Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 126
________________ [ शास्त्रवार्ता० स्त०८ श्लो०७ चिन्मात्रविषयक मूलाज्ञान है बहो गगनादि सम्पूर्ण व्यावहारिक वस्तुओं को ईश्वरत्वावच्छेवेनईश्वरात्मक चैतन्य में उत्पन्न करता है और वही जोयत्यावच्छेदेन-जीवात्मक चैतन्य में अहंकार और स्वप्नादि को भी उत्पन्न करता है। तया, वह अहंकारावि चैतन्यसामानाधिकरण्येन- अहमस्मिरयोऽस्ति इत्यादि रूप में स्फुरित भी होता है। स्वप्नादि में जाग्रत् प्रपञ्च विषयक जिस प्रज्ञान का स्वप्न के साथ अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधान होता है यह अज्ञान स्वप्न जनक निद्रादोष को उत्पन्न कर स्वप्न के प्रति अन्यथा सिद्ध होता है और संसारदशा में जिस स्वप्न का बाध कहा जाता है वह सकार्य (सविस्तार) अज्ञान की निवृत्तिरूप वास्तव बाध नहीं है, किन्तु स्वप्नादि के प्रभाव का बोधरूप गौण बाध है, जो स्वप्न के आरम्भकमूलाज्ञान को नियत्ति न होने पर भी उसी प्रकार सम्भव होता है जैसे तूलाज्ञान के अनङ्गीकारपक्ष में शुक्तिरजतादि के आरम्भक मूलाशान की निवृत्ति न होने पर भी शुक्तिरजतादि के जनक आगन्तुक दोष की निवृत्ति होने से शुक्तिरजतादि के अभाव का ज्ञान होता है, उसी प्रकार स्वप्न के आरम्भक निद्रा दोष की निवृत्ति से स्वप्नात्मक आरोप्य के अभाव का ज्ञान उपपन्न होता है।" [ मिथ्यात्य प्रतीति के अभाव की आपत्ति ] तो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि स्वप्नरथावि को मूलाज्ञानजन्य मानने पर जैसे घटादि की निवृत्ति होने पर भी घटादि में मिथ्यात्व की प्रतीति नहीं होती वैसे स्वप्नरथादि की निवृत्ति हो जाने पर भी उसमें मिथ्यात्व को प्रतीति नहीं होगी। क्योंकि भूलाज्ञानजन्य पदार्थ के मिथ्यात्वज्ञान में श्राद्यशक्ति यानी मलाज्ञान ही प्रतिबन्धक होता है। यदि स्वप्नरथादि में मिथ्यात्व उपपत्ति के लिये मिथ्यात्वज्ञानप्रतिबक प्राद्यशक्ति में तत्तदोषनिवृत्ति को उत्तेजक मान कर तत्तद्दोपनिवृत्तिबिरहविशिष्टाद्यशक्ति को मिथ्यात्वज्ञान का प्रतिबन्धक माना जायगा तो यद्यपि स्वाद रथादि के जनक निता वोष की निवृत्ति होने पर तदोषनिवृत्तिविरह विशिष्ट आद्यशवितरूप प्रतिबन्धक न रहने से स्वप्नरथादि में मिथ्यात्वज्ञान की उपपत्ति हो सकती है, तथापि यह कल्पना उचित नहीं हो सकती, क्योंकि ऐसी कल्पना करने पर जो रजतादि विनश्यदवस्थदोष से उत्पन्न होता है उस रजतादि में उसकी उत्पत्ति के समय ही मिथ्यात्व प्रतिपत्ति की आपति होगी। क्योंकि उसी समय उस रजतादि के जनक दोष की निवृत्ति हो जाने से तदोषनित्तिविरहविशिष्टाद्यश वितरूप प्रतिबन्धक का अभाव हो जाता है। इसके अतिरिक्त यह भी आपनि होती है कि चैत्र की प्रथमनिद्रा को निवृत्ति हो जाने पर द्वितीय निद्राकाल में स्वाप्निक रथादि में मिथ्यात्वबुद्धि की प्रापत्ति होगी क्योंकि उस समय सामान्यतः वोषनिवृत्तिविरहविशिष्ट्राधशक्तिरूप प्रतिबन्धक नहीं है। अतः इस आपत्ति का परिहार करने के लिये विशेषरूप से ततद्दोष का उपादान कर ततद्दोषजन्यमिक मिथ्यात्वबुद्धि में तत्तदोषनिवृत्ति को कारण मानना आवश्यक होगा। इस प्रकार इस पक्ष में महान् गौरद होगा। न च तथापि निद्रादोषनिवृत्तौ स्वप्नावगतार्थमिथ्यात्वधीः, शुभादृष्टोपनीतजागरसंत्रादिभाव्यर्थदर्शनेन तदसिद्धे, हेतुविशेष विना निद्राविशेषानुपपत्तेश्च । अपि च एवं जाग्रदशायामिव स्वप्नदशायामपि मोदकभक्षणजन्यं सुखं समानं स्यात्, स्वाध्यस्तत्वाविशेषात् । तथा चायातोऽयं न्यायः--

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