Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 122
________________ [ शास्त्रवार्ता. स्त०८ श्लो० ७ लेकर 'पर्वते धति साक्षात्करोमि'-पर्वत में अति को देखता हूँ'-इस प्रकार पर्वत में वह्नि में अपरोक्षता की प्राप्ति होगी। [ इदंत्यविषयक वृत्ति मानने पर भी आपत्ति । इसके उत्तर में यदि यह कहा जाय कि-'पर्वतत्वविषयक बत्ति इदन्त्वविषयक भी है और इदत्व दृश्यमाणप्रदेशावच्छिन्नत्वरूप है। क्योंकि दृश्यमाण प्रदेश में ही पर्वत का 'अयं पर्वतः' इस रूप में व्यवहार किया जाता है। इस प्रकार जब इदन्त्व-पर्वतत्व दोनों रूप से पर्वत प्रातिमासिक वति और उसको भ्रमात्मकानमिति को उत्पत्ति के पर्व में ज्ञात है तब एफ पर्वतत्व ही वह्निउत्पत्ति का अवच्छेदक कैसे होगा? और जब केवल पर्वतत्व यति उत्पत्ति का अवच्छेदक नहीं हो सकता तो केवल पर्वतत्व अवच्छेदक को लेकर 'पर्वते वह्नि साक्षात्करोमि' यह आपत्ति कैसे हो सकती है ?" तो इस कथन से वेदान्तो को महान संकट की प्रसक्ति होगी क्योंकि इस कथन के अनुसार अनुमिति का 'पर्वतो वह्निमान्' इस रूप में उल्लेख न होकर 'अयं पर्वतो हिमान' इस रूप में उल्लेख होगा। अतः इदन्त्वविशिष्टदेश में ही वहि की उत्पत्ति माननी होगी। फलतः दृश्यमाणप्रदेशविच्छेदन भी यदि की उत्पत्ति हो जाने से वह्नि के अपरोक्षत्व का प्रसंग तदधस्थ रहेगा। ____ इस सम्बन्ध में यह कथन कि-'केबल पर्वतत्वरूप से पर्वत का ज्ञान होने से भी अधिष्ठान ज्ञान की सिद्धि हो जाती है और पक्षता भी थेवल पर्वतत्वरूप से हो सकती है । अत : 'पवतो वह्निमान्' इस प्रकार की हो अनुमिति होती है'-निरस्त हो जाता है क्योंकि 'अयं पर्वतो यहिमान्' इस प्रकार का अनुभव स्फुट है। अपि च, 'इमे रजत-शुक्ती' इत्यत्र संनिकृष्टशुक्ति-रजतयोरन्योन्यतादात्म्योपचारविनिगमः, धयंश इव प्रकारांशेऽपि प्रमाणतापत्तिः, संनिकर्षसत्वेऽन्यथाख्यातिस्वीकारे चान्यत्राप्येकत्र क्लप्तत्वेन तत्स्वीकारापतिः, तत्रान्परजतादिस्वीकारेऽपि 'इदमेब रजतं शुक्तित्वेनाबासिषम्' इत्याद्यनुमनविरोधः, एवमन्यत्र 'असदेव रजतमत्रान्वभवम्' इत्याद्यनुभवविरोधः, तस्य भ्रान्तत्वे बाधकत्वानापत्तिः, मिथ्यारजतस्य तत्रासत एवोपगमे चासरख्यात्यापत्तिः -"तत्र 'असदेव' इत्यस्य तनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वार्थः अविरुद्धं च तत् सति तत्रासति च तत्रेति" चेत् ! कथं तर्हि तत्र सचा-ऽसत्वाभ्यां निरूक्तिविरहः १ | "पाधा ऽयाधदशयोः सत्राऽसवाभ्यां निरुक्तावप्येकदा तथा निरुक्तिविरहोपगमाद् न दोष" इति चेत् १ न, तुल्यन्यायेन घटादावप्येवमनिपनीयतापत्तेः । अत एवैकपदेन तथाऽप्रतिपाद्यवागत एवं तथात्वं व्यवस्थापितमवक्तव्यमझके । [ 'इमे शुक्ति रजते' इस भ्रमज्ञान में प्रामाण्यापत्ति ] दूसरी बात यह भी ज्ञातव्य है कि-जब रजत को शुक्तिरूप में और शुक्ति को रजतरूप में करनेवाला 'हमे रजतशक्ती' इस प्रकार का भ्रम उत्पन्न होता है तो वहां शक्ति और रजत दोनों संनिकृष्ट रहते हैं और उन दोनों में अन्योन्य तादात्म्य की उत्पत्ति में कोई प्रमाण नहीं है।

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