Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 147
________________ स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १३४ 'सदेवेदम्' में तत् का अर्थ है प्रतिबिम्बाभेद भ्रम का विषय और उसका अमेव इवमय में प्रवाधित है। भतः उक्त प्रत्यभिज्ञा की 'यह ग्रोषास्थ मुख यही है जो प्रतिबिम्बामेव भ्रम का विषय हो चुका है इस प्रर्थ से उपपत्ति हो सकती है। इस सम्बन्ध में उपर्युक्त से अधिक बात साल्पमत चर्चा के प्रसङ्ग में विवेचित की जा चुकी है। ततः प्रतिबिम्बस्य रूपयर एव मापा जेभरमीचोलिम्त प्रतिबिनादिमावः । न चाकाशस्यामृतस्यापि प्रतिविम्ब दृश्यत इति युक्तम् , आकाशस्याऽयोग्यत्वे तत्प्रतिविम्बस्य सुतरामयोग्यत्वात् , जले प्रभामण्डलाधवच्छिन्नयोग्यदेशस्यैव प्रतिबिम्बोपपत्तेः। 'अमूर्तेऽपि ज्ञाने विषयप्रतिविम्याभ्युपगन्त्रा कथममूर्ते विम्पप्रतिविम्वभावः शक्यः प्रतिक्षेप्तुम् ?' इत्यप्यज्ञानविजम्भितम् , विषयग्रहणपरिणामस्यैव प्रतिविम्बत्येनाभ्युपगमात् , इत्थमेव विषयाकाराप्रतिसंक्रमादिना ज्ञानस्य प्रतिविम्बाकारताप्रतिक्षेपस्य ज्ञानवादिकृतस्य प्रत्युक्तरित्यन्यत्र विस्तरः । [अरूपी वस्तु का प्रतिविम्ब असंभव ] ___ इस प्रकार उक्त विचार से यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि रूपवान् वस्तु का ही प्रतिमिम्ब होता है। ईश्वर और जीव में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव नहीं हो सकता, क्योंकि ईश्वर रूपी नहीं है। इस पर यदि यह शंका हो कि "अमूर्त-नीरूप प्राकाश का भी प्रतिबिम्ब जलावि में देखा जाता है अतः रूपवान् का ही प्रतिबिम्ब होता है। ऐसा नियम नहीं है"-तो यह शंका उचित नहीं है क्योंकि आकाश अयोग्य है, अतः उसका प्रतिबिम्ब भी निश्चितरूप से प्रयोग्य ही है। जल में जो प्रतिविम्म देखा जाता है उसे आकाश का प्रतिबिम्ब न मान कर प्रभामण्डलादि से विशिष्ट प्रत्यक्षयोग्य देश का ही प्रतिबिम्ब मानना उचित है। यदि यह कहा जाय कि-"ममूर्तज्ञान में विषम का प्रतिबिम्ब मानने वाले जंन के लिये अमूर्त में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव का निषेध करना शक्य नहीं है"सो यह कथन अज्ञानमूलक है क्योंकि जैन मत में धात्मस्वरूपज्ञान के विषयग्रहणपरिणाम को ही प्रतिबिम्ब माना गया है न कि आदर्श में मुखप्रतिबिम्ब के समान अमूर्त ज्ञान में विषय का प्रतिबिम्ब माना जाता है। इसी प्रकार विज्ञानवादी का यह आक्षेप कि-'ज्ञान में विषयाकार का संक्रमण माने बिना उसमें विषयप्रतिबिम्ब के प्रकार का प्रभ्युपगम नहीं हो सब ता'-निःसार हो जाता है, क्योंकि जैन मत में शान में विषयप्रतिविम्ब का आकार न मान कर ज्ञान का ही विषयग्रहणरूप परिणाम माना गया है और उसका प्रतिबिम्ब शम्द से व्यवहार होता है। इस विषय का विस्तृत विचार अन्यत्र उपलब्ध है। ननु-अस्माभिरपि जीवेश्वरमावेन द्वित्वमेव प्रतिविम्वत्वेनोपैयत इति न दोषा-इति चेत् १ न, अतत्स्वभावस्य तच्चायोगात् , तत्स्वभावत्वे चैका-ऽनेकवस्त्वङ्गीकारे परमताश्रयणात् । तदुक्त ग्रन्यकृतवान्यत्र-"तदिमागानामेव नीत्यात्मत्वाद" इति । दिलरूप प्रतिबिम्ब की उत्पत्ति का अयोग] यदि वेवान्तीओं की ओर से यह कहा जाय कि-'हमें भी जीव और ईश्वरभाव से ब्रह्म में द्विस्वात्मक प्रतिबिम्ब की उत्पत्ति ही मान्य है न कि ईश्वर और जीव में बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव मान्य है।

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