूलक होती है । छतः वह स्वतः फलरूप नहीं हो सकता। क्योंकि जिस वस्तु की इच्छा अन्य वस्तु से जन्य नहीं होती वही स्वतः फलरूप होती है। यदि तत्त्वज्ञान की इच्छा मोक्षेच्छापूर्वक न होकर नैसर्गिक होगी तो घटादि में भी उसी प्रकार नैसर्गिक इच्छा मानने से घटादि में भी स्वतः फलत्व की आपत्ति होगी । अतः वेदान्तो का उक्त कथन महत्वशून्य है ।

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