Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 134
________________ [ शास्त्रवार्ता ० स्त० ८ इलो० ७ स्वाध्यस्तत्वेनेति स्व- परचित्तङ्गः । स्वचितं परकीयत्वमध्यस्थ कथायां त्वच्यवस्था | तस्माद दृष्टिसृष्टिवादेऽपि वेदान्तिनां शून्यतावादाद् न विशिष्यते । तथा च सुष्ठुपहसितमेतत्"प्रत्यक्षादिप्रसिद्धार्थविरुद्धार्थाभिधायिनः । वेदान्ता यदि शास्त्राणि बौद्धः किमपराभ्यते १ ॥” इति । दूसरी बात यह है कि इस पक्ष में दृष्टिसृष्टिवाद में पदार्थ को अज्ञात सत्ता नहीं होती, दूसरी और परचित्त का ग्रहण अनुमानसाध्य होता है और अनुमान गृहीत लिङ्ग से अगृहीतसाध्य में ही प्रवृत्त होता है । किन्तु इस मत में अगृहीतः अज्ञात की सत्ता सम्भव नहीं है अतः परचित्त का ग्रहण न हो सकने से पर के प्रति प्रश्न की अनुपपत्ति होगी। यदि परचित्त को भी स्व में अध्यस्त मानकर उसके ग्रहण का अभ्युपगम किया जायगा तो स्वचित्त और परचित में सांकर्य का प्रसङ्ग होगा । अर्थात् स्वचित्तगतभावों के समान परचित्तगतभावों के ग्रहण की भी प्रसक्ति होगी । यदि यह कहा जाय कि - 'परचित्त का अस्तित्व ही नहीं है' किन्तु स्वचित्त में ही परकीयत्व का अभ्यास कर कथा होती है तो ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर जयपराजयादि की व्यवस्था न हो सकेगी । १२४ freni यह है कि उपर्युक विचारों के अनुसार वेदान्तीओं का दृष्टिसृष्टिवाद बौद्धों के शून्यतावाद से भिन्न नहीं सिद्ध होता । अतः इस मत का विद्वानों ने यह कहते हुये उचित हो उपहास किया है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से प्रसिद्ध अर्थ से विरुद्ध अर्थ का अभियान करने वाले 'वेदान्त' यदि प्रमाणभूत शास्त्र हो सकते हैं तो फिर बौद्धों का क्या अपराध है कि उनके शास्त्र को प्रमाणभूत शास्त्र न माना जाय ? अपि च, अविद्यायामेव मानाभावाद् विशीर्यते सबै तन्मूलं वेदान्तिमतम् । न च 'न जानामि' इत्यनुगतः प्रत्ययस्तत्र मानम् ' अहम् अहम्' इत्यनुगतमत्यात्वस्याप्यनुगतस्य सिद्धयापतेः । न च न जानामि' इत्यत्रानुगत विषयानुपपत्तिरप्यस्मान् प्रति सिद्धा, सर्वात्मना स्वरूपज्ञानाभावस्य सर्वत्रानुगतत्वाद, सर्वात्मना स्वरूपज्ञानस्यानुवृत्ति-व्यावृत्तिपर्यायद्वारा सर्वज्ञान नियतत्वाद्, विना सर्वज्ञं कुत्राप्यर्थे तदनुपपत्तेः । तदयमाचाशंगे [३-४-११२] परस्परसमनियमाभिप्रायः परमर्षिवचनोद्गारः- “जे एगं जाणइ से सच्चं बाण, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ" इति । मुख्य बात यह है कि श्रविद्या के अस्तित्व में कोई प्रमाण नहीं है । अतः अविद्यामूलक सम्पूर्ण वेदान्तमत अनायास निरस्त हो जाता है। जो विद्या के सम्बन्ध में 'न जातामि' इस अनुगत प्रत्यय को प्रमाण कहा गया यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि, यदि 'घटं न जानामि' 'पटं न जानामि' इत्यादि प्रतोतियों को 'न जानामि' इस अंश में समान होने से उन प्रतीतिओं से यदि एक अनुगत अज्ञान (अविद्या) की सिद्धि की जायगी तो 'अहं घटं जानामि' 'अहं पटं ज्ञानामि' इत्यादि प्रतीतियां 'अहं' इस श्रंश में समान होने से एक धनुगत अहंत्व की भी सिद्धि की आपत्ति होगी। जिसके फलस्वरूप अमर्थ में भिन्नता का लोप हो जायगा । एवं अविद्या के समान महत्व भी अनावि सिद्ध होगा । [ व एक जानाति स सर्वं जानाति यः सर्वं जानाति स एक जानाति । ]

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