Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 118
________________ [ शास्त्रवार्त्ता ० स्त० ८ इलो० ७ मिथ्या होता है। इस प्रकार भ्रान्तिज्ञ भी भ्रान्त हो जायगा । श्रतः ज्ञान को विषयक के मिव्यात्थ से मिय्या मानना असङ्गत है । स्वाभाव सामानाधिकरण्यरूपं विध्यात्वं तु घटेऽपि तुल्यम्, स्वाधिकरणेऽपि परापेक्षया स्वाभावात् । सर्वथा स्वाभावसामानाधिकरण्यं तु विरुद्धमेव, गन्ध-रूपयोरपि स्वभावभेदमपेक्ष्यैव सामानाधिकरण्यात घाणग्राह्मता नियतगन्धस्वभावेन द्रव्यस्य चक्षुर्याह्मतानियत स्वभावरूपाधारतायोगात् । एतेन " अनुभवत्वस्यैव लाघवेन साधकतावच्छेदकत्वात् पुरोवर्तिनि सर्पसिद्धिः" इत्यपास्तम्, अनुभवस्यार्थसाधकत्वं हिं नार्थोत्पादकत्वम्, किन्त्वर्थग्रहण परिणामः इति तत्र सर्पज्ञानसिद्धावपि सर्वोत्वन्यसिद्धेः । न च तत्रानुभूयमानस्यान्यत्र सध्या दिकल्पने गौरवम्, तर्बंध तदुपादानाज्ञानस्याऽन्तरवच्छेदेन तदनुभवाय तदाकारवृत्तेःः रज्जुसत्वस्य तत्र मानेऽन्यथाख्यात्यापत्तिचिया तत्संसर्गात्पध्यादेश कल्पने गौरवात् । १०८ में गन्ध यदि मिध्यात्व की स्वाभाव सामानाधिकरण्यरूप माना जायेगा तो उसका अर्थ यह होगा कि जो वस्तु श्रपने अभावाधिकरण में रहती है वह मिथ्या होती है तो यह मिथ्यात्व शुक्तिरजतादि के समान व्यावहारिक घटादि में भी प्रसक्त होगा, क्योंकि प्रत्येक वस्तु के अधिकरण में परापेक्षया उसका श्रम होता है। यदि सना कामावरण को मिथ्यात्व कहा जायगा तो यह सर्वथा विरुद्ध होगा क्योंकि सर्वथा सामानाधिकरण्य किसी भी दो दस्तु में नहीं होता । जैसे, पुष्प और रूप का सामानाधिकरण्य होता है, किन्तु वह सर्वथा नहीं होता किन्तु स्वभावभेद की अपेक्षा से ही होता है क्योंकि पुष्पाविद्रध्य प्राणग्राह्यतानियतस्वभाव से जैसे गन्ध का आधार है वैसे रूप का नहीं है किन्तु गन्ध के प्राणग्राह्यता नियतस्वभाव से गन्ध का और रूप के चक्षुर्ग्राह्यतानियतस्वभाव से रूप का आधार होता है । : पूर्व में जो यह बात कही गयी थी कि "विषय की साधकता का अवच्छेदक प्रामाणिक अनुभव नहीं होता किन्तु लाघव से अनुनयत्वमात्र ही होता है, विषयत्वेनानुभवत्वेन साध्य साधकभाव ( बोध्यबोधकभाव ) होता है अतः पुरोवर्सी रज्जु में सर्प के अनुभव सर्प की सिद्धि होगी" - वह युक्ति से निरस्त हो जाती है। वह इस प्रकार अनुभव में जो अर्थसाधकता होती है वह अर्थोत्पादकतारूप नहीं होती, क्योंकि अनुभव से उसके विषय की उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु अर्थग्रहण परिणामरूप है । इसके अनुसार अनुभव अर्थ का साधक होता है' इसका आशय यह है- 'अनुभव प्रमचंद का अर्थग्रहणात्मक परिणाम है। इसलिये रज्जु में सर्पानुभव से सर्वोत्पत्ति की सिद्धि नहीं हो सकती । यदि यह कहा जाय कि यदि रज्जुस्थल में अनुभूयमान सर्प की उत्पत्ति नहीं मानी जायेगी तो उसकी अन्यत्र सत्ता आदि की कल्पना करने में गौरव होगा" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इस की अपेक्षा वेदान्तमत में हो कल्पनागौरव है । जैसे, अज्ञान का शरीर के भीतर रज्जुसर्प के 'अहं इमं सर्वं जानामि = मैं इसको साँप जानता हूं' इस अनुभव के लिये उसके उपादानभूत रज्जु - अवच्छिन्न चैतन्य विषयक अज्ञान की तदाकारवृत्ति और उस सर्प में रज्जु-सत्य का भान मानने पर अन्यथाख्याति के आपत्ति के भय से सर्प में सत्त्व के संसर्ग की उत्पत्ति प्रादि की कल्पना श्रावश्यक होगी।

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