Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 141
________________ स्या० क टोका एवं हिन्दी विवेचन ] १३१ रोति से हेतु का असत्व माना जायगा तो प्रदीपप्रभारूप दृष्टान्त में भी साधन का प्रभाव होगा, क्योंकि प्रवीपप्रभा भी प्रर्थज्ञान को उत्पन्न कर अर्थावरणतिवृत्ति के प्रति अन्यथासिद्ध हो जाती है।"-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि वह स्वविषय के अन्धकाररूपाधरण की निवृत्ति का हेतु है। यदि यह कहा जाय कि-'सुखादि की अज्ञात सत्ता न होने से, सुखादिशान में उक्त साध्य न रहने से, जसमें उक्त हेतु साध्य का व्यभिचारी होगा'-तो यह ठोक नहीं है, क्योंकि उसमें स्थविषयावरणनिवृत्तिजनकत्वरूप हेतु ही नहीं है, क्योंकि उसका विषयभूत सुख आवृत नहीं होता। [ स्मृतिम्थल में अनेकान्तिक दोष का निवारण ] यदि यह कहा जाय कि 'स्मृति में स्वविषय के स्मृतिप्रामभावरूप आवरण को निवर्तकता होने से उक्त हेतु स्मृति में है, किन्तु स्मतिविषय के आवारक अज्ञान की अनुभव से ही निवृत्ति हो जाने के कारण उसमें उक्त बस्स्वन्तरपूर्वकत्यरूप साध्य नहीं है अतः उसमें हेतु साध्य का ध्यभिचारी हो जायगा -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि हमतिप्रागभाव स्मतिविषय का प्राधरण नहीं है क्योंकि आवरण का निर्वचन यह किया गया है कि जिसके रहने पर जिस ज्ञान के विषय का स्फुरण नहीं होता वह उस ज्ञान के विषय का प्रावण होता है । यह लक्षण स्मतिप्रागभाव में नहीं घटता, क्योंकि अनुभवदशा में स्मतिप्रागभाव के रहने पर भी भावी स्मृति के विषय का अनुभवमहिमा से स्फुरण होता है । अत एव स्मृति में स्वविषयावरणनिवर्तकत्वरूप हेतु न होने से व्यभिचार नहीं हो सकता। न चैवं प्रमाण ज्ञानप्रागभावस्यापि स्वविषयावरणवाभावात तब्धावृत्यर्थम्याविशेषणस्य वैयर्यम् , अत्यन्तापूर्वार्थज्ञानप्रागभावस्य तथात्वात् । आद्यज्ञानग्य पक्षत्वाद् न तत्र व्यभिचाः। हेतुत्वं च पुष्कलहेतुत्वम् , तेन नेश्वरादौ प्रतियोगिनि चापरणे व्यभिचारः । न चाऽसंभावनादिनिवर्त के श्रवणादौ व्यभिचारः, असंभावनादेः स्वविषयावरणत्वे साध्यसद्भावात् । न च तेनैव सिद्ध साधनम् , तस्य ज्ञानाऽनिवत्यत्वात् । दृष्टान्तेऽपि सविकिरणस्थासु द्वितीयाद्यासु च दीपप्रभासु साध्यसाधन कल्यपरिहाराय विशेषणद्वयोपादानम्-'' इति स्वगृह विचारपरिष्कृतमनुमानमपास्तम्। [ आद्यविशेषण व्यर्थ होने की शंका का निवारण ] इस पर यदि यह कहा जाय कि-'तब तो इसो रोति से प्रमाणज्ञान का प्रागभाव भी उसके विषय का आवरण नहीं होगा, अतः उसकी व्यावृत्ति के लिये प्रायविशेषण का उपादान व्यर्थ हैतो यह ठीक नहीं है क्योंकि जो अर्थ जिस प्रमाणज्ञान के पूर्व कभी गहीत नहीं है जस अर्थ के ज्ञान का प्रागभाव उक्त रीति से स्वविषयावरण हो सकता है । क्योंकि उस ज्ञान के प्रागभावकाल में उस ज्ञान के विषय का स्फुरण कभी नहीं होता । अतः उस प्रागभाव को व्यावृत्ति के लिये प्रथम विशेषण की सार्थकता संगत है । यदि यह शंका की जाय कि-'पायज्ञान में हेतु में साध्य का व्यभिचार होगा, क्योंकि प्राधज्ञान के प्रागभावकाल में उसके विषय का स्फूरण नहीं होता प्रतः उसका प्रागभाव स्वविषय का आवरण है, अत एव आद्यज्ञान में स्वविषयावरणनित्तिजनकस्वरूप हेतु है, किन्त साध्य नहीं है तो यह लोक नहीं क्योंकि प्राद्यज्ञान भी पक्षान्तर्गत है अत एव उसमें व्यभिचार का निरूपण नहीं हो सकता।

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