________________
स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
के तुल्य है । अज्ञान-देहादि सर्वदा भासमान ही होता है। पुत्रादि को अप्रतीतिकाल में पुत्रादि का अभाव होने पर भी रुवनादि का प्रसङ्ग नहीं हो सकता । क्योंकि रुदनावि के प्रति पुत्रादि के अभाव का निश्चय कारण है और वह पुत्रादि को अप्रतीतिकाल में नहीं होता। इस मत में 'लदेवेदम् यह प्रत्यभिज्ञा भो भ्रम है। आकाश वायु आदि के क्रम से मूतों को सृष्टि-आकाशादि का पन्नीकरण और ब्रह्माण्डादि को उत्पत्ति ये सब इस मत में उसी प्रकार सिद्ध होता है जैसे मीमांसकों के मत में देवतादि का विग्रहशरीर सिद्ध होता है। इसलिये इस मत में दृष्टि के प्रभाव में दृश्य की सिद्धि नहीं होती।
[ देवताशरीरवत् दृष्टिसृष्टिवाद में दृश्य का अभाव ] कहने का आशय यह है कि मीमांपादन में देवता को सशरीदी नहीं माना जाता क्योंकि शरोरवान मानने पर एक ही काल में सुदरबत्तौ विभिन्नकर्मस्थलों में शरीरवान देवता की उपस्थिति नहीं हो सकती। अत: यह माना जाता है कि देवता वस्तुतः अशरीर है किन्तु तत्तत्कमकाल में सदेह देवता की उपस्थिति को बद्धि होती है । अर्थात देवता का वास्तविक शरीर नहीं है किन्तु वैज्ञानिक शरीर है। ठीक उसी प्रकार दृष्टिसष्टिवाद में दृष्टि के अभाव में दृश्य को सत्ता नहीं होता फिन्तु दृश्य और दृष्टि दोनों की प्रज्ञान द्वारा सहोत्पत्ति होती है। इसीलिये इस मत में प्रथ में अनेकप्रमाणवेधता नहीं होती। जागतिकाल में जो 'चक्षुषा पश्यामि' यह व्यवहार होता है यह स्वप्न में जैसे चक्षुजन्य दर्शन न होने पर चक्षुर्जन्यत्वेन दर्शन का व्यवहार होता है, ठीक उसीप्रकार जाग्रत्काल में भी उक्त व्यवहार होता है । इसीलिये इस मत में सुखादि के समान सर्वपदार्थ केवल साक्षिवेद्य है।-व्यवहार का उक्त रीति से समर्थन करने पर यह प्रश्न होता है कि-'यदि अर्थ का दशन चक्षुआदि से नहीं होता तो निकट से दृश्यमान घटादि को अपरोक्षता और दूर से अनुमीयमान वह्नि आदि को परोक्षता कैसे हो सकती है ? षयोंकि अज्ञानजन्यता और साक्षि में प्रध्यस्तता दोनों में समान है ।" तो इसका उत्तर यह है कि वह्नि आदि में परोक्षता भी अध्यस्त है । इसलिए अपरोक्ष घटादि और परोक्ष वह्वयादि में बौलक्षण्य की सिद्धि होती है। यदि यह कहा जाय कि-'वह्नि आदि में परोक्षता का अध्यास मानने पर अध्यस्ताधिष्ठानक अध्यास अभ्युपगत होगा अतः बौद्धमत का प्रवेश होगा क्योंकि शून्यबादी बोद्धमत में अध्यस्ताधिष्ठानक हो श्रध्यास होता है"-तो यह ठीक नहीं है । वेदान्त मत में अधिष्ठान स्थायी और अबाधित होता है । जब कि बौद्ध मत में अधिष्ठान अस्थायी और बाधित होता है । इस मत में सम्पूर्ण दृश्य का हेतुसूत अनावि अज्ञान मान्य है जब कि बौद्धमत में इस प्रकार के अज्ञान की मान्यता नहीं है ।"
न, अधिष्ठानस्य स्थायित्स्वासिद्धः, नीलाद्याकाणाऽस्थायित्वदर्शनात् । 'नीलाद्याकाराः स्वाध्यस्ता अतिरिक्ता एव, साक्षी तु चिद्रूपः स्थायी ति चेत् ? न, नीलादिविनिमुक्तस्य चिद्रूपस्याभासमानत्वेनाऽसच्चात् । 'नीलपीतादिभानानुगतं चिद्रपमेव स्थायी ति चेत् ? तर्हि नीलादिरूपमपि प्रतिप्रपात्रनुगतं स्थायीभवेत् । 'संतानभेदाद् नीलादिभेद'श्चेत् । नीलाद्याकारभेदाच्चिद्रूपस्यापि किं न भेदः १ । अज्ञानमपि नानादिसकलदृष्टिहेतुः, नित्यस्य क्रमिकनानादृष्टिहेतुत्वानुपपत्तः, कारणान्तरविलम्याभावादेकस्मादेकदैव सर्वोत्पचिप्रसङ्गात् । 'तजनित