________________
स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेघन ]
कथित तात्पर्यनिर्णय के छः लिग उपक्रम-उपसंहार की एकरूपता, अभ्यास, अपूर्वप्ता, फल, अर्थवाद और उपपत्ति इन छह लिङ्गने का वेदान्त की अवित्तीयब्रह्मपरता में योजन ।
__ मनन का अर्थ है जिस अर्थ में वेदान्त वाक्यों का तात्पर्य निर्णीत हो जाय उस अर्थ का युक्तिपूर्वक प्रतुसंधान-अनुमान द्वारा पुष्टिकरण ।
___ निदिध्यासन का अर्थ है-विजातीयप्रत्यय-ब्रह्मभिन्नवस्तुग्राही मनोयसि का निरोध कर सजातीय प्रत्यय = ब्रह्माकार मनोवृत्ति को प्रवाहित करना। अर्थात् अविच्छिन्नरूप से ब्रह्म का अनुध्यान करना। इन तीनों में श्रवण प्रधान है और मनन तथा निदिध्यासन उसके फलोपकारी अङ्ग है। क्योंकि 'आरमा वाऽरे दृष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निविध्यासितव्यः' इस आत्मदर्शनोपाय के प्रतिपादक श्रुति में श्रवण का प्रथम उल्लेख है । प्रतः श्रवण विधि के ही अर्थवादोक्त फल की कल्पना से मनन और निदिध्यासन को फलवत्ता सिद्ध हो जाती है, अत: उनके पृथक फल को कल्पना का क्लेश अनावश्यक है।
उक्त तीनों में श्रवण की प्रधानता इसलिये भी होती है कि वह तत्त्वज्ञान में शब्दात्मक प्रधान प्रमाण के प्रमाकरणस्वरूपस्वरूप का निर्वाहक है, क्योंकि अन्य साधन से ज्ञात अर्थ में जिस शम्ब की शक्ति और तात्पर्य अवधारित होता है, यही प्रमाा का जनक होता है। अतः ब्रह्मातस्य में पेक्षान्तों के तात्पर्य का अवधारणरूप अथवा उस अवधारण का प्रयोजक व्यापाररूप श्रवण, वेदान्तवाक्य से होने वाली ब्रह्मप्रमा का प्रयोजक है।
कुछ विद्वान ऐसे हैं जो तत्त्वज्ञान के लिये श्रवणादि की विधि नहीं मानते किन्तु मन से ही तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति मानते हैं। उनके मत में निदिध्यासन मन का सहकारी है और श्रवण एवं मनन निदिध्यासनाथं अपेक्षित है । अत एव उनकी श्रवण की प्रधानता में अभिरूधि नहीं है।
विधिश्चात्र नियम एव, निर्विशेषात्मबोधेऽपि पुराणप्राकृतवाक्यश्रवणादेः प्रासत्वात्, वेदान्तश्रवणस्य नियमनात् । संभवति हि शूद्रादेः शमादिसंपन्नस्य पुराणश्रवणादिना तत्त्वबोधः । ब्रामणस्य तु न वेदान्तपरित्यागेन पुराणश्रयणमिति नियमविधः फलम् । एतच्च श्रवणाद्यावृचं तत्वधीहेतुः, दृष्टार्थत्वात् । एवं बहुजन्मलब्धपरिपाकवधादसौ 'तत्वमसि'आदिवाक्यार्थ विशुद्ध प्रत्यभिन्न परमात्मानं साक्षात् कुरुते ।
श्रवणादि का विधि यह नियम विधिरूप है ] जो विद्वान् श्रवणादि की विधि मानते हैं उनके मन में श्रवणादि की विधि अपूर्वविधि अथवा अन्य कोई विधि न होकर नियमविधि ही है । क्योंकि निविशेष आत्मा के बोध में भी वेदान्त श्रवण के समान पुराण और प्राकृतवाक्य आदि का भी श्रवण प्राप्त होता है। अत: इस नियम विधि से पेदान्तश्रवण का नियमन होता है । शूद्रादि जो शमादि से सम्पन्न है उसे पुराण के श्रवणादि से भी सस्वज्ञान होता है। किन्तु 'ब्राह्मण वेदान्त का परित्याग कर पुशण का श्रवण न करें' यही नियमविधि का फल है। श्रवणादि तीनों उपाय पुनः पुनः आपत्तित होने पर तत्वज्ञान के जनक होते हैं क्योंकि उनका तत्वज्ञानरूप दृष्ट फल है । अत: इस फल की सिद्धि न होने तक उनका आवर्तन प्रावश्यक होता है। इस प्रकार अनेक जन्मों में श्रवणादि के आवर्तन से उनका परिपाक होने