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शास्त्रवार्ता स्त.
लो. ७
में घटादि प्रत्यक्ष होने पर 'भूतले घटोनास्ति, भूतले घटो न भाति' दोनों ही व्यवहारों का प्रतिरोध हो जाता है। इस प्रकार अनुमिति रूप ज्ञान में भी प्रज्ञाननिवर्तकता होने से बाध नहीं होता।
- इस पर यह शंका हो सकती है कि-'यवि परोक्षज्ञान से प्रज्ञान को निवृत्ति होगी तो परोक्षजान से अपरोक्षभ्रमात्मक प्रत्यक्षविषयीभूत अधिष्ठान में प्रत्यक्षयोग्यवस्तु के भ्रम की निवृत्ति का प्रसंग होगा, क्योंकि भ्रम के उपादानभूत प्रज्ञान का नाश होने पर भ्रम का अवस्थान सम्भव नहीं हो सकता।"-किन्तु यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि 'रज्जुरियं न सर्पः' इस प्राप्तवचन से 'यह रज्जु है सर्प नहीं है। ऐसा परोक्षज्ञान होने पर रज्जु में सर्पभ्रान्ति की निवृत्ति होने से उक्त प्रसङ्ग को इष्टापत्तिरूप में स्वीकृत किया जा सकता है।
न च 'पीतः शङ्खः' इत्यादौ चैत्यानुमित्या तदज्ञाने नष्टे भ्रमनिवृत्तिप्रसङ्ग, अस्य भ्रमस्य सोशधिकत्व उपाधेरेयाज्ञाननिवृत्ती प्रतिबन्धकत्वात् । यदि च रविरश्मिभिः सह पित्तधातोः शङ्खदेशं यावद् गमने शङ्खसंपृक्तस्य च तस्य चाक्षुषयोग्यत्वे दोषयशेन च द्रव्याऽग्रहेणेऽपि रूपमात्रग्रहणे मानाभावाद् गौरवाच्च, भ्रमस्य च पीतत्वसंस्कारादेव पित्तदोषसहितादुपपत्तेनाय पित्तोपाधिका, तदा पित्तदोषस्यैव तथात्वादिति । रजतज्ञानेऽपि न बाधः, तस्य सुखादिज्ञानवत् पक्षत्वाभावात् ।
[ 'पीतः शंख' भ्रम के उच्छेद की शंका का निवारण ] यपि यह कहा जाय कि-'परोक्षजान से अज्ञान की निवृत्ति मानने पर 'पीत: शंखः' इस भ्रमस्थल में शंख में श्वत्य की अनुमिति से श्वैत्य के प्रज्ञान का नाश होने पर पीतः शंखः' इस भ्रम को निवृत्ति का प्रसहोगा।'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि शंख में पीतत्व का भ्रम सोपाधिक है अतः उक्त स्थल में उस भ्रम की प्रयोजक उपाधि ही अज्ञाननिवत्ति में प्रतिबन्धक हो जाती है। इस पर यदि यह कहा जाय कि -'उक्त भ्रम पीत्तद्रव्योपाधिक नहीं है अपितु निरुपाधिक है, क्योंकि वह भ्रम पीत्तचोष सहकृत पीतत्वविषयक संस्कार से ही उत्पन्न होता है। यदि वह इसलिये होता हो कि सूर्य से अधिष्ठित चक्षरश्मिओं के साथ नेत्रगत पित्तधातु शंख देश में जाकर शंख पर आवत होता है और उसके चाक्षुष योग्य होने पर भी दोषवश द्रव्यांश का ग्रह न होकर शंख में केवल उसके रूपमात्र का ग्रहण होता है-तो इस बात में कोई प्रमाण नहीं है और गौरव भी है।"- तो इस कथन से भी उक्त आपत्ति का समर्थन नहीं हो सकता क्योंकि पित्तदोष ही अज्ञान की निवत्ति में प्रतिबन्धक है। शुक्तिरजतज्ञान में भी बाध नहीं हो सकता, क्योंकि सुखादिज्ञान के समान विवाद का विषय न होने से उसका भी पक्ष में अन्तर्भाव नहीं होता।
साध्ये ज्ञानप्रागभावच्यावृत्यर्थमाद्यं विशेषणम् । न च म्वनिवर्त्यपदेन तद्यावृत्तिः, निवृत्तेः स्वानतिरेकादिति वाच्यम् , 'सादिरनन्तो ध्वंसः' इति मते तदतिरेकात् । उत्तरज्ञाननिवर्त्यपूर्वज्ञानेन भिन्नविषयेण सिद्धसाधनवारणाय स्वविपयावग्णेति । यस्मिन सति ज्ञानविषयो न स्फुरति तत् स्वविषयावरणम् , न च पूर्वज्ञानं तथा, तस्योत्तरज्ञानविषयस्फुरणाभावाप्रयोजकत्वात् । असंभावनाविपरीतभावनात्मका दृष्टव्यावृत्तये तृतीय विशेषणम् । प्रमानिष्ठाऽ