Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 109
________________ स्था० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] इ8 अस्तित्व है, किन्तु पारमाथिकरूप में तत्त्वमसि' इत्यादि महावाक्य के अनुसार एक प्रखण्ड ब्रह्म का हो अस्तित्व है- इस पर ग्रन्थकार कहते हैं नन्धयमनुक्तोपालम्भः, अविद्यायाः पुमनाय, शमा प्रमेयानिविभागेन व्यावहारिकभेदस्य च प्रागुक्तरीत्याऽभ्युपगमादेव, परमार्थतस्तु तत्वमसि' इत्यादिनोक्तमखण्डमेव सद, इत्यत आह विचाऽषिद्यादिभेदाच्च स्वतन्त्रणव बाध्यते। तत्संशयादियोगाच प्रतीत्या च विचिन्त्यताम् ॥ ७ ॥ विद्याऽविधादिभेदाच्च स्वतन्त्रेणेव = स्वाभ्युपगतप्रामाण्येन शास्त्रेणैव याध्यतेऽद्वैतम् । तथाहि-"विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोमयं स हाविद्यया मृत्यु तीर्खा विद्ययाऽमृतमश्नुते" इति श्रुतौ विद्याऽविद्ययोरमृताप्तिमृत्युतरणफलयोः स्फुटमेवोक्तो भेदः, स चाद्वैतेन विरुध्यते । [अद्वैतवाद स्वशास्त्रों से बाधित ] वेदान्त का अद्वैत सिद्धान्त अपने शास्त्र से ही बाधित हो जाता है, क्योंकि उसमें विद्याअविद्यादि का मेव स्वीकार किया गया है। इसी लिये अद्वैत के विषय में इसप्रकार का संशयादि भी सम्भव है कि वेदान्त में प्रतिपादित द्वैत सत्य है अथवा अद्वैत सत्य है ? तथा, जो विभिन्न घटादि पदार्थों को मदरूप से अभिन्नता को और प्रातिस्विकरूप से भिन्नता की प्रतीति होती है उस प्रतीति से भी यह प्रवतमत विचारणीय हो जाता है, क्योंकि एकमात्र अद्वैत का ही अस्तित्व होने पर घटादिभावों की भिन्न-भिन्न रूप में प्रतीति को उपपत्ति नहीं हो सकतो। आशय यह है कि विद्यां च अविद्या च' इस श्रुतिवचन में अविद्या से भत्यु का तरण और विद्या से अमृत की प्राप्तिरूप फल बताया गया है। उक्त फलों में भेद स्पष्ट होने से उनके उत्पादक अविद्या और विद्या में भेद स्पष्ट है और वह भेद अद्वत से विरुद्ध है। नन्वत्राविधया श्रवणादिलक्षणया मृत्यं तीत्वाऽविद्यामेव निवन्य विद्ययोपलचितममृतमश्नुते. स्फटिकमणिरिवोपाधित्यागादन्तरेण प्रयत्नान्तरं स्वरूपेऽवतिष्ठत इत्यर्थः । अविद्ययवाविद्यानिवृतिश्च यथा पयः पयो जस्यति स्वयं च जीति, यथा विषं विषान्तरं शमर्यात स्वयं च शाम्यति, यथा वा कतकक्षोदादिरजो रजोन्तमणि संहरत स्वयमपि संहृतं भवति तथेति । न चासत्याद् न किश्चित् कार्यम्, मायायाः प्रीतेः, भयस्य रेखालादेश्च सत्यप्रतिपत्तेदर्शनावइत्यत आह-तत्संशयादियोगाच्येति = 'किमत्रोक्तार्थेन 'तत्वमसि आयुक्ताद्वेताबाधा, उत विद्याऽविद्यापदर्थाभ्यां ज्ञानकर्मभ्यामतिरिक्तमुक्तिसाधनस्क्योधात तबाधा ?' इति संशयात् । एवं " ब्रह्मणी वेदितव्ये परं चापरं च" इत्याधुक्तो भेदः सत्यः, उत प्रागुक्तोऽभेदः ?' इति संशयः । तथा "परं चापरं च ब्राह्म यदोङ्कारः" इत्याधुक्तं शब्दब्रह्माद्वैतम् , प्रागुक्तं निगुणब्रमाद्वयं वा ? इत्यपि ।

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