Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 116
________________ १०६ [ शास्त्रधार्त्ता स्त० ८ श्लो० ७ में कही जा सकती है । अर्थात् यह कहा जा सकता है कि विषय भी सामान्यरूप से सर्वत्र अनुगत है, श्रतः वह भी अपनी सत्ता की सिद्धि में प्रयोजक है । यदि इसके विरुद्ध यह कहा जाय कि - ' विषय नीलादि श्राकार से अनुगत नहीं है' तो यह बात ज्ञान और विषय दोनों में समान है क्योंकि ज्ञान के लिये भी यह कहा जा सकता है कि ज्ञान भो तत्तदाकारज्ञानात्मना अर्थात् नीलाकारादिरूपेण अनुगत नहीं है । इसी प्रकार यह कहना कि विषय के बिना ज्ञान का भान नहीं होता, अतः विषयरूप उपाधि के भेद के बिना ज्ञान का भेद नहीं गृहोत होता । अतः ज्ञानभेद वास्तविक नहीं किन्तु विषयोपाधिक है। इस प्रकार ज्ञान की एकता सिद्ध होगी' - तो यह कथन विषय पक्ष में भी सम्भव हो सकता है । अर्थात् यह कहा जा सकता है कि 'ज्ञानभेद से हो विषयभेद गृहीत होता है । अतः विषयभेव ज्ञानोपाधिक है इस प्रकार विषय का श्रद्वैत सिद्ध होगा । किन्तु यह कथन प्रतिबन्धी उत्तर मात्र है ! इसलिये उक्त युक्ति से ज्ञानाद्वैत की सिद्धि नहीं हो सकती । यदि 'घटः सन् पटः सन्' एवं 'घट जानामि' इत्यादि प्रतीति की अपेक्षा कर लाघव के अनुरोध से एकमात्र ज्ञान की कल्पना कर उसे ही सत्ता का श्राश्रय माना आयगा तो इस कल्पना में अधिक लाघव है कि सत्ता निराश्रय है । अतः इस पद्धति से ब्रह्माद्वैत की सिद्धि सम्भव नहीं है। 'प्रपञ्चप्रतिभासस्य मुक्तावभावात् तस्यात्म विशेषाऽदर्शनजन्यत्वेन भ्रान्तत्वात् प्रपञ्चस्यासच्चमित्यपि न रमणीयम्, मुक्तौ विषयाऽस्फुरणे ज्ञानस्यैवाभावप्रसङ्गात् सविषयस्यैव ज्ञानस्य दृष्टत्वात् निर्विषयस्य तस्य कल्पनायां दृष्टविपरीतकल्पनाप्रसङ्गात् । अत एव सर्वविषयत्वं ब्रह्मणः काल्पनिकतादात्म्याश्रयणेन इत्यपि निरस्तम्, सर्वविषयतायाज्ञानखवद् मुक्तज्ञानस्वभावत्वात् । ' सर्वापेक्षा सर्वविषयता न तत्स्वभावे 'ति चेत् ? सर्वापेक्षं सर्वाभिन्नत्वमपि न तत्स्वभाव इति कृतोऽद्वैतसिद्धिः । । ' क्लृप्त सर्वतादात्म्याभाव एव सर्वाभिन्नत्वमिति चेत् ? संसारेऽवि तदबाधितमिति नित्यमुक्ततापातः । १ [ प्रपञ्च प्रतिभास भ्रान्त होने से प्रपञ्च मिथ्यात्व शंका का छेद ] यदि यह कहा जाय कि 'मुक्ति में प्रपक्ष का प्रतिभास नहीं होता । अतः यह सिद्ध होता है कि वह आत्मा के विशेषाऽदर्शन से याती आत्मतत्त्व के अज्ञान उत्पन्न होता है और अज्ञान से उत्पश्न होने के कारण ही वह भ्रम हैं और भ्रम विषय का साधक नहीं होता। इसलिए प्रपश्व असत्य है ।"तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि मुक्ति में यदि विषय का स्फुरण नहीं होगा तो ज्ञान के ही अभाव की श्रापत्ति होगी। क्योंकि ज्ञान नियमतः सविषयक ही देखा जाता है । श्रतः मुक्ति में निश्षियक ज्ञान को कल्पना करने पर दृष्टिविपर्यय की कल्पना होगी । इसीलिये यह कथन भी निरस्त हो जाता है कि 'ब्रह्म में सर्वविषयकत्व सर्व वस्तुओं के काल्पनिक तादात्म्य से होता है क्योंकि जैसे ज्ञानत्व मुक्तज्ञान का स्वभाव है उसी प्रकार सर्वविषयकत्व भी मुक्तज्ञान का स्वभाव है । यदि यह कहा जाय कि 'सर्वविषयता सर्वविषय सापेक्ष होने से वह ज्ञानस्वभावरूप नहीं हो सकती ।' तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार विचार करने पर भी श्रद्वैत की सिद्धि नहीं हो awat | क्योंकि सर्वाभिनत्व भी सर्वापेक्ष होने से वह भी ज्ञान का स्वभाव नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि 'ब्रह्म में जो सर्वतादात्म्याभाव क्लृप्त है अर्थात् सर्वतादात्म्य का पारमार्थिक रूप से

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